City Post Live
NEWS 24x7

साप्ताहांत विशेष सम्पादकीय : ये ‘बच्चियां’ भी ‘बेटियां’ हैं?  

-sponsored-

-sponsored-

- Sponsored -

साप्ताहांत विशेष सम्पादकीय : ये ‘बच्चियां’ भी ‘बेटियां’ हैं? सिटी पोस्ट लाइव के संपादक श्रीकांत प्रत्यूष की कलम से 

मुजफ्फरपुर बालिकागृह यौन उत्पीड़न कांड में प्राथमिक दोषियों को जिला न्यायालय से जमानत नहीं मिली. अभी उनलोंगों का नाम उजागर होना बांकी है  जो बालिकागृह की बच्चियों को पटना सहित कई शहरों के गणमान्य ‘प्रभुओं’ को ‘सप्लाई’ करते थे. अपनी प्रभुता की हवस मिटाने के लिए बालिकागृह की बच्चियों की  बलि लेने वाले प्रभुओं के नाम उजागर कर करवाई करने की ताकत तो मुजफ्फरपुर एसआईटी शायद ही दिखा पाये.

हमें ज्ञात-अज्ञात स्रोतों से जांच-पड़ताल से संबंधित कुछ अपुष्ट लेकिन ‘संदिग्ध’ सूचनाएं प्राप्त हो रही हैं. उनसे यह सामान्य संदेह और पुष्ट हो रहा है कि इस मामले के पीछे हमारे प्रदेश-समाज के प्रभु-वर्ग के ‘बड़े कहलाने वाले’ लोग निश्चित तौर पर . उनके संरक्षण के बिना यह संभव नहीं कि यौन उत्पीड़न का सिलसिला इतने लंबे समय से जारी रहे और दबा-छिपा रहे.
सरकारी पैसे से संचालित बालिकागृह और संरक्षा-सुरक्षा के नाम पर वहां पनाह लेने वाली नाबालिग ‘बच्चियों’ के साथ बलात्कार के धंधे से जुडी घटना ‘खबर’ बनकर प्रकाशित हुई, जिसमें इस ‘तथ्य’ की पुष्टि की गयी कि तीन बच्चियां गर्भवती हैं और कई ‘बच्चियों’ का बलात् गर्भपात करवाया गया.

ये तमाम ‘बच्चियां’ कौन हैं? बिहार की ‘बेटियां’ हैं? अब तक जो ‘खबर’ प्रकाशित हुई, और बतौर क्रिया-प्रतिक्रिया, आकलन-विश्लेषण, बहस-विमर्श जो ‘मैसेज’ छपे, उनमें कहीं ‘बच्चियां’ की जगह ‘बेटियां’ शब्द है? ख़ास कर बिहार के उस प्रभुवर्ग के मैसेज में, जो बात-बात में ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ का मंत्र-जाप करता हुआ किसी लड़की या युवती की निजी प्रयास से अर्जित सफलता के लिए अपनी प्रभुता के कंधे थपथपाता है ; और मौक़ा मिलते ही उन्हें ‘बिहार की बेटियां’ कहकर उनकी सफलता का श्रेय अपनी सत्ता-राजनीति के नाम लिखाने को बेताब रहता है?

क्या उन ‘बच्चियों’ को ‘बेटियों’ के रूप में जानने-पहचानने की ‘संवेदना’ और ‘सहानुभूति’ के बिना बिहार के वर्तमान प्रभु-वर्ग से निष्पक्ष जांच की आशा की जा सकती है? उससे घटना के ‘सत्य’ तक पहुँचने और देखने-परखने के साहस और हिम्मत की उम्मीद की जा सकती है? और इससे भी दीगर सवाल यह है कि क्या इस तरह की ‘समवेदना’ और ‘समानुभूति’ के बिना बिहार के आम जन, जो अक्सर बात-बेबात पर ‘बिहारी’ होने के ‘आत्मगौरव’ की हुंकार भरता रहता है, से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह उक्त केस में ‘न्याय’ के लिए समवेत स्वर में आवाज बुलंद करेगा?

हमने बिहार की सत्ता-राजनीति में केलकुलेटेड चाल चलने में माहिर माने जाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से इस मामले हस्तक्षेप करने और सीबीआई जांच कराने की मांग की। क्योंकि इस घृणित एवं संगठित आपराधिक घटना के प्रकाश में आने के बाद इस मुद्दे को लेकर हमने कई वरिष्ठ पत्रकारों, अखबारों, चैनलों, महिला के मुद्दे पर सक्रिय संस्थानों, महिला संगठनों, राजनीटिक संगठनों(लाल, हरा, नीला, गेरुआ सब) से सम्पर्क किया (जो इस घटना से वाकिफ़ थे) और एक-दो अपवाद छोड़कर सबकी ओर से ‘निराशाजनक’ प्रतिक्रिया और हिदायतें मिली, जिनमें और कुछ भले हो ‘समानुभूति’ का हल्का सा भी स्पर्श नजर नहीं आया.हमने अपनी पत्रकारिता की भौतिक सीमाओं और नैतिक मर्यादाओं के तहत सबसे यह जानने-समझने की कोशिश की कि क्या बलात्कार देश-समाज को संचालित-नियमित-नियंत्रित करने वाली तमाम सत्ताओं – राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक सब सत्ताओं – में बढ़ते पुरुष वर्चस्व के निकृष्टतम और निरंकुश रूप का प्रमाण नहीं है? आखिर आज भी हमारे महान देश भारत में बलात्कार की घटनाएँ क्यों तेजी से बढ़ रही हैं? इतने बड़े पैमाने पर औरतें बलात्कारियों की शिकार क्यों हो रही हैं? आखिर बलत्कारी को बल कहाँ से मिलता है?
इन सवालों पर हमें मीडिया-कर्मी, महिला संगठनों, राजनीतिक संगठनों के मित्र-बन्धुओं से जो जवाबनुमा प्रतिक्रियाएं और कमेंट्स हासिल हुए, उनका सारांश कुछ इस प्रकार है :

समाज में सब ‘पुरुष’ बलात्कारी नहीं होते। अगर ऐसा होता तो ‘बलात्कार’ अपराध नहीं, बल्कि आम बीमारी कहलाता। बलात्कार की जो घटनाएँ प्रकाश में आती हैं, उनसे भी यही निष्कर्ष निकालने की कोशिश होती है कि बलात्कार की घटनाएँ कुछ ‘अपराधियों’ की करतूत हैं। लेकिन उन घटनाओं के बाद की कार्रवाइयाँ तो कुछ और ही कहती हैं। बलात्कृत औरत ‘कलंकित’ हो जाती है या यह सिद्ध कर दी जाती है कि वह पहले से ‘कुलटा’ थी। कई मामलों में समाज-सरकार का तटस्थ रवैया भी यह संकेत करता है कि बलात्कारी सामान्य अपराधी नहीं। ऐसा क्यों? अगर बलात्कार सामाजिक बीमारी नहीं, अपराध है तो यह सवाल उठेगा ही कि आखिर ‘बलात्कारी’ को अपराध करने का बल कहाँ से प्राप्त होता है?प्रतिदिन औसतन तीन औरतों के साथ बलात्कार। उनमें भी औसतन कम से कम एक औरत 16 साल से कम उम्र की होती है! और मुजफ्फरपुर बालिकागृह की घटना! ‘बेटियों-सी बच्चियों’ के साथ अप्राकृतिक यौनाचार क्या समाज की इस धारणा पर संदेह का काला सवालिया निशान नहीं लगाता कि समाज में सब ‘पुरुष’ बलात्कारी नहीं होते?

आज देश-समाज में हर क्षेत्र में औरत अपनी प्रतिभा और क्षमता प्रमाणित कर रही है। राजनीति हो या रोजगार, शिक्षा हो या सेवा, औरतें तेजी से आगे बढ़ना चाहती हैं। तेजी से आगे बढ़ रही हैं। इसके बावजूद वे छेड़खानी, बदसलूकी एवं बलात्कार की शिकार होती हैं। औरतों में असुरक्षा का डर व्याप्त है। जवान तो जवान, बच्ची और बूढ़ी औरतों तक में असुरक्षा का भय होना यह जाहिर करता है कि आज भी ‘औरत सेक्स’ को कमजोर और ‘पुरुष सेक्स’ को ताकतवर माना जाता है। आज भी पुरुष पुरुष होने के नाते मजबूत दिखता है और औरत औरत होने के नाते कमजोर। ऊपर से विडम्बना यह कि औरत पुरुष से लुटती है और सुरक्षा व सहारे के लिए उसे पुरुष पर ही निर्भर रहना है। सुरक्षा और सहारे के अन्य क्या लगभग सभी विकल्प औरत के मामले में पुरुष-सत्ता और पुरुष-वर्चस्व से संचालित-नियंत्रित होते हैं।
अव्वल तो बलात्कार की घटनाएँ मुश्किल से प्रकाश में आती हैं। अगर कोई हादसा प्रकाश में आता है तो आम तौर पर चार-पाँच तरह की प्रतिक्रियाएँ मुखर होती हैं:

(1) कुछ पुरुष यह कहकर तटस्थ हो जाते हैं कि यह तो निरंकुश कामेच्छाओं का क्रूरतम प्रदर्शन है।
(2) राज्य सरकारें हों या केंद्र सरकार, बलात्कार को ‘अपराध’ की एक आम ‘घटना’ की तरह चोरी-डकैती, अपहरण, हिंसा आदि के ‘क्राइम लिस्ट’ में शामिल करती हैं. वे बलात्कार को आम अपराधों की सूची में डालने के बावजूद बलत्कारों की संख्या में वृद्धि को विधि व्यवस्था की नाकामी का प्रमाण नहीं मानती. उल्टे वे बलात्कार के आँकड़ों के तुलनात्मक विवरण पेश करती हैं. वे सफाई देती है कि बिहार में उत्तर प्रदेश की तुलना में बलात्कार की घटनाएँ ज्यादा होती हैं. या मध्य प्रदेश में बिहार की तुलना में बलात्कार की घनाएं कम होती हैं. अपराध नियंत्राण से जुड़ी नाकामी छिपाने के लिए वे जो तर्क और तथ्य पेश करती हैं उससे यह साफ दिखने लगता है कि बलात्कार के आँकड़े सरकारों की आँखों के लिए ‘चश्मा’ नहीं बल्कि आँखों पर की ‘पट्टी’ हैं.

(3) सत्तारूढ़ दल हो या विपक्षी दल, वे एक जैसे स्वर में बलात्कार की निंदा करते हुए बयान देते हैं – ‘इसमें पालिटिक्स को मिक्स नहीं कीजिए।’ फिर बलात्कृत औरत की जाति, वर्ग और आर्थिक-सामाजिक हैसियत के मुताबिक दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूमिका तय करते हैं। सत्ता पक्ष सफाई देता कि प्रदेश में बलात्कार की घटनाओं का ग्राफ राष्ट्रीय औसत या फिर किन-किन राज्यों से कितना नीचे है। विपक्ष अपनी राजनीतिक जरूरत के मुताबिक अनशन-प्रदर्शन करता है.

(4) अधिसंख्य कांडों पर प्रकाश में आने के बाद भी पर्दा पड़ा रहता है। जो कांड कोशिश के बावजूद दब-छिप नहीं पाते, उन पर हल्ला-हंगामा तो होता है, लेकिन अक्सर होता यह है कि हर बलात्कार एक घटना – एक्सीडेंट – में तब्दील हो जाता है। यह हल्ला-हंगामे का खास नतीजा होता है. शायद हल्ला-हंगामे का यही राजनीतिक मकसद भी होता है। तत्कालीन उत्तेजना, अल्पकालीन हंगामा और दीर्घकालीन कार्रवाई के बीच यह बुनियादी तथ्य पिस-दब जाता है कि बलात्कार सुनियोजित था – बलात्कार सुनियोजित ही होता है.उक्त तमाम प्रतिक्रियाओं का इसे ठोस निष्कर्ष नहीं माना जा सकता कि बलात्कार ‘सत्ता’ की ही निरंकुश अभिव्यक्ति है? राजनीतिक सत्ता, आर्थिक सत्ता, सामाजिक-जातिगत सत्ता और सूचना की सत्ता की तरह ‘सेक्स’ भी एक सत्ता है. अन्य सत्ताओं में औरत भी भागीदार हो सकती है लेकिन सेक्स-सत्ता पर पुरुष का वर्चस्व रहेगा क्योंकि सेक्स का निर्धारण जन्मगत होता है और समाज ने अपने जीवन-चिंतन में विशेषता को कमजोरी साबित कर ‘औरत सेक्स’ को कमजोर और पुरुष सेक्स को ताकतवर बना रखा है. ऐसा समाज बलात्कार को अन्य अपराधों की श्रेणी में रख कर भी औरत की ‘यौनशुचिता’ को ऐसा ‘धन’ बना देता है जो एक बार लूटने के बाद वापस नहीं आता. और तो और, समाज पहले से फैसला कर देता है कि बलात्कार में लुटने वाली औरत अपनी यौनशुचिता का ‘धन’ पुनः अर्जित करने लायक भी नहीं। बलात्कार की बढ़ती घटनाएँ बताती हैं पुरुष का ‘सेक्स धन’ ‘कालाधन’ जैसा विकराल और निरंकुश बन रहा है.

- Sponsored -

-sponsored-

Subscribe to our newsletter
Sign up here to get the latest news, updates and special offers delivered directly to your inbox.
You can unsubscribe at any time

- Sponsored -

Comments are closed.