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दुर्गा पूजा विशेष, सम्पादकीय : आजादी बनाम सरंक्षण बनाम आरक्षण

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दुर्गा पूजा विशेष, सम्पादकीय : आजादी बनाम सरंक्षण बनाम आरक्षण

आज भी समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो औरत की आजादी पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। कुछ औरतें जो उनको आजाद नजर आती हैं, उनको उदाहरण के रूप में पेश कर वे यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि औरत को आजादी दी गयी तो समाज का सत्यानाश हो जायेगा। समाज भ्रष्टाचार, व्यभिचार और अव्यवस्था के गर्त्त में समा जायेगा। इनमें वे लोग ज्यादा हैं, जो परम्परा से औरत की गुलामी का भरपूर फायदा उठाते आ रहे हैं। उनमें ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो औरतों को आजाद देखना चाहते हैं, घर की औरतों के बाहर निकलने देना चाहते हैं, लड़कियों को पढ़ाना चाहते हैं, इसके लिए वे लड़कियों को घर से बाहर निकलने और बाहर जाकर पढ़ने की सुविधा भी देना चाहते हैं, लेकिन वे उनकी सुरक्षा के प्रति चिंतित हैं। ऐसे लोग समाज और सरकार से सुरक्षा की गांरटी न मिलने की वजह से अंततः लड़कियों और औरतों को घर में बंद रखने को ही पूर्ण सुरक्षा की गारंटी मान लेते हैं।

समाज वर्गों में विभाजित है। वर्ग में औरतें भी आती हैं। उच्च वर्ग की औरतें आजाद नजर आती हैं। अपने वर्ग चरित्र के कारण ये महिलाएं अपनी आजादी को व्यक्तिगत संदर्भों में देखती हैं। उनको पूरे औरत समाज की आजादी, मुक्ति या शोषण से छुटकारा से ज्यादा अपनी आजादी के उपभोग और छूट की चिंता होती हैै। उनके लिए पुरुष की आजादी ही अपनी आजादी का पैमाना होती है। दूसरों के शोषण और पुरुष-सत्तात्मक समाज के भोगवाद पर आधारित संस्कृति से प्राप्त सुविधाओं के उपभोग में ही ये महिलाएं अपनी आजादी खोजती हैं। मध्यम वर्ग की महिलाएं पसोपेश की स्थितियों में जीती हैं। वे पराश्रित यानी पुरुषाश्रित रह कर पुरुष द्वारा दी गयी छूट में अपनी आजादी का ‘स्पेस’ तलाशती हैं। निम्न वर्ग की जो महिलाएं खुद रोजी-रोटी कमाती हैं, वे आर्थिक रूप से स्वावलम्बी होने के कारण दूसरे वर्ग की औरतों से ज्यादा आजाद नजर आती हैं और हैं भी। लेकिन समाज में उनकी उतनी प्रतिष्ठा नहीं, क्योंकि समाज में श्रम की प्रतिष्ठा नहीं। उन्हें भी परिवार में पुरुष मूल्य के प्रहार का निरंतर सामना करना पड़ता है।

इधर आधुनिकता के नाम पर देश में ‘फ्री औरत’ की हवा बंध रही है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में यह अवधारणा अब सिर्फ पश्चिमी देशों की संस्कृति का हिस्सा नहीं रही। संकट यह है कि समाज में कई लोग उससे उपजे विकृतियों का भय दिखा कर औरत की आजादी का विरोध करते हैं और एवज में यथास्थिति का समर्थन करते हैं। इसकी वजह से समाज में ‘मुक्त औरत’ पर न कोई बहस चलती है और न चर्चा।

जो सत्ता में हैं, सम्पत्तिवान हैं और शिक्षित हैं, उनके जीवन के शब्दकोश में ‘जस्ट सेक्स’ की यह समझ शामिल नहीं हुई है कि बराबरी और समान अधिकारों पर आधारित सेक्स में ही जस्ट सेक्स होने की संभावना है। इस समझ में विस्तार के बिना समाज में औरत को लुटने से नहीं बचाया जा सकता। शोषण मुत्तफ़ और समतामूलक समाज के निर्माण की बात तो दूर रही। क्या बिहार में तेजी से जो कुछ बदल रहा है, वह कहीं इसी वजह से तो समझ या पकड़ से बाहर नहीं है?

राजनीतिक सत्ता, आर्थिक सत्ता, सामाजिक-जातिगत सत्ता और सूचना की सत्ता की तरह ‘सेक्स’ भी एक सत्ता है। अन्य सत्ताओं में औरत भी भागीदार हो सकती है लेकिन सेक्स सत्ता पर पुरफ़ष का वर्चस्व रहेगा क्योंकि सेक्स का निर्धारण जन्मगत होता है और समाज ने अपने जीवन चिंतन में विशेषता को कमजोरी साबित कर ‘औरत सेक्स’ को कमजोर और पुरफ़ष सेक्स को ताकतवर बना दिया। ऐसा समाज बलात्कार को अन्य अपराधों की श्रेणी में रखकर भी औरत की यौनशुचिता को ऐसा ‘धन’ बना देता है जो एक बार लुटने के बाद वापस नहीं आता है।

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