वे देर कर चुके : हम देर न करें
इंतजार करो और देखो, सत्ता का यह पुराना रवैया है। समय गुजरने के साथ घाव और पीड़ा कम हो जाती है, लोग थक जाते हैं और समय बड़ी दवा है आदि-आदि राजनीतिक रणनीतियां मुजफ्फरपुर बालिका-गृह काण्ड के विरोध-प्रदर्शनों से कमजोर पड़ी हैं। लेकिन मुजफ्फरपुर के बाद बिहार के अन्य जिलों सहित झारखंड और उत्तरप्रदेश से जो खबरें आ रही हैं, उनसे यह सत्य तथ्य बनकर सामने आ गया है कि इन सबके तह में स्त्री की सुरक्षा के अनन्त प्रश्न हैं। इसलिए राज्य-सत्ता ने भले देर कर दी, पर ‘हम भारत के लोग’ – जो देश को मां मानते हैं — को देर नहीं करनी चाहिए।
राज्य-सत्ता को संचालित, नियंत्रित और नियमित करने वाले प्रभुओं को शायद अब भी समझ में नहीं आता कि ‘बयान देने’ (यानी संदेश – मैसेज – देने) और ‘सफाई देने’ में फर्क होता है।
मुजफ्फरपुर की बेटियों की चीख पटना में बैठे सत्ताधीशों के कान तक पहुंचने में इतना समय लग गया! वह भी तब जब अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए बिहार की हजारों बेटियों ने उस चीख को स्वर देकर ‘प्रार्थना’ बनाया, और वह पटना से लेकर दिल्ली तथा देश के अन्य राज्यों में पहुंच गईं!मुजफ्फरपुर की बेटियों की चीख बिहार के अंतिम जन तक पहले पहुंची और उनकी सुरक्षा के लिए जवाबदेह शीर्ष प्रभुओं का ‘बयान’ आया बाद में। बहुत देर कर दी हुजूर आते-आते! उन्हें किस बात का इंतजार था?
खैर! मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मुजफ्फरपुर-काण्ड पर ‘एक्शन’ लेना शुरू किया. अच्छा काम किया. देर आयद दुरुस्त आयद। लेकिन क्या इसे ‘स्त्री’ की सुरक्षा के लिए बिहार के आम जन से – बिहार की आधी आबादी से – संवाद शुरू करने की उनकी किसी इच्छा या राजनीतिक इच्छाशक्ति का संकेत माना जाए? उन्होंने बयान दिया कि मुजफ्फरपुर-काण्ड के लिए वह ‘शर्मिंदा’ हैं, लेकिन उसके बाद से जारी सरकारी ‘एक्शन’ (कार्रवाइयों) और उनके साथी-सहयोगियों के ‘बयानों’ से क्या ऐसा लगता है कि शासन-प्रशासन पर उनकी ‘शर्मिंदगी’ का कोई असर है? क्या नीतीश कुमार के नेतृत्व में जारी इन कार्रवाइयों और बयानों में ‘पश्चाताप’ को ‘प्रायश्चित्त’ में बदलने का किसी भी तरह का संकेत निहित है?
बिहार जगा है. लोकतंत्र में संवेदनशील और जागरूक होना जनता की ‘अनिवार्य’ पहचान है. और जब जनता के ही अस्तित्व पर प्रश्न उठ खड़े हों, तब भला जनता चुप कैसे रहे! आधा-अधूरा सही, ‘स्त्री सम्मान और सुरक्षा’ के लिए अब भी जारी ‘जन प्रतिरोध’ से यह बात एक बार फिर साबित हुई कि बिहार के लोकतंत्र में ‘जान’ है; और, यह भी कि छात्र-छात्राओं, युवक-युवतियों का संघर्ष ‘नेताओं’ से अछूता रहकर ज्यादा प्रभावी हो सकता है।यह वक्त राजनीतिक रोटियां सेंकने का नहीं – बेटियों की सुरक्षा और सम्मान के लिए ‘सत्ता’ और ‘समाज’ को संवेदनशील एवं जवाबदेह बनाने की नयी ‘राजनीति’ विकसित करने का है।
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