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आर्यभट – 6:  आर्यभटीय : त्रिकोणमिति, अंकगणित, ज्यामिति   

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आर्यभट – 6
आर्यभटीय : त्रिकोणमिति, अंकगणित, ज्यामिति    
त्रिकोणमिति: स्कूलों की उच्च कक्षाओं और कालेजों में गणित का एक विषय पढ़ाया जाता है। त्रिकोणमिति। यह रेखागणित के आगे का विषय है। आज दुनिया भर में जिस तरीके से यह विषय पढ़ाया जाता है उसकी खोज आर्यभट ने की थी। आर्यभट के ग्रंथ में पहली बार हमें यह तरीका देखने को मिलता है।
जब कोई गणितज्ञ गणित का कोई नया हल या सूत्र खोजता है, तो उसके साथ उसका नाम भी जुड़ जाता है। जैसे पाइथेगोरस का प्रमेय, भास्कराचार्य का सूत्र आदि। त्रिकोणमिति के जिस तरीके का हमने जिक्र किया है उसके साथ भी आर्यभट का नाम जुड़ना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यूरोप के विद्वानों ने भारतीय खोज को तो अपना लिया, लेकिन उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि आर्यभट ने इसकी खोज की है। हम ही अपने इस महान वैज्ञानिक को लगभग भूल गये थे, तो उनको क्या दोष दें!
यह तो स्पष्ट है कि आर्यभटीय पुस्तक कविता में है, इसलिए जाहिर है कि उसमें अंकों को नहीं लिखा जा सकता था। दूसरी ओर, हम यह भी जानते हैं कि अंकों और संख्याओं के बिना गणित और ज्योतिष की पुस्तक नहीं लिखी जा सकती है। गणित और ज्योतिष की पुस्तक में संख्याओं की भरमार रहती है। आर्यभट संख्याओं को शब्दों में भी लिख सकते थे, लेकिन तब उनकी पुस्तक बहुत बड़ी हो जाती। आर्यभट को एक उपाय सूझा। उन्होंने बड़ी-बड़ी संख्याओं को छोटे-छोटे शब्दों में लिखने का नया तरीका खोज निकाला। बड़ी अद्भूत थी यह खोज!
आर्यभट ने अक्षरों को ही अंक मान लिया। जैसे क को 1, ख को 2, ग को 3 इत्यादि। स्वरों को उन्होंने सौ हजार, दस हजार आदि के बढ़ते मान दिए। इस प्रकार व्यंजनों और स्वरों के मेलजोल से बड़ी से बड़ी संख्या लिखने का एक नया तरीका खोज निकाला। इसके लिए उन्होंने एक नियम भी दिया। अपने ग्रंथ के आरंभ में सिर्फ एक श्लोक में ही उन्होंने इस पूरे नियम की जानकारी दी है।
इस तरीके के अनुसार बड़ी-बड़ी संख्याएं छोटे शब्दों में लिखी जा सकती है। दरअसल, इन्हें शब्द कहना ठीक नहीं है। अलग से इनका कोई अर्थ भी नहीं है। उदाहरण के तौर पर , ‘ख्युघृ’ शब्द को लीजिए। आर्यभट के तरीके के अनुसार इस शब्द का अर्थ है 4320000 । इसी प्रकार ‘बुफिनच’ शब्द का मतलब है 232226 संख्या।
आर्यभट ने अपने समूचे ग्रंथ में संख्याओं को इसी प्रकार शब्दों में लिखा है। आर्यभट के ग्रंथ को समझने के लिए पहले उनके संख्याएं लिखने के तरीके को खूब अच्छी तरह समझना जरूरी है। आर्यभट ने संख्याएं लिखने के लिए अक्षरों का सहरा लिया, तो यह नहीं समझना चाहिए कि उस समय अंकों का इस्तेमाल नहीं होता था, कि अंकों की खोज नहीं हुई थी। आर्यभट को अपने ग्रंथ की रचना कविता में करनी थी, इसीलिए लाचार होकर उन्हें यह नया तरीका खोजना पड़ा। वर्ना, आर्यभट के समय तक हमारे देश में शून्य सहित केवल दस अंकों से सारी संख्याएं लिखने की खोज हो चुकी थी। इसमें सबसे बड़ी बात थी शून्य की खोज। शून्य की खोज, शून्य सहित केवल दस से तमाम संख्याएं लिखने की खोज, किसी गणितज्ञ ने ही की होगी। यह खोज हमारे देश में हुई। आज सारे संसार में शून्य पर आधारित दाशमिक स्थानमान पद्धति का ही प्रचलन है।
परिधि और व्यास का अनुपात: गणित में वृत की पिरिध और व्यास के अनुपात का बड़ा महत्व है। आर्यभट के पहले इस अनुपात का मान 3 या 10 लिया जाता रहा। मगर आर्यभट ने इस अनुपात के लिए एक अधिक शुद्ध मान प्रस्तुत किया। उन्होंने परिधि और व्यास के अनुपात का जो मान दिया वह चार दशमलव स्थानों तक सही है। महत्व की बात यह है कि वे जानते थे कि यह मान परिपूर्ण नहीं है। उन्होंने इसे आसन्न मान कहा है। आसन्न मान क्यों कहा? इसलिए कि आर्यभट जानते थे कि इस अनुपात का यर्थाथ मान जानना असंभव है। परिधि और व्यास के अनुपात को आज हम यूनानी अक्षर π (पाई) से व्यक्त करते हैं और इसका कामचलाऊ मान22/7 लेते हैं। एक विशिष्ट प्रकार की संख्या है और आज इलेक्ट्रानिक कंप्यूटर की सहायता से लाखों करोड़ों दशमलव स्थानों तक इसका मान मालूम किया जा सकता है। वैसे, आज भी π के उसी मान (3.1416) का स्कूलों में इस्तेमाल होता है, जिसका निर्धारण आर्यभट ने किया था। आज स्कूलों में जो त्रिकोणमिति पढ़ाई जाती है वह भी आर्यभट की मूल विधि पर आधारित है। आर्यभट ने एक विशिष्ट प्रकार के समीकरणों को, जिन्हें प्राचीन भारत में ‘कुट्टक’ कहा जाता था, हल करने का तरीका खोज निकाला।
अन्य कई ज्योतिषियों के उल्लेखों से पता चलता है कि आर्यभट ने कम से कम एक ग्रंथ और लिखा था, जिसका नाम संभवतः आर्यभट-सिद्धांत था। आर्यभटीय में एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के काल को दिन माना गया है, मगर आर्यभट-सिद्धांत में एक मध्यरात्रि से दूसरी मध्यरात्रि तक के काल को दिन माना गया था।
आर्यभटीय पर पहली टीका आचार्य प्रभाकर ने लिखी थी, परंतु वह आज उपलब्ध नहीं है। प्रभाकर संभवतः आर्यभट के शिष्य थे। फिर भास्कर प्रथम ने सौराष्ट्र के वलभी नगर में 629 ई. में आर्यभटीय पर टीका लिखी। यह उपलब्ध है, किंतु कुछ अधूरी। इसी को आधार बनाकर शब्द में सोमेश्वर (लगभग 1040 ई.) ने टीका लिखी। इनके अलावा, आर्यभटीय पर सूर्यदेव (जन्म 191 ई.), परमेश्वर (1360-1455 ई.), नीलकंठ (जन्म 1443 ई.) आदि की टीकाएं मिलती हैं। मलयालम और तेलुगु में भी आर्यभटीय की टीकाएं मिलती हैं। पता चलता है कि 800 ई. के आसपास आर्यभटीय का ‘जीज अल् अर्जबहर’ के नाम से अरबी में अनुवाद हुआ था।
[उक्त धारावाहिक आलेख श्री गुणाकर मुले लिखित पुस्तक ‘आर्यभट’ (प्रचीन भारत के महान गणितज्ञ-ज्योतिषी), ज्ञान-विज्ञान प्रकाशन, नयी दिल्ली और लक्ष्मण प्रसाद व विनोद कुमार मिश्र लिखित पुस्तक ‘विश्व के महान आविष्कारक और उनके आविष्कार’, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली तथा श्री भगवतीचरण वर्मा लिखित उपन्यास ‘चित्रलेखा’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, के आधार पर तैयार किया गया है।]
{अन्य पठनीय ग्रंथ: निम्नांकित चार ग्रंथ भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान एकादमी (नयी दिल्ली) ने प्रकाशित किये हैं : 1. आर्यभटीय (मूल संस्कृत और हिंदी अनुवद): रामनिवास राय, 2. आर्यभटीय (मूल और अंग्रेजी अनुवाद): कृपाशंकर शुक्ल तथा के.वी. शर्मा, 3. आर्यभटीय (भास्कर-प्रथम और सोमेश्वर की टीका सहित) : कृपाशंकर शुक्ल, 4. आर्यभटीय (सूर्यदेव यज्वन् की टीका): संपादक – के.वी. शर्मा। इनके अतरिक्त आर्यभटीयम् (व्याख्या): बलदेव मिश्र, और आर्यभट (अंग्रेजी): के.एन. मेनन किताबें भी बाजार में उपलब्ध हैं।}

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