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CITY POST LIVE SPECIAL : “लोक आस्था का महापर्व छठ की गंगा-राजनीति”

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छठ की गंगा-राजनीति

बंधुओ, एक निवेदन। ख़ास कर परिचित-अपरिचित युवा पाठक बंधुओ से। यह रपट-कथा “छठ की गंगा-राजनीति” वर्ष 2003 की है। यह लालू प्रसाद यादव जी के पाकिस्तान से लौटने के बाद छठ पर्व के दौरान घटित घटना पर आधारित है। 40-50 के उम्र के पाठक इसे 15 साल पहले सुन-पढ़ चुके होंगे और भूल भी चुके होंगे। युवा बंधुओं में से कितनों ने इसे पढ़ा होगा, यह मालूम नहीं। लेकिन हो सकता है कि कोई पूछे – “पॉलिटिक्स की इन पुरानी बातों को दोहराने का मतलब क्या है? आज जो हो रहा है इसका उनसे क्या कनेक्शन है?”
सो निवेदन है, इस कथा-रपट को पढ़कर प्रशंसा या आलोचना के शर-संधान करने के भाव पर नियंत्रण रखने के लिए आप गत 12 नवम्बर (2018) को बनारस में ‘वाराणसी-हल्दिया इनलैंड वाटर हाइवे-1’ के बनारस टर्मिनल का लोकार्पण करते वक्त प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा रचित ‘इतिहास’ की खबर को कुछ गहराई से पढ़ लें। हो सके, तो ‘साइंस’ के विद्यार्थी-शिक्षक पाठक तकनीकी विकास-विनाश से जुडी उस ‘ऐतिहासिक’ खबर में निहित ‘बाजार की राजनीति’ और ‘राजनीति के बाजार’ के बीच की सांठ-गांठ के बारे में मुकम्मल जानकारी हासिल करने का प्रयास करें, जो 1982 से शुरू हुई थी और 2003-04 में परवान चढ़ी थी। और, ‘इतिहास’ की सत्ता से प्रेरित या पीड़ित पाठकों से निवेदन है कि उनको जूलियन क्रैण्डल हॉलिक (Julian Crandall Hollick) की किताब ‘Ganga’ (RANDOM HOUSE INDIA, 2007) को देखने-पढ़ने का कष्ट अवश्य करना चाहिए। वैसे, ‘सिटी पोस्ट लाइव’ की ओर से 12 नवम्बर की ‘ऐतिहासिक’ खबर और जूलियन क्रैण्डल हॉलिक की ‘गंगा’ के कुछ अंश ‘छठ की गंगा-राजनीति’ के तहत ही प्रस्तुत किये जा रहे हैं। इस आशा के साथ कि ‘सिटी पोस्ट लाइव’ के पाठक इन अंशों को पढ़कर उनके अंदर और बाहर की मुकम्मल ‘खबर लेने’ को प्रेरित होंगे।

छठ की गंगा-राजनीति – 1    

वह गांव से आया था। ठेठ बिहारी। उसके गांव में नया तालाब बना था। पानी कमोबेश साफ था। अबकी बेर गांव वाले ‘छठ’ में उसी तालाब में डुबकी लगा सूर्य को अर्घ्य देना चाहते थे। सो वे अपने स्वच्छ तालाब को पवित्र भी करना चाहते थे। इसके लिए उसे पटना भेजा गया था। वह मीतन घाट से महेन्द्रू घाट की ओर नाव से बीच गंगा जाकर पानी लाया – गंगाजल को तालाब में डालकर उसे पवित्र करने के लिए।
गांव लौटने के पहले हम मित्रों से मिला। हम बचपन के मित्र जो ठहरे। मिलते ही उसने गंगा को पटना के नजदीक लाने की चर्चा छेड़ दी। वह खुश था कि अब राजधानी पटना में गंगा पहले की तरह उन घाटों को छूकर बहने लगेगी, जहां से वह पहले बहती थी। उसने मजाकिया शैली में कहना शुरू किया – “याद है, लालूजी पाकिस्तान-यात्रा के पहले गंगा को पटना के नजदीक लाने की मुहिम में लग गये थे। वह भी बरसात के मौसम में। केन्द्र की बड़की ‘योजना’ को लालूजी की राबड़ी सरकार ने ‘अभियान’ बना दिया था। तमाम प्रतिकूलताओं और आशंकाओं के बीच राज्य सरकार भिड़ी, तो केन्द्र सरकार के बिहारी मंत्री भी दौड़े आये थे। (लालू प्रसाद 14 अगस्त, 2003 को पाकिस्तान-यात्रा के लिए रवाना हुए थे।)

“उसी बखत गांव-जवार में शोर मचा था – यह सब गंगा में डुबकी लगाने की राजनीति है। भाजपा वालों को लगा कि लालूजी उनकी राजनीति का हथियार उनसे छीनने में लग गये हैं। ‘गंगा’ तो ‘हिंदुओं’ की है। तब गंगा को पटना के नजदीक लाने का अर्थ ‘हिन्दू वोट बैंक’ पर कब्जा जमाने की कोशिश नहीं तो और क्या है? लालू समर्थकों में भी शायद ही किसी ने इसे ‘राजनीति की गंगा में डुबकी लगाने का सुनहरा मौका’ से ज्यादा कुछ माना…।

“तब से देखिए! हर साल की तरह उस बार भी गंगा में उफान आया और राजधानी पटना में उसके घुसने का खतरा बढ़ा, तो हल्ला हुआ – यह लालूजी की मुहिम का ही नतीजा है। जब मुहिम में ‘विज्ञान’ की जगह राजनीति के ‘डोजर’ का इस्तेमाल होगा, तो यही न परिणाम होगा? और तो और, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों में गंगा के तेवर को लेकर ‘पाप-पुण्य’ पर बहस छिड़ गयी। लालू विरोधियों ने कहा – ‘मुहिम में लगे हाथ भ्रष्टाचार-अपराध की गंदगी से सने हैं, इसलिए गंगा गुस्सा गयी।’ लालू समर्थकों ने और स्वयं लालूजी ने कहा – ‘अच्छा है, इस बहाने गंगा पटना के अंदर पल रहे पापों को धो देगी।’ जितने मुंह, उतनी बातें। (14 जुलाई से 14 सितंबर, 2003 तक के पटना के अखबारों में प्रकाशित)
“खैर, उस बीच लालूजी पाकिस्तान की यात्रा कर आये। उस यात्रा में लगभग सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल थे, लेकिन पाकिस्तान की ‘प्रजा से लेकर प्रभुओं तक’ की पूरी प्रशंसा लूटी अकेले लालूजी ने। सो विरोधियों ने हल्ला मचा दिया – यह भारत के ‘मुस्लिम वोट बैंक’ पर कब्जा बनाये रखने की लालू-राजनीति है। पाकिस्तान-यात्रा सब दलों के लिए राजनीति का खेल था, लेकिन गोल दागा सिर्फ लालूजी ने! वह पाकिस्तान से लौटे तो गंगा को नजदीक लाने का अभियान तेज हो गया। लेकिन सब चुप! छठ था न? अगर गंगा को नजदीक लाना राजद सरकार की लालू-राजनीति है भी, तो क्या बुरा है? भाजपा-शिवसेना वाले मुंबई में समुद्र के किनारे छठ व्रतियों के लिए बड़े पैमाने पर पूजा-पाठ का बंदोबस्त करते हैं कि नहीं? दिल्ली में कांग्रेसी (राज्य) सरकार भी छठ के दिन बाकायदा सरकारी छुट्टी की घोषणा करती है। सब वोट बैंक पर कब्जे की राजनीति है। फिर भी बाकी सब ठीके है!”

हम उसके ठेठ बिहारीपन का मजा लेने लगे। लेकिन बीच में टोका- “आपके कहने का मतलब का है?”
उसने कहा – “मतलब? मतलब यह कि गंगा को लेकर राजनीति में उठा-पटक जारी है। इनकी गंगा, उनकी गंगा, हमारी गंगा! गंगा एक, लेकिन अर्थ अनेक। जितना ‘अर्थ’ होगा, उतना ही न ‘फल’ मिलेगा? कोई अर्थ का अनर्थ कर रहा है और कोई अनर्थ को अर्थ दे रहा है।”
हमने पूछा – “आपके लिए गंगा का क्या अर्थ है?”
वह हंसा – “हमारी गंगा का अर्थ? हम बिहारियों का अर्थ? बिहारी अर्थ तो गंगा का एक ही है – प्रजा के लिए भी और प्रभुओं के लिए भी। लेकिन ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी!’ ई तो सब जानते-मानते हैं कि गंगा पवित्र है, पापनाशिनी है। आज के ‘प्रभु’ कहते हैं – पवित्र गंगा में डुबकी लगाओ, सारे पाप कट जाएंगे। इसका परिणाम ये है कि प्रभु लोग गंगा का भरपूर इस्तेमाल करते हैं। पाप किया और गंगा में डुबकी लगायी। बस! सो पाप बढ़ता रहा, गंगा मैली होती रही। इधर ‘प्रजा’ कहती है – गंगा पवित्र है। चाहो तो गंगा के कुछ बूंद, इंसान को तो क्या, हर गली-सड़क, हर गांव-जवार, यहां तक कि हर पोखर-तालाब-नदी को पवित्र कर सकते हैं। सो मुहावरा बना दिया – ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा।‘ परिणाम? प्रजा गंगा को कठौती में अपने गांव-घर ले गयी। गंगा के चंद बूंद गांव के पोखर-तालाब में डाले, उसे पवित्र कर लिया – उसे भी गंगा बना लिया!”

हम चमत्कृत से बैठे रहे, तो उसीने सवाल ठोंक दिया – “आप जानते हैं, बिहार में जो गंगा बहती है, उसका एक अलग अर्थ है?”
हमने पूछा – “वो क्या है? उत्तराखंड-उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल-बांग्लादेश में बहनेवाली गंगा से अलग है क्या बिहार की गंगा?”
‘हां’ कहकर वह उठ गया। हमने रोकने की कोशिश की, तो उसने कहा- “ई कल बतावेंगे। हम गंगाजल गांव पहुंचाकर आवेंगे, तो बतावेंगे बिहार की गंगा का माने। तब तक के लिए राम-राम!”

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