अधात्म के मार्ग पर तीन कारक हैं। पहला सद्गुरू या ब्रह्मज्ञानी का सात्रिध्य, दूसरा समुदाय या समूह और तीसरा धर्म – जब इन तीनों का संतुलन होता है तब जीवन स्वाभाविक रूप से खिल उठता है।
सद्गुरू एक प्रवेश द्वार की तरह हैं। मानों आप बाहर रास्ते पर तपती धूप में हों या तूफानी बारिश में फँस गये हों, तब आपको आश्रय या द्वार की आवश्यकता महसूस होगी। उस समय वह द्वार बहुत आकर्षक और मनोहर लगेगा। दुनियाँ की किसी भी चीज से ज्यादा आनंददायक लगेगा। ठीक ऐसे ही आप गुरू के जितने करीब होंगे,आप को उतना ज्यादा आकर्षण, ज्यादा नयापन और ज्यादा प्रेम महसूस होगा। दुनिया की कोई भी चीज वैसी शांति, आनंद और सुख नहीं दे सकेगी।आप ब्रह्मज्ञानी से कभी ऊबेंगे नहीं।उनकी गहराई की कोई थाह नहीं है।यही कारण है कि हम सद्गुरू के पास पहुँच कर सुरक्षित और आनंद में रहते हैं। दूसरा तत्व है – समुदाय या समूह जिसका स्वाभाव बिल्कुल उल्टा है। समुदाय में बहुत लोग होते हैं, मन बिखर जाता है, टुकड़ों में बँट जाता है और आकर्षण समाप्त हो जाता है।
आपका मुख्य उद्देश्य है अपने अन्तर्मन की गहराई के केन्द्र तक पहुँचना जिसका अर्थ है अपने धर्म को पाना – यही तीसरा कारक है। जब आप अपने धर्म में, अपने स्वभाव में स्थित होते हैं तब आप दुनिया को दोष नहीं देते, भगवान को दोष नहीं देते।
हमलोगों की आयु बहुत थोड़ी है और वह भी भाँति- भाँति प्रकार के विध्नों से भरी हुई है। अनावश्यक चिन्ताओं के बीच हमें अपने जीवन को प्रवाहित करना पड़ता है।आप जानते हैं कि उतने बड़े पंडित, ज्ञानी अति बलशाली लंकापति रावण ने तपस्या के बल से प्रचूर बल प्राप्त किया किन्तु विवेकहीनता और अहंकार के वशीभूत होने के कारण मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के द्वारा मारा गया। वहीं भक्त प्रहलाद की भक्ति से आकर्षित होकर भगवान स्थूल रूप धारण किये थे। प्रहलाद का प्रेम इतना शक्तिशाली था कि प्रभु सूक्ष्म रूप को छोड़कर स्थूल रूप में नरसिंह के रूप में प्रकट हो गये।
हरि व्यापक सर्वत्र समाना|
प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना ।।
परमात्मा प्रेम के कारण ही साकार रूप धारण करते हैं। परमात्मा निर्गुण भी हैं और सगुण भी। दोनों तत्व एक ही हैं। वे कोमल भी हैं और कठोर भी।नृसिंह भगवान हिरण्यकश्यप के लिए कठोर हो गये थे। वहीं प्रहलाद के कारण कोमल हो गये थे।यह समझिये कि यदि धन के सहारे भगवान मिलते तो धनवान लोग लाख दो लाख प्रभु को खरीद लेते। अधिक शिक्षा प्राप्त करने से भी भगवान नहीं मिलते। परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए सम्पत्ति, शिक्षा या उच्च कुल में जन्म आवश्यक नहीं है।मात्र ब्राह्मण ही ईश्वर को पा सकते हैं ऐसा भी नहीं है। परमात्मा को पाने के लिए आवश्यक है ह्रदय में शुद्ध प्रेम का होना।
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