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सिटी पोस्ट लाइव विमर्श – 1 :गुलामी बरतने की आजादी!

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सिटी पोस्ट लाइव विमर्श –गुलामी बरतने की आजादी!

बंधुओ, राजनीतिक सत्ता, कॉरपोरेटी सत्ता और भीड़ की सत्ता के हवाले से आज पूरे देश में जो विषय बौद्धिक विमर्श के केंद्र में आ गया है वह है – ‘मीडिया पर सत्ता का दबाव’। इस सिलसिले में मीडिया पर सत्ता के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव में विस्तार की चर्चा तेज है।
देश में यह आम और परंपरागत धारणा कायम है कि ‘जनतंत्र’ में मीडिया और सत्ता के हितों में टकराव स्वाभाविक है, क्योंकि मीडिया की भूमिका के मूल में एक चौकीदारी – जनता के हितों की चौकीदारी का भाव है, कर्तव्य है। और संविधान-प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा भी मीडिया के चौकीदारी से जुड़े कर्तव्य और दायित्व का हिस्सा है।
आज ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के प्रति वर्तमान मीडिया की समझ और भूमिका पर भी सवालिया निशान है। हालांकि आज मीडिया-उद्योग में कार्यरत मीडिया-कर्मियों से उनके कार्यानुभव के बारे में पूछने पर अक्सर यही सुनने को मिलता है – “यहां सिर्फ गुलामी बरतने की आजादी है।”
क्या इसका अर्थ यह है कि हमारे लोकतंत्र में मीडिया की आजादी अब महज ‘गुलामी बरतने की आजादी’ का पर्याय हो गई है?
जहां एक ओर अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार जनतंत्र में नागरिक की भागीदारी और कर्तव्य-पूर्ति को सुनिश्चित करता है, वहीं इसका दुरुपयोग उन तत्वों को ताकतवर बना रहा है, जो इस अधिकार के नाम पर सामाजिक समरसता को बिगाड़ते हैं, बिगाड़ रहे हैं।
हमारे संविधान में जो प्रतिज्ञा सूत्रबद्ध है, उसके मुताबिक मीडिया की स्वतंत्रता लोकतंत्रीय प्रणाली की बुनियादी जरूरतों में से एक है। मीडिया की स्वतंत्रता वह पैमाना है जो देश के स्व-अधीन ‘लोक-तंत्र’ को अन्य किसी व्यवस्था (तानाशाही, सर्वसत्तावादी राज्य आदि) से अलग करता है। इस पैमाने के अनुसार जनता, शासक पार्टी या सरकार से भिन्न राय व्यक्त कर सकती है।
देश के प्रबुद्ध पत्रकार और न्याय के लिए अंतिम दम तक प्रतिबद्ध न्यायमूर्तियों के अनुसार, यह सही है कि इस स्वाधीन व्यवस्था के तहत सरकार में रहनेवाले लोगों को भी यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपनी संस्थाओं पर होनेवाले हमलों, उनको समाप्त करने की कोशिशों को रोकें। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे ‘भिन्न राय’ पर पाबंदी लगाएं या भिन्न राय-विचार रखनेवालों को सजा दें।
लंबे संघर्ष से ब्रिटिश गुलामी से मुक्त होने के बाद यह समझ हमारे देश में निरंतर व्यापक और मजबूत हुई है कि प्रेस या अभिव्यक्ति की आजादी ऐसा मूल्य है जिसे हमेशा बनाए रखना चाहिए। इस आजादी के बिना हमारे जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
तमाम स्वतंत्रताओं की तरह ‘प्रेस की आजादी’ या ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का मतलब भी ‘आजादी को खत्म करने की आजादी’ नहीं है। आजादी के साथ दायित्व या जिम्मेदारी जुड़ी हुई है। हालांकि आजाद भारत में अक्सर ऐसे दौर आते रहे हैं, जब ‘लोकतंत्र’ के साथ-साथ अभिव्यक्ति की आजादी को चुनौती मिली है। यह चुनौती आज भी कायम है, जो इस ओर इशारा करती है कि देश के वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक सत्ता के निरंकुश होने और एकाधिकारवादी होने के लिए ‘स्पेस’ बना हुआ है – 1975-76 के 19 महीने के आपात्काल की तरह। यह स्पेस सिर्फ कोई दाग या धब्बा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में ‘बड़े छेद’ या गड्ढे जैसा है, जिसमें कभी-कभी पूरे देश के लोक को ‘धकेल देने’ का खतरा है।
इस स्पेस का समाज, सरकार, बाजार का प्रभुवर्ग सत्ता-राजनीति के पिछले या चोर दरवाजे (बैक डोर) की तरह इस्तेमाल करता है। इस दरवाजे पर जब-तब ताले जड़कर ‘आजादी’ को अक्षुण्ण रखने का प्रमाण दिया जाता है, उस चोर दरवाजे जैसे स्पेस को सदा-सर्वदा के खत्म करने का साहसिक इन्तजाम नहीं किया जाता। देश की सत्ता-राजनीति में इस साहस की अनुपस्थिति के कारण देश का बौद्धिक मानस यह मानने को मजबूर है कि चोर दरवाजे जैसे इस स्पेस को खत्म किया भी नहीं जा सकता।
इसलिए भारतीय लोकमानस गांधी-जेपी जैसे लोकनायकों की इस मान्यता को समर्थन देता है कि सत्ता-राजनीति के गलियारे में उसे ‘चोर दरवाजे’ की तरह पीछे नहीं, बल्कि ‘आपदा के समय बाहर निकलने के लिए बनाए जानेवाले ‘इमरजेंसी या एक्जिट डोर’ की तरह आगे रखा जाए और उस पर ताला लगाए रखने की जिम्मेदारी-जवाबदेही लोकतांत्रिक सत्ता-संचालक व नियंत्रकों की हो, लेकिन उस पर लोक की निगरानी रहे। इस निगरानी में मीडिया प्रहरी की भूमिका निभाए।
यह अनुभव तो आम है कि तमाम प्रतिज्ञाओं और संविधान प्रदत्त सुरक्षा के बावजूद परिस्थितियां जब-तब असमान्य हो जाती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी की बात करना सत्ता-राजनीति के प्रभुवर्ग को नहीं सुहाता! कभी प्रत्यक्ष और कभी अप्रत्यक्ष दबाव डाले जाते हैं। सत्ता-सम्पन्न लोगों की मान्यता व इच्छा से अलग विचार व्यक्त करना खतरनाक हो जाता है। यह आज भी लोकतंत्र में निरंकुशता और सर्वसत्ताधिकार के ‘स्पेस’ के बढ़ने और लोकतंत्र के कमजोर होने का संकेत है।
इसके रू-ब-रू स्थितियों का संकेत यह भी है कि दुनिया भर में आजादी और लोकतंत्र के लिए आकर्षण बढ़ा है। लेकिन भिन्न-भिन्न परिणाम, आजादी के प्रति हर देश-समाज में अलग-अलग तरह की ‘दृष्टि’ और परस्पर विरोधी या प्रतिकूल ‘समझ’ से ग्रस्त होने का संकेत देते हैं।
जैसे, एक दृष्टि यह है कि आजादी सार्वकालिक व सार्वदेशिक मूल्य है। दूसरी दृष्टि यह है कि आजादी एक सापेक्ष मूल्य है। पहली दृष्टि से यह समझ बनती है कि न हम गुलाम रहेंगे और न किसी को गुलाम बनाएंगे। यानी हमारी निजी आजादी तभी सार्थक है, जो हमें गुलामी से मुक्त रखे और दूसरों को भी मुक्ति की प्रेरणा दे। इसलिए आजादी बरतने का अर्थ है अपने साथ दूसरों को भी गुलामी से मुक्त रखना। लेकिन दूसरी दृष्टि से यह समझ बनती है कि हमें अपनी आजादी के लिए दूसरों की गुलामी कबूल है। यानी दूसरों को गुलाम बनाये बगैर हमारी आजादी का कोई अर्थ नहीं। इसलिए आजादी बरतने का अर्थ है दूसरों को गुलाम बनाना या बनाये रखने की व्यवस्था का पोषण करना।
‘सिटी पोस्ट लाइव’ के व्यूवर-बंधुओ, आप आजादी की किस समझ के साथ हैं? आजादी की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आप हमें अपने स्टैंड से अवगत करायेंगे?
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