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अयोध्या तो एक झांकी है, मथुरा-काशी अभी बाकी है.

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सुप्रीम कोर्ट का फैसला : अयोध्या तो एक झांकी है, मथुरा-काशी अभी बाकी है

सिटी पोस्ट लाइव : अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से पहले लोगों में काफी उत्सुकता थी. लेकिन फैसला आने के बाद हर तरफ सन्नाटा पसर गया. हर कोई संभल संभल कर बयान दे रहा था. पक्ष-विपक्ष के नेता सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करने की नसीहत दे रहे थे.कहीं भी जश्न और उत्सव का माहौल नहीं था.ऐसा लग रहा था कहीं कुछ हुआ ही नहीं है. सवाल ये उठता है कि  क्या इस शान्ति का मतलब ये है कि सुप्रीम कोर्ट का  फैसला सबको मंजूर है.या फिर यह शान्ति किसी तूफ़ान के आने का संकेत है.

दरअसल, ये आशंका इसलिए हो रही है क्योंकि मस्जिद बनाम मंदिर आंदोलन से पिछले तीन दशकों में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के बीच कट्टरता और दूरियां बढ़ी हैं.फलस्वरूप देश के विभिन्न हिस्सों में कई बार भीषण दंगे हुए. हज़ारों जानें गयीं. लोग बेघर हुए और सम्पत्ति का बेहिसाब नुक़सान हुआ.शासन प्रशसन सबको ये चिंता सता रही थी कि अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद कहीं फिर दंगों और कर्फ़्यू की नौबत तो नहीं आएगी. देश भर में अलर्ट जारी था. चप्पे चप्पे पर सुरक्षाकर्मी तैनात थे.

बाबरी मस्जिद की इमारत में दिसंबर 1949 में भगवान राम चन्द्र की मूर्ति रखी गयी थी. उस समय देश में कहीं दंगा नहीं हुआ था क्योंकि लोगों को सरकार और न्यायिक संस्थाओं पर भरोसा था.विधानसभा में यह मुद्दा उठने पर सरकार ने उस समय सिर्फ़ यह जवाब दिया कि मामला न्यायालय में विचाराधीन और इस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती. विपक्ष इतने से ही संतुष्ट हो गया.लेकिन, फ़रवरी 1986 में विवादित बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्म भूमि इमारत का ताला खुलते ही देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ गया.जिस तरह ज़िला जज फ़ैज़ाबाद ने ताला खोलने का आदेश दिया और सरकार ने एक घंटे के भीतर उसका पालन करके दूरदर्शन पर दुनिया को दिखा दिया, उससे न्यायपालिका और सरकार दोनों की साख गिरी और भरोसा डिग गया.तत्कालीन राजनीति में दो मुद्दे एक साथ आए थे, जिनसे सांप्रदायिकता का उभार हुआ. एक तरफ़ विश्व हिंदू परिषद यानि संघ परिवार हिन्दुओं को एक राजनीतिक ताक़त के रूप में गोलबंद करने के उद्देश्य से राम मंदिर मुद्दे पर ज़ोर मार रहा था.दूसरे परित्यकता महिला शाह बानो को गुज़ारा भता देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से मुस्लिम धर्म गुरु बिफ़रे हुए थे. उन्हें यह अपनी सत्ता पर अतिक्रमण लग रहा था. वे सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला पलटने के लिए संसद से क़ानून की मांग कर रहे थे.

जो मुस्लिम समुदाय पिछले 36 सालों से बाबरी मस्जिद की बहाली की लड़ाई अदालत की चौखट के भीतर लड़ रहा था, मस्जिद का ताला खुलने से उसमें अचानक खलबली मच गयी.फ़ौरन बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति और बाबरी मस्जिद समन्वय समिति का गठन हो गया. एक के नेता हुए मौलाना मुज़फ़्फ़र हुसैन किछौछवी, ज़फ़रयाब जिलानी, मोहम्मद आज़म खान और दूसरे के सैयद शहाबुद्दीन.दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना बुख़ारी भड़काऊ बयान देने में उमा भारती, विनय कटियार, साक्षी महराज और साध्वी ऋतंभरा से एक क़दम आगे थे.कहावत है- ताली एक हाथ से नहीं बजती. अब आमने-सामने दो प्रतिद्वंद्वी ताक़तें खड़ी हो गयीं.

मुस्लिम समुदाय ने 14 फ़रवरी 1986 को बाबरी मस्जिद का ताला खोलने के विरोध में देश भर में काला दिवस मनाया और उस दिन मेरठ में जो दंगे शुरू हुए तो फिर आगे हालात बद से बदतर होते गए.मेरठ, मुरादनगर, हाशिमपुरा और मलियाना के भयंकर दंगों, पुलिस पीएसी की ज़्यादतियां, एकतरफ़ा कार्यवाही और निर्दोष लोगों की हत्या की ख़बरें सबको मालूम हैं. पीड़ित अब भी यदा कदा न्याय की गुहार लगाते हैं.दंगों की जांच करने वाले ज्ञान प्रकाश आयोग ने इन दंगों के पीछे अयोध्या में विवादित मस्जिद का ताला खोलने की घटना को रेखांकित किया है. भावनाएं भड़काने में इसका इस्तेमाल हुआ.20 नवंबर 1990 को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर बैठे तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी.फ़रवरी 1986 से जून 1987 के बीच केवल उत्तर प्रदेश में 60 छोटे-बड़े दंगे हुए जिनमें 200 से ज़्यादा लोग मारे गए और क़रीब 1000 घायल हुए. बड़े पैमाने पर सम्पत्ति का भी नुक़सान हुआ.

दिल्ली, औरंगाबाद (महाराष्ट्र), मुज़फ़्फ़रनगर, मुंबई, सूरत, बड़ोदा, हज़ारीबाग़, कोटा, बदायूं, इंदौर, भागलपुर आदि में दंगे भड़के. भागलपुर के दंगे तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी फैले.ग्रामीण क्षेत्रों में दंगे फैलने की सबसे बड़ी वजह थी विश्व हिंदू परिषद का कार्यक्रम जिसमें क़रीब तीन लाख गांवों से मंदिर के लिए ईंटें या शिलाएं पूजित करके जुलूस निकाले गए थे.तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या रथ यात्रा के ठीक पहले और बाद में देश भर में साम्प्रदायिक हिंसा हुई.इसकी चपेट में आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, दिल्ली, गुजरात, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश और बंगाल समेत 14 राज्य आ गए. सैकड़ों लोग मारे गए. सत्ता की राजनीति कितनी निर्मम होती उसकी तस्वीर देश दुनिया ने देखी.

पीपल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स दिल्ली द्वारा अख़बारों से संकलित सूचनाओं के अनुसार 1 सितम्बर 1990 से 20 नवम्बर 1990 के बीच देश के 14 प्रांतों में 116 साम्प्रदायिक दंगे हुए जिनमे 564 लोग मारे गए.’शहर में कर्फ़्यू’ पुस्तक के लेखक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी वी एन राय का कहना है, ”अयोध्या के मन्दिर-मस्जिद विवाद ने आज़ादी के बाद भारतीय समाज में साम्प्रदायिक जहर फैलाने मे बड़ा योगदान किया है. जन्मभूमि आंदोलन के चलते देश के उन हिस्सों में भी साम्प्रदायिक दंगे हुए जहां विभाजन के दौरान भी नहीं हुए थे.दिल्ली, मेरठ, आगरा, वाराणसी, कानपुर, अलीगढ़, खुर्जा, बिजनौर, सहारनपुर, हैदराबाद, भद्रक(उड़ीसा), सीतामढ़ी, सूरत, मुंबई, कलकत्ता, भोपाल आदि तमाम शहर साम्प्रदायिक हिंसा की चपेट में आए.

छह दिसंबर 1992 को विवादित बाबरी मस्जिद ध्वस्त होने के बाद देश भर में हुए दंगों में 2000 से ज़्यादा लोग मारे गये.इस दौरान सूरत, मुंबई, बैंगलुरू, कानपुर, असम, राजस्थान, कलकत्ता, भोपाल, दिल्ली में जान-माल का भारी नुक़सान हुआ. सबसे ज़्यादा बर्बादी मुम्बई में हुई.कहा जाता है कि दुबई में बैठे मुस्लिम माफ़िया दाऊद इब्राहिम ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस का बदला लेने के लिए मुंबई में बम धमाके करवाए, जिनमें 250 से अधिक लोग मारे गये और क़रीब हज़ार घायल हुए.

अयोध्या, कानपुर और बनारस के लोहता में दंगों से हुई तबाही का दंश आजतक लोग भूल नहीं आये हैं. मस्जिद टूटने की प्रतिक्रिया में भारत से बाहर बांग्लादेश, पाकिस्तान और ब्रिटेन में भी दंगे भड़के.वर्ष 1994 में कर्नाटक के हुबली एवं बेंगलुरु और 1997-98 में तमिलनाडु का कोयम्बतूर दंगों से दहल गए.सन् 2002 में विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या की अधिग्रहित भूमि पर प्रतीकात्मक मंदिर निर्माण के लिए फिर देश भर से कारसेवकों को इकट्ठा किया. 27 फ़रवरी को गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर अयोध्या से वापस लौट रहे कारसेवकों की दो बोगियों में आग लगी जिसमें अंदर बैठे लोग बुरी तरह जलकर मारे गये .आरोप है कि रेलवे स्टेशन पर कारसेवकों से कुछ झगड़े के बाद स्थानीय मुसलमानों ने इन बोगियों को जलाया.

गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिना किसी जांच पड़ताल इसे पाकिस्तानी आतंकवादियों की साज़िश क़रार दिया.आरोप है कि इसके बाद संघ परिवार ने अपने समर्थकों को गोधरा का बदला लेने के लिए उकसाया और कथित तौर पर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे प्रशासन को ख़ामोश तमाशा देखने का निर्देश दिया.कुछ पुलिस अफ़सरों की चेतावनी को भी सरकार ने नज़रंदाज़ किया. अनेक लगों का कहना है की भारत में यह पहला सुनियोजित दंगा था जिसकी साज़िश में सरकार शामिल थी.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार इन दंगों में कम से कम 850 लोग मारे गए. हालांकि, ग़ैर सरकारी तौर पर यह आंकड़ा 2000 तक जाता है.उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, लेकिन वह ज़बानी जमा ख़र्च के अलावा कुछ नहीं कर सके. उलटे इन दंगों के बाद वही नरेंद्र मोदी देश भर में हिंदुत्ववादियों की पसंद के पहले नेता बन गए और आडवाणी उनसे पीछे छूट गए.मोदी की इसी छवि ने बाद में 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें अहमदाबाद से उठाकर दिल्ली की गद्दी पर बिठाया. हिंदुत्ववादी गली-गली गांव-गांव कनफुसिया प्रचार करने लगे कि मोदी ने गुजरात में मुसलमानों को ठीक किया, अब वह देश भर में मुसलमानों को ठीक करेंगे.

लगभग दो दशक की लम्बी सुनवाई के बाद 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने विवादित बाबरी मस्जिद की ज़मीन को तीन प्रमुख दावेदारों के बीच बांटने का फ़ैसला सुनाया.उस समय केंद्र में कांग्रेस और उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी.केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रशासन को कड़े निर्देश दिये थे कि अदालती फ़ैसले के बाद हर हाल में अमन-चैन बनाये रखा जाये.पहले के दंगों और कर्फ़्यू से सबक़ सीखकर तब तक लोग भी काफ़ी समझदार हो गये थे. इसलिए इस फ़ैसले पर कोई बवाल नहीं हुआ और शांति व्यवस्था बनी रही.

सबको मालूम था कि यह अंतिम फ़ैसला नहीं है. सभी पक्षकार सुप्रीम कोर्ट चले गये और कोर्ट ने हाई कोर्ट का फ़ैसला स्थगित कर दिया.अब जब एक दशक बाद सुप्रीम कोर्ट को फ़ैसला देना है, राजनीतिक और सामाजिक हालात काफ़ी बदल गए हैं. दिल्ली उत्तर प्रदेश एवं अन्य राज्यों में सरकार होने से संघ प्रभावित हिंदुत्व वादी संगठनों का मनोबल काफ़ी बढ़ा हुआ है.उनके बयानों से लगता है जैसे सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आते ही मंदिर निर्माण शुरू हो जाएगा. वे इस तरह की तैयारी भी कर रहे हैं.संघ परिवार और मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने सार्वजनिक अपीलें जारी कर खुले दिल से फ़ैसले के सम्मान की बातें कही हैं.मौलाना कल्बे सादिक़ समेत कुछ मुस्लिम नेता अपने समुदाय से मस्जिद की ज़मीन हिन्दुओं को मंदिर निर्माण के लिए दान कर करोड़ों लोगों का दिल जीतने की बात भी कर रहे हैं. सबने अपने समर्थकों से विजय जुलूस वग़ैरह निकालने को भी मना किया है.

गोहत्या और तस्करी के नाम पर पिछले पांच छह सालों में हुई भीड़ हत्याओं और अन्य कारणों से मोदी शासन में मुस्लिम समुदाय काफ़ी डरा और सहमा हुआ है. डर का एक कारण देश भर में विदेशी नागरिकों की पहचान के लिए चल रहा अभियान भी है.गृह मंत्री अमित शाह के बयानों से मुस्लिम समुदाय को लग रहा है कि इस अभियान का निशाना वे हैं. मुस्लिम समुदाय कोई सार्वजनिक प्रतिरोध या बयानबाज़ी करने से बराबर बच रहा है.लेकिन, मंदिर आंदोलन के प्रमुख बीजेपी नेता विनय कटियार ने तो डंके की चोट पर कह दिया है कि अयोध्या के बाद काशी और मथुरा की मस्जिदों को हटाकर वहां भी मंदिर बनाएंगे.

काशी में विश्वनाथ मंदिर के आसपास के इलाक़े को अधिग्रहित कर जिस तरह पुरानी इमारतों को तोड़कर गंगा तक एक बड़ा खुला गलियारा बनाया जा रहा है कई लोगों को लगता है कि आगे चलकर यह पुराना शिव मंदिर तोड़कर बनी ज्ञानवापी मस्जिद में छह दिसम्बर दोहराने की तैयारी हो सकती है.कल्याण सरकार ने लगभग इसी तरह अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद के सामने 2.77 अथवा पौने तीन एकड़ ज़मीन अधिग्रहित कर अनेक पुराने मंदिर ढहा दिए थे और उसे अधिग्रहित कर समतल कर दिया था, जिससे लाखों कार सेवक वहां आसानी से पहुंच सकें.

गौरतलब है  कि मंदिर आंदोलन के दौरान बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद की यह सूची तीन हज़ार मस्जिदों/ इमारतों तक पहुंची थी, जिनमें लखनऊ की टीले वाली मस्जिद और ताज महल शामिल हैं.मुस्लिम समुदाय को भी यही डर है कि अयोध्या प्रारम्भ है अंत नहीं.सबको मालूम है कि संघ परिवार का लक्ष्य मंदिर निर्माण नहीं बल्कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है. शायद इसीलिए यह विवाद कई बार आपसी समझौते से सुलझते-सुलझते रह गया. संघ परिवार अक्सर यह कहता रहा कि यह विषय आस्था का है और अदालत की परिधि में नहीं आता.संघ के हिंदू राष्ट्र के एजेंडे के कारण सनातन हिंदू समुदाय का एक बड़ा वर्ग संघ की हिंदुत्व विचारधारा से दूर रहता है. अदालत में भी निर्मोही अखाड़ा अलग पक्षकार के रूप में खड़ा है. लेकिन, इनकी आवाज़ संगठित और मुखर नहीं है.

पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी अपने स्तर से भी कोशिश कर रहे हैं कि फ़ैसले के बाद कहीं कोई हिंसा न भड़कने पाए. अयोध्या में तो ज़िला प्रशासन ने धारा 144 के तहत पहली बार बहुत कड़े प्रतिबंध लगाए हैं जिनमें सोशल मीडिया और टीवी चैनल्स शामिल हैं.माना जाता है कि उत्तेजना फैलाने और साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने में यही दोनों सबसे आगे हैं. हालांकि, 1990 में हिन्दी अख़बारों ने भी बढ़-चढ़कर अतिरंजित ख़बरें छापकर आग में घी डालने का काम किया था.

प्रेस काउंसिल की भर्त्सना का भी असर इन अख़बारों पर नहीं पड़ा था.मामला न्यायालय के विचाराधीन होने के बावजूद इस समय भी कई अख़बार और टीवी चैनल एकतरफ़ा और भड़काऊ ख़बरें प्रकाशित और प्रसारित कर रहे हैं.स्थानीय प्रशासन की मदद के लिए केंद्र सरकार ने चार हज़ार अर्धसैनिक बल उत्तर प्रदेश सरकार के हवाले कर दिए हैं, जिन्हें संवेदनशील ज़िलों में तैनात किया जाएगा.

एक आशंका यह भी है कि कहीं कोई आतंकवादी या अतिवादी संगठन इस अवसर का फ़ायदा उठाने के लिए गुप्त रूप से हिंसा या दंगे भड़काने की योजना न बना रहे हो.कोई भी भारत विरोधी संगठन इस अवसर का लाभ उठाकर सामाजिक शांति और सद्भाव भंग करने की कोशिश कर सकता है.हाल ही में लखनऊ में एक कट्टर हिंदुत्ववादी नेता कमलेश तिवारी की हत्या को इसी संदर्भ में देखा जा रहा है. पुलिस ने इस हत्या के तार गुजरात से जोड़कर मुस्लिम समुदाय के एक दर्जन से अधिक लोगों को गिरफ़्तार कर इसे एक बड़ी साज़िश बताया है.

कहने की आवश्यकता नहीं है कि छह दिसम्बर, 1992 के बाद देश में साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़ा था, जिसका लाभ आतंकवादी संगठनों ने उठाया और बनारस, अयोध्या समेत कई स्थानों पर बम धमाके हुए.आतंकवादियों का एक जत्था तो अयोध्या के विवादित स्थल पर बने अस्थायी राम मंदिर तक पहुंच कर मारा गया था. अगर कहीं वो मंदिर को क्षति पहुंचाने में कामयाब हो जाते तो यह देश भर में उपद्रव का कारण बन जाता.अब मोदी और योगी के अलावा देशभर के तमाम पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के लिए बड़ी चुनौती है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद देश में क़ानून का शासन और अमन चैन क़ायम रहे.

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