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अनुच्छेद 370 के बाद यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को लागू करने की तैयारी

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अनुच्छेद 370 के बाद यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को लागू करने की तैयारी

सिटी पोस्ट लाइव :नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के पहले संसदीय सत्र के दौरान जिस तरह तेज़ी से एनआईए, आरटीआई, यूएपीए, मोटर वाहन और श्रम क़ानून जैसे बिल पास कराए उसे चुनावी घोषणा पत्र के वादों को पूरा करने से जोड़ कर देखा जा रहा है. देश की संसद ने तीन तलाक़ ख़त्म करने का क़ानून बनाने के महज़ एक हफ़्ते बाद जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को भी ख़त्म कर दिया.अनुच्छेद 370 के ख़ात्मे के साथ-साथ केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य पुर्नगठन बिल का भी प्रस्ताव रखा, जिसे संसद के दोनों सदनों ने पास कर दिया. यानी जम्मू-कश्मीर अब दो केंद्र शासित प्रदेश में विभाजित हो गया है. एक जम्मू-कश्मीर और दूसरा लद्दाख. घोषणा पत्र में शामिल राम मंदिर जैसे बड़े मुद्दे पर भी जल्द ही समाधान निकलने की उम्मीद जताई जा रही है. यह मध्यस्थता के ज़रिए नहीं बल्कि अदालती सुनवाई के ज़रिए हल होगा और सुप्रीम कोर्ट में इसकी रोज़ाना सुनवाई शुरू हो चुकी है.

कई अहम् फैसले के बाद अब मोदी सरकार का अगला कदम क्या होगा? जानकारों का कहना है कि सरकार का अगला क़दम समान नागरिक संहिता यानी कॉमन सिविल कोड या फिर यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को लागू करने की कोशिश हो सकती है.हाल में एक भारतीय टेलिवीज़न चैनल तो दिए इंटरव्यू में बीजेपी के महासचिव राम माधव ने कहा था, “तीन तलाक बिल लाने के साथ हम उस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लाने के लिए प्रतिबद्ध है.”उनका कहना था कि सरकार समान नागरिक संहिता के वादे तीन-चार साल में पूरे करने की कोशिश करेगी.

बीजेपी की सोंच है कि संविधान के दिशानिर्देशक सिद्धांतों के तहत देश में समान नागरिक संहिता  होनी चाहिए जिससे सभी भारतियों की पहचान हिंदू, मुस्लिम या ईसाई की नहीं बल्कि भारतीय का बन सके.

देश में मुसलमानों, ईसाइयों और पारसी समुदाय का अपना पर्सनल लॉ है जबकि हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं.मुस्लिम पर्सनल लॉ में महिलाओं को पैतृक और पति की संपत्ति में वैसा अधिकार नहीं है जैसा हिंदू सिविल लॉ के तहत महिलाओं को मिला है.समान नागरिक संहिता के लागू हो जाने पर शादी, तलाक़ और ज़मीन-जायदाद के बंटवारे को लेकर एक समान क़ानून लागू होगा और यही सबसे बड़ा पेंच है.यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड का अर्थ एक निष्पक्ष क़ानून है, जिसका किसी धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है. यानी यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड लागू होने से हर मज़हब के लिए एक जैसा क़ानून आ जाएगा.

क्या है यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड? इसके लागू हो जाने से जीवन में क्या आएगा बदलाव? भारतीय संविधान के तहत क़ानून को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है. सिविल और क्रिमिनल.शादी, संपत्ति, उत्तराधिकार जैसे परिवार से संबंधित व्यक्ति से जुड़े मामलों के लिए क़ानून को सिविल क़ानून कहते हैं.संविधान में समान नागरिक संहिता को लागू करना अनुच्‍छेद 44 के तहत  केंद्र और राज्य दोनों की ज़िम्‍मेदारी बताया गया है. लेकिन इसे लेकर बड़ी बहस चलती रही है यही वजह है कि इस पर कोई बड़ा कदम आज तक नहीं उठाया गया है.

यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड में दो पहलू आते हैं. पहला सभी धर्मों के बीच एक जैसा क़ानून. दूसरा उन धर्मों के सभी समुदायों के बीच भी एक जैसा क़ानून.”जाहिर है  “यह जटिल प्रक्रिया है जिसके लिए संविधान के नीति निर्देशक तत्व में ज़िक्र किया गया है कि आने वाले वक़्त में हम समान नागरिक संहिता की दिशा में प्रयास करेंगे. लेकिन उस दिशा में आज तक कोई बहुत बड़ा कदम नहीं उठाया गया है.”

अब सबसे बड़ा सवाल अल्पसंख्यकों को सामान नागरिक संहिता से डर  क्यों है? समान नागरिक संहिता केंद्र और राज्य दोनों की ज़िम्मेदारी है. राज्य के नीति निर्देशक तत्व में यह बताया गया है कि केंद्र और राज्य दोनों के क्या कर्तव्य हैं. इसमें यह ज़िम्मेदारी दी गई है कि देश में भारतीयता का एक भाव बने उसके लिए समान नागरिक संहिता यानी यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड की दिशा में प्रयास करेंगे. लेकिन इसमें मुश्किल बहुस्तरीय सामाजिक संरचना है जिसे लेकर बहुत अंर्तविरोध हैं.

“यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को हिंदू और मुसलमानों से ही जोड़ा जाता है. जबकि मुसलमानों के शादी और उत्तराधिकार के अलग तरह के प्रावधान हैं. वहीं हिंदू के भीतर भी कई समुदाय हैं जिसमें कई तरह के अंर्तद्वंद्व हैं. मुसलमानों या ईसाइयों की आपत्ति की बात होती है लेकिन भारत में कई तरह के समुदाय, कई तरह के वर्ग, परंपराएं हैं. लिहाजा एक तरह के सिविल लॉ को लागू करने पर किसी भी समुदाय के रस्मो-रिवाज़ में अगर एक भी गड़बड़ी होगी तो उसको आपत्ति होगी.”

मुसलमान और ईसाई भले ही भारत में अल्पसंख्यक हैं लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके पास ठोस परंपराएं हैं. लिहाज़ा यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड के लागू होने पर उन्हें डर है कि उनकी विशिष्टता ख़तरे में पड़ सकती है.”मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के के मुताबिक शरीयत क़ानून “अल्लाह का दिया है न कि मनुष्य का” और इसे कोई ख़त्म नहीं कर सकता. शरीयत मुस्लिम समाज के लिए  क़ानून है जो क़ुरान और हदीस पर आधारित है. लिहाजा कोई संसद इसका संशोधन नहीं कर सकती. “मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई तब्दीली मुसलमान नहीं कर सकता है. उसको अख़्तियारी नहीं है. यह सिविल लॉ नहीं हो सकता है. न तो इसमें कोई मुसलमान दखल कर सकता है और न ही किसी दूसरे को दखल करने दे सकता है.

दरअसल, तीन तलाक़ पर क़ानून पास होने से मुस्लिम समाज पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़नेवाला है क्योंकि रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि इस तरह से तलाक़ देने वालों की संख्या बहुत कम है. लेकिन समान नागरिक संहिता के लागू हो जाने से जीवन में बहुत बदलाव आ जाएगा.

तीन तलाक़ पर जो एक ख़ास समुदाय का छोटा सा पहलू था, उस पर क़ानून बना. बच्चा गोद लेना, लड़का और लड़की का अधिकार, भाई और बहन का अधिकार, शादी के पहले और शादी के बाद अधिकार. इन पर अलग-अलग धर्म, अलग-अलग क्षेत्रों और अलग-अलग समुदायों में अलग-अलग रिवाज़ हैं और उन्हें एक क़ानून में ढालना चुनौतीपूर्ण है.”

हिन्दुओं में भी यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड नहीं है. दक्षिण भारत में हिन्दू समाज के एक तबके में मामा और भांजी के बीच शादी की प्रथा है. अगर कोई हरियाणा में ऐसा करे तो दोनों की हत्या हो जाएगी. सैकड़ों जातियां हैं जिनके शादी के तरीके और नियम अलग अलग हैं. जानकारों के अनुसार यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड के मसले पर देश में बहुत बड़े पैमाने पर क़ानूनों में बदलाव करना पड़ेगा जो मुश्किल और चुनौतीपूर्ण है. यह एक लंबी चलने वाली प्रक्रिया है जिसे एक झटके में किया जाना संभव नहीं लगता.लेकिन इसी तरह की चुनौती धारा 370 को हटाने को लेकर भी थी जिसे मोदी ने एक झटके में कर दिखाया.

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