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मोदी सरकार को क्यों डरा रहा है NSO का डेटा, जानिए डेटा का क्या है सच?

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मोदी सरकार को क्यों डरा रहा है NSO का डेटा, जानिए डेटा का क्या है सच?

सिटी पोस्ट लाइव :  भारत में दस सालों की ग़रीबी का ग़रीबी और विषमता का आकलन करनेवाली NSO का डेटा मोदी सरकार के द्वारा जारी नहीं किये जाने को लेकर सवाल उठाये जा रहे हैं. देश में ग़रीबी और विषमता का आकलन करने के लिए जरुरी  यह सर्वे 2011-12 में हुआ था. लेकिन केंद्र सरकार ने नेशनल स्टैस्टिकल ऑफिस यानी एनएसओ के 2017-18 के उपभोक्ता खर्च सर्वे डेटा को जारी नहीं करने का फ़ैसला किया है. सरकार ने कहा है कि डेटा की ‘गुणवत्ता’ में कमी के कारण इसे जारी नहीं किया जाएगा.

बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार ने उपभोक्ता खर्च सर्वे की अहम बातें शुक्रवार को प्रकाशित करने का दावा किया था. इसमें बताया गया है कि पिछले 40 सालों में लोगों के खर्च करने क्षमता कम हुई है. हालांकि सरकार का कहना है कि रिपोर्ट अभी ड्राफ़्ट है और इसका कोई डेटा सामने नहीं आया है.एनएसओ 1950 में बना था और ये पहली बार है जब डेटा जारी नहीं किया जा रहा है.

उपभोक्ता खर्च सर्वे सामान्य रूप से पाँच सालों के अंतराल पर होता है. लेकिन 2011-12 में सर्वे दो साल बाद ही किया गया था. इससे पहले 2009-10 में सर्वे आया था और तब सूखा पड़ा था.2009-10 और 2011-12 की सर्वे रिपोर्ट सार्वजनिक हैं. आधार वर्ष बदलने के तर्क को अर्थशास्त्री गलत बता रहे हैं. उनका कहना है कि आधार वर्ष बदलने से किसने रोका है लेकिन जो सर्वे हो चुका है उसका डेटा जारी करने में क्या दिक़्क़त है?

विपक्ष के साथ साथ अर्थशास्त्री भी ये सवाल उठा रहे हैं कि नया आधार वर्ष बनाने से सरकार को कौन रोक रहा है.लेकिन जो सर्वे हो चुका है उसका डेटा क्यों रोकना चाहती है सरकार ? विपक्ष का आरोप है कि सरकार को अपने पंसद का डेटा चाहिए. जो डेटा अनुकूल नहीं वो जारी नहीं करेगें और जो अनुकूल होता है उसका जमकर ढिंढोरा पिटती है मोदी सरकार.

यह लोकतांत्रिक भारत के इतिहास की पहली सरकार है जो अपने ही संस्थानों के डेटा को ख़ारिज कर रही है. बिज़नेस स्टैंडर्ड में छपी रिपोर्ट में दावा किया गया है एक भारतीय के हर महीने खर्च करने की औसत क्षमता में 3.7 फ़ीसदी की गिरावट आई है. वहीं ग्रामीण भारत में ये गिरावट 8.8 फ़ीसदी है.पूरे विवाद पर पूर्व प्रमुख सांख्यिकीविद् प्रणब सेन का कहना है कि 2017-18 ‘असामान्य वर्ष’ होने के बावजूद सरकार को डेटा जारी करना चाहिए. 2009-10 में सर्वे हुआ था और तब पिछले 40 सालों बाद भयानक सूखा पड़ा और वैश्विक आर्थिक संकट का दौर था तब भी डेटा जारी हुआ था.उस समय भी  2011-12 को नया आधार वर्ष बनाया गया था लेकिन 2009-10 की रिपोर्ट को रोका नहीं था.

दरअसल, एनएसओ का सर्वे नोटबंदी के बाद शुरू हुआ था. तब नोटबंदी के कारण नक़दी की भयावह समस्या थी. इसके साथ ही नोटबंदी से नक़दी व्यापार को भी ख़ासा नुक़सान पहुंचा था. जुलाई 2017 में वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी प्रभाव में आया. इसका असर भी कारोबार पर सीधा पड़ा. जाहिर है नोटबंदी और जीएसटी से अर्थव्यवस्था को नुक़सान पहुंचा है और इसका असर लोगों के जीवन पर भी पड़ा है.”सरकार को पता है कि एनएसओ के डेटा से नोटबंदी और जीएसटी पर सवाल खड़े होंगे इसलिए डेटा जारी नहीं करना चाहती है.’

पिछले महीने पर्यावरण और वन मंत्री प्रकाश जावडेकर ने रोज़गार पर नेशनल सैंपल सर्वे का डेटा ख़ारिज कर दिया था. जावडेकर ने कहा था कि एनएसएसओ के डेटा संग्रह की प्रक्रिया सही नहीं है और यह प्रक्रिया पुरानी पड़ गई थी. जावडेकर ने कहा था कि एनएसएसओ की प्रक्रिया 70 साल पुरानी थी और आज की पूरी तस्वीर पेश करने में सक्षम नहीं है. लेकिन विपक्ष पार्टियों को सरकार की यह दलील पाच नहीं रहा. डेटा ख़ारिज करने को लेकर विपख ने सरकार पर निशाना साधा है. कांग्रेस ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया है, ”सरकार एनएसओ का डेटा छुपा रही है. 40 सालों में पहली बार लोगों की खर्च क्षमता कम हुई है. विशेषज्ञों का कहना है कि ग़रीबी बढ़ रही है और खर्च क्षमता में कमी आने से कुपोषण भी बढ़ रहा है.”

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