लातेहार के शीशल प्लांट में भारी-भरकम जहाजों को थामने वाली डोर बनाई जाती है
सिटी पोस्ट लाइव : नक्सलियों के गढ़ के रूप में इस जिले को न सिर्फ राज्य बल्कि पूरे देश में जाना जाता है। लेकिन, जहाजों से वास्ता रखने वाले लोगों में इसकी पहचान अलग ही है। यहां के शीशल प्लांट में पानी पर चलने वाले भारी-भरकम जहाजों की थामने वाली डोर बनाई जाती है। वैसे तो देश के कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसी डोर तैयार की जाती है लेकिन लातेहार की बनी डोर की अतिरिक्त मजबूती इसे खास बनाती है। इसकी खूब डिमांड है। प्लांट में शीशल की पत्ती की पेराई के बाद रेशे निकाले जाते हैं। वन विभाग प्रतिवर्ष 2000 हेक्टेयर में शीशल के लाखों पौधे लगवाता है। यह पौधा एक वर्ष में तैयार हो जाता है जिससे सात से दस वर्ष तक पत्ते निकलते हैं। ये पौधे लातेहार के कोमो, माको, हेसला, जलता व कीनामाड़ में बरसात के दिनों में लगवाए जाते हैं। यहां की जलवायु व मिट़टी इसके लिए एकदम उपयुक्त है। जिस इलाके में यह पौधा लगाया जाता है, वहां ध्यान दिया जाता है कि मिट्टी का क्षरण नहीं के बराबर हो। पौधे की कटाई दिसंबर से जनवरी माह में प्रारंभ होती है, जिसकी पेराई शीशल प्लांट में की जाती है, जिसके रेशे को वन विभाग के माध्यम से टेंडर करा बेचा जाता है। इसका टेंडर डिवीजन कार्यालय रांची के वन संरक्षक एवं राज्य वन निरीक्षक विज्ञानी के कार्यालय में होता है।
इस प्लांट की स्थापना 1971 में की गई थी, इस प्लांट के कारण पांच सौ मजदूरों को रोजगार मिलता है। स्थानीय ग्रामीणों की मानें तो राज्य सरकार ने बहुत प्रयास किया लेकिन जिले से उग्रवाद का अब तक पूरी तरह खात्मा नहीं हो पाया है। इसकी एक बड़ी वजह है बेरोजगारी। अगर इस प्लांट को और सरकारी मदद दी जाए। उत्पादन बढ़ाया जाए तो इससे स्थानीय युवकों को रोजगार मिलेगा और वे नक्सलियों के चंगुल में नहीं फंसेंगे। ग्रामीणों का सहयोग न मिला तो नक्सलवाद खुद खत्म हो जाएगा। बंदरगाह में जहाजों के लंगर में इस्तेमाल होने वाली इस रस्सी के यहां उत्पादन होने से भारत की विदेशी मुद्रा की काफी बचत होती है। चूंकि यहां के प्लांट में तैयार होने वाली रस्सी विदेशों में तैयार होने वाली रस्सी को कड़ी टक्कर देती है। यहां तैयार रस्सी मुंबई, चेन्नई व विशाखापटनम भेजी जाती है।
प्रतिवर्ष साढ़े तीन करोड़ की होती है आय : लातेहार शीशल प्लांट से भेजे गए फाइबर, जिसे बाद में रस्सी का रूप दिया जाता है, इससे वन विभाग को प्रतिवर्ष लगभग साढ़े तीन करोड़ रुपये की आय होती है। इस राशि का उपयोग विभाग द्वारा वेतन आदि के अलावा शीशल के पौधरोपण में किया जाता है। अभी देश में जितनी डिमांड है, उसके अनुरूप यहां उत्पादन नहीं हो पाता। अगर सरकार इस ओर ध्यान दे तो न सिर्फ स्थानीय युवाओं का भला होगा, सरकार की आय बढ़ेगी बल्कि भारत को आयात पर कम निर्भर होना पड़ेगा।
दर्द की दवा भी बनाते हैं ग्रामीण : शीशल को स्थानीय भाषा में लोग मुरब्बा भी कहते हैं। इसके पौधे से ग्रामीण दर्द, गठिया समेत अन्य प्रकार की दवा भी बनाते हैं। इससे ग्रामीण रस्सी भी तैयार करते हैं। जहाज की डोर के अतिरिक्त शीशल का इस्तेमाल नायलॉन के कपड़े, कुर्सी, टेबल व ब्रश बनाने में भी होता है।
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