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प्रवासी मजदूरों की समस्या और उनके घर वापसी के नाटक का सच.

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प्रवासी मजदूरों की समस्या और उनके घर वापसी के नाटक का सच.

सिटी पोस्ट लाइव : जो मजदूर रोजी रोतिकी तलाश में दुसरे राज्यों में काम करने गए थे वो लॉक डाउन की वजह से जहाँ तहां फंसे हुए हैं.जहाँ वो अपना परिवार पालने के लिए काम करने गए थे,आखिर क्यों वहां से लौटने को बेताब हैं. उत्तर आसान है- जिन राज्यों में वो काम कर रहे थे, जिस राज्य के विकास में वो अहम् योगदान निबटा रहे थे,उन्हीं सरकारों को उनकी फ़िक्र नहीं है.जहाँ अगर वो हैं, वहां उन्हें रहने खाने-पीने की सुविधा मिलती तो शायद वापस लौटने की नहीं सोंचते.बिहार सरकार ने इस लॉक डाउन का सख्ती से पालन करने का हवाला देकर प्रवासी मजदूरों को वापस लाने से हाथ खड़ा कर दिया वहीं उत्तर-प्रदेश की सरकार ने लॉक डाउन के बीच अपने प्रवासी मजदूरों –छात्रों को लाने की प्रतीकात्मक कारवाई कर नीतीश कुमार को संकट में डाल दिया.सवाल उठने लगे-जब योगी सरकार ऐसा कर सकती है तो फिर नीतीश सरकार क्यों नहीं.

विपक्ष के साथ सहयोगी दलों के नेताओं ने भी हमला शुरू कर दिया तो  नीतीश कुमार भी दबाव में आ गए.उन्होंने PM मोदी से शिकायत की और लॉक डाउन के प्रावधान में परिवर्तन कर बिहार के प्रवासी मजदूरों के घर वापसी का रास्ता साफ़ करने का अनुरोध किया.ये अनुरोध भी दबाव की वजह से था,प्रतीकात्मक था क्योंकि 30 लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूरों को वापस लाना बिहार सरकार के बूते की बात ही नहीं थी. देश के कोने कोने में फंसे लाखों प्रवासी मजदूरों को लॉक डाउन के बीच लाने की कवायद अब शुरू हो चुकी है.लेकिन ये भी प्रतीकात्मक कारवाई ही है क्योंकि दो रोज दो तीन विशेष ट्रेनें चलाने भर से सारे प्रवासी मजदूर एक साल में भी नहीं आ पायेगें.

अब जब ट्रेनों से मजदूर लौटने लगे हैं एक नया विवाद पैदा हो गया है.विपक्ष ये सवाल उठाने लगा कि मजबूरी में फंसे इन प्रवासी श्रमिकों (Migrant Lobour) से रेल किराया क्यों लिया जा रहा है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की इस घोषणा के बाद कि इन श्रमिकों का किराया कांग्रेस की तरफ से वहन किया जाएगा, देश में पक्ष-विपक्ष के बीच राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप की बौछार शुरू हो गई है.

सिर्फ बिहार सरकार के पास लॉकडाउन में फंसे 28 लाख के अधिक मजदूरों ने मदद के लिए मोबाइल एप पर आवेदन किया है. जाहिर सी बात है कि संकट में फंसे मजदूरों की संख्या इससे काफी अधिक है. इनमें से कई ऐसे होंगे जिनकी स्मार्टफोन तक पहुंच नहीं होगी, आवेदन करने लायक समुचित कागजात नहीं होंगे और भी कई दिक्कतें होंगी. जिस वजह से वे आवेदन नहीं कर पाए होंगे. इसके बावजूद अगर हम 28 लाख की संख्या को ही आधार मान लें तो भी मौजूदा व्यवस्था के तहत यह हमें मान कर चलना चाहिए कि सरकार इनमें से 5 फीसदी मजदूरों को भी उनके घर तक नहीं पहुंचा पाएगी.रोज तीन से चार स्पेशल ट्रेनें ही बिहार आ रही हैं और इन ट्रेनों पर सवार होकर रोज बमुश्किल 5000 मजदूर आ पाते हैं. अगर इस तीसरे लॉकडाउन अवधि की बात करें तो भी इनमें बमुश्किल 70 हजार मजदूर ही आ पाएंगे. अगर सभी 28 लाख मजदूरों को वापस इसी गति से लाया जाए तो हमारी सरकारों को इसमें 560 दिन लगेंगे. तब तक शायद इसकी कोई जरूरत भी नहीं हो.

जाहिर है सरकार देश के विभिन्न इलाकों में फंसे सभी प्रवासी मजदूरों को उनके घर तक पहुंचाने के बारे में बहुत गंभीरता से नहीं सोच रही. बहुत मुमकिन है कि पिछले दो लॉकडाउन के शुरुआत में मजदूरों के फूटे गुस्से को देखते हुए यह प्रयास उनके गुस्से को शांत करने के लिए किया गया हो. केंद्र सरकार के गृह विभाग ने पत्र जारी कर यह साफ किया है कि ये स्पेशल ट्रेनें सिर्फ उन लोगों के लिए चलाई जा रही हैं जो किसी विशेष काम के सिलसिले में अपने गृह राज्य से हाल ही में बाहर गए थे और लॉकडाउन की वजह से वापस नहीं आ पाए. ये रेलगाड़ियां उन लोगों के लिए नहीं हैं जो रोजगार के सिलसिले में अपने घरों से बाहर रहते हैं.

जाहिर  है कि सरकार सभी प्रवासी मजदूरों को उनके घर वापस पहुंचाने का न कोई दृढ़प्रतिज्ञ इरादा रखती है, न ही मौजूदा स्पेशल ट्रेनों के जरिये इन्हें वापस लाया जा सकता है. ऐसे में क्या सरकारों को आगामी दिनों के लिए इन प्रवासी मजदूरों के बारे में कोई सुस्पष्ट योजना नहीं बनाना चाहिए. ये लोग पहले से ही गरीब हैं और लॉकडाउन की वजह से इनके रोजगार भी छिन गए हैं. ये जिन किराये के मकानों में रहते हैं, उनके मकान मालिक इन्हें लगातार परेशान करते हैं और ताने देते हैं.हजारों किलो मीटर पैदल चलकर बिहार पहुंचे ज्यादातर मजदूर वापस लौटने की वजह यहीं बता रहे हैं..

इन मजदूरों के बीच काम करने वाली संस्था स्टैंडर्ड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क, स्वान ने 26 अप्रैल, 2020 को जब लॉकडाउन के 32 दिन पूरे हो गए तो  16,863 ऐसे मजदूरों से बातचीत की. इस बातचीत के नतीजे के आधार पर तैयार रिपोर्ट के अनुसार 32 दिन बीत जाने पर भी ऐसे 68 फीसदी मजदूरों को न सरकारी राशन मिला है, न वे किसी रिलीफ कैंप की सुविधा का लाभ उठा पाए हैं. बिहार समेत कई राज्य सरकारों ने दावा किया है कि वे एक हजार से लेकर पांच हजार रुपए तक की मदद इन मजदूरों के खाते में डाल रहे हैं, मगर इनमें से 97 फीसदी मजदूरों ने दावा किया है कि उन्हें कोई नकद सहायता नहीं मिली है. इनमें से सिर्फ 6 फीसदी मजदूरों का कहना है कि उन्हें उनके नियोक्ताओं की तरफ से पूरी मजदूरी मिली है, 78 फीसदी मजदूरों को कोई मजदूरी नहीं मिली है. इनमें से 41 फीसदी मजदूरों ने कहा है कि लॉकडाउन के बाद भी उन्हें यहीं रहना है, क्योंकि इस दौरान उन पर काफी कर्ज हो गया है और मकान मालिक का किराया भी चुकाना है. इसके लिए वे यहीं रहकर मजदूरी करेंगे.

ईन आंकड़ों के सटीक होने का दावा तो नहीं किया जा सकता लेकिन अंदाजा लगाने के लिए काफी है कि इन प्रवासी मजदूरों की समस्याओं को लेकर सरकारें बहुत गंभीर नहीं हैं. उनकी स्थिति काफी नाजुक है. अगर उन्हें इस लॉकडाउन में और आगे भी अपने घरों से दूर रहना है तो उनकी समस्याओं के बारे में गंभीरता से सोचना होगा. महज कुछ ट्रेन चलाने से उनकी समस्या नहीं सुलझने वाली.

पिछले दिनों कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने नोबेल विजेता मशहूर अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत में इन मजदूरों का सवाल उठाया था. उस बातचीत में अभिजीत बनर्जी ने कुछ बेहतरीन सुझाव दिए थे. जैसे इन मजदूरों के लिए अस्थायी राशनकार्ड बनाना. आधार कार्ड को देखकर उन्हें मुफ्त राशन उपलब्ध कराना. उन्होंने यह भी कहा था कि अगर देश के सभी गरीबों के जन-धन खाते में इस वक्त सरकार कुछ रकम मसलन 10 हजार रुपए डाल देती है तो इससे उनके संकट का समाधान भी हो जाएगा और अगर इस पैसे से डूबने के कगार पर पहुंची हमारी अर्थव्यवस्था को भी ताकत मिलेगी.

केंद्र सरकार और संबंधित राज्य सरकारों को इस विषय में बैठकर कोई ठोस रणनीति बनानी होगी. बड़े कॉरपोरेट घरानों की भी मदद लेनी होगी. अगर इस संकट की घड़ी में सरकारें इन मजदूरों को संकट से नहीं उबार पाईं तो आने वाले दिनों में देश के महानगरों को इन सस्ते मजदूरों का घोर संकट झेलना पड़ेगा. इस दौर में जो लोग हताश होकर अपने गांव लौटेंगे, वे वापस फिर शहरों की तरफ नहीं जाएंगे.कर्नाटक सरकार ने तो इसी संकट को देखते हुए बिहार के मजदूरों को वापस भेंजने से इनकार कर दिया है.राज्य सरकार ने आश्वासन दिया है कि वो प्रवासी मजदूरों का ध्यान रखेगी.लेकिन ये भी सच है कि अगर राज्य सरकारों ने प्रवासी मजदूरों का ध्यान रखा होता तो अपने राज्य आने को इतने बेचैन नहीं होते.

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