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सप्ताहांत : धर्मनिरपेक्षता विचारणीय मुद्दा नहीं!  

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सप्ताहांत : धर्मनिरपेक्षता विचारणीय मुद्दा नहीं! 

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर बहुत बल दिया गया था। उस समय धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के निर्माण और विकास को राष्ट्रीय प्राथमिकता माना गया। उसका विरोध बहुत कम हुआ। लेकिन अब धर्मनिरपेक्षता की कटु आलोचना हो रही है।
यह दिखता है और भारत के आमजन को महसूस होता है कि भाजपा समेत हिन्दुत्व आंदोलन के नेता-कार्यकर्ता  बहुत तीखे प्रहार कर रहे हैं। उनकी आलोचना प्रहार जैसी है, उसमें विमर्श या असहमति के बिंदु पर सोच-विचार का लोकतांत्रिक स्पेस तैयार करने की प्रवृति का अभाव है। परिदृश्य का दूसरा पहलू यह भी है कि धर्मनिरपेक्षता के बौद्धिक विरोध के स्वर केवल वोट की राजनीति करनेवालों तक सीमित नहीं है। अनेक प्रहार भाजपा और हिन्दू राष्ट्रवादी धारा की अधिकृत संस्थाओं के बाहर से होते हैं – हो रहे हैं। ये प्रहार अनेक प्रकार के तर्कों पर आधारित है और ये अनेक क्षेत्रों से आ रहे हैं।

ये आलोचक धर्म या धार्मिकता या धर्मनिरपेक्षता से जुड़े किसी भी ‘सत्य’ को खुद से छिपाने के लिए दूसरों की नजरों से भी ओझल रखने की रणनीति एवं प्रक्रिया को सान चढ़ाते रहते हैं। जो सेक्युलर लोग अपनी राजनीति के लिए धर्मनिरपेक्षता की माला जपते रहते हैं, वे इन अन्य क्षेत्र से आने वाले प्रहारों के जवाब में सिर्फ यह साबित करने के लिए गला फाड़ते रहते हैं कि इनके पीछे भाजपा अथवा संघ (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) या उसके हिन्दुत्व आंदोलन या हिन्दू राष्ट्रवादी धारा के संगठनों का हाथ है। इस प्रयास में वे उन अन्य क्षेत्रों के बौद्धिकों को भी संघ परिवार की झोली में डाल देते हैं, वे उनके तर्कों एवं आलोचना का तार्किक या बौद्धिक स्तर पर जवाब देने से बचते हैं। आज यदि बहुधर्मी भारत की विचारधारा का मुख्य दीपस्तंभ (धर्मनिरेपेक्षता) धूमिल से दिखलाई पड़ने लगा है, तो उसका एक मात्र कारण हिन्दुत्ववाद को बताकर उस धूमिलता को कम करने के प्रयास में उसके गिर्द छाए कुहासे की पहचान भी विकृतिपूर्ण हो जाएगी।

आज भारत के बुद्धिजीवियों के लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ अनाकर्षक विषय है। इस पर चर्चा करने से वे प्रायः कतराते दिखाई पड़ते हैं। वे सिर्फ यह दोहराते नजर आते हैं कि बहुलतावादी लोकतंत्र के लिए धर्मनिरपेक्षता को ही सर्वश्रेष्ठ आधार मानने की परम्परा है। ‘कथित’ धर्मनिरपेक्ष राजनीति में शामिल लगभग सभी प्रभु भी ऐसे बुद्धिजीवियों की विकसित भावना के भागीदार बने हुए हैं। उनमें ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है जो धर्मनिरपेक्षता की आलोचनाओं का प्रतिकार करना आवश्यक मानते हैं। प्रतिकार करनेवाले प्रभु भी देश के आमजन को यह मैसेज देने में असमर्थ हैं (या फिर वे इसे आवश्यक मानते ही नहीं!) कि इन आलोचनाओं का प्रतिकार करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि इनका समकालीन राजनीतिक एवं बौद्धिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। यह प्रभाव अब कुछ-कुछ स्थायी जैसा होता जा रहा है। देश में बात-बात पर तनाव और किसी न किसी के आहत करने और आहत होने की सूचनाएं इसका प्रमाण हैं।

धर्म, धार्मिकता और धर्मनिरपेक्षता जैसे मुद्दों का सामना करना स्वयं धर्मनिरपेक्षतावादियों के लिए आवश्यक और उपयोगी है ; इससे उन्हें अभ्यासवश यानी आदतन स्वीकृत अपनी वरीयताओं की पुनः समीक्षा करने और उनके तार्किक आधार को जानने का अवसर मिलेगा। तब खुद से वे यह सवाल करेंगे और यह जानने की, ग्रहण करने की, कोशिश करेंगे कि अपने देश के इतिहास में उपलब्ध विभिन्न कालखंडों में हमारे तत्कालीन पुरखों ने, जिनको देश अपना ‘आइकन’ मानता था, या आज भी जिनकी पूजा या याद करता है, अपने समय में ऐसे मुद्दों का कैसे और किन तर्कों या प्रक्रियाओं के माध्यम से सामना किया? वे तब यह भी ग्रहण कर सकेंगे कि हमारे पुरखों का पुण्य आज कितना प्रासंगिक रह गया है और कितना चुक गया है।

कुल मिलाकर आज अपने विश्वासों-आस्थाओं की आत्मालोचना की बहुत गंभीर आवश्यकता है। यह आवश्यकता व्यावहारिक विचार-तंत्र और राजनीतिक दर्शन के संदर्भ में तो और भी अधिक गंभीर स्वरूप धारण कर लेती है। आज सत्ता-राजनीति में शामिल प्रभु खिलाडि़यों में शायद ही कोई यह मानता है कि एक सिद्धांत के रूप में ‘धर्मनिरपेक्षता’ के स्वरूप के स्पष्टीकरण और समीक्षा की आवश्यकता है।
यही हाल ‘मीडिया’ को संचालित-नियंत्रित करने वालों का है और उनका भी है, जो मीडिया के आधुनिक साधनों का भोग-उपभोग करते हैं और ‘सोशल मीडिया’ के नेटवर्क का बेलगाम उपयोग करते हैं – वे अपने मजे के लिए जाने-अनजाने ‘तनाव’ पैदा करने या तनाव पाने के नाटकीय प्रस्तुति में भागीदार होते हैं। वे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर राज्य-सत्ता के हाथ में मौजूद कानून की अप्रसांगिकता की ओर इशारा करते हैं या उसे एक्टिव होने के लिए उकसाते हैं। एवज में राज्यसत्ता और कड़े कानून बनाने के नाम पर अपनी ताकत का अतिरिक्त प्रदर्शित करने को अपना संविधानसम्मत विशेषाधिकार साबित करने के लिए पिल पड़ती है।

इस तरह की गतिविधियों एवं प्रक्रियाओं के तहत अक्सर कुछ ऐसे तत्वों को भी घसीट लिया जाता है, जो वास्तव में इसके कार्य तथा प्रभाव क्षेत्र से बाहर हैं या होने ही चाहिए। जैसे, ‘संविधान’।  राजनीतिक पटल पर धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सरकार या राज्य को किसी भी धार्मिक पन्थ से अलग रखना होता है। इस अलगाव की दो व्याख्याएं चलती हैं। एक यह कि सरकार सभी धर्म-पन्थों से एक समान दूरी बनाए रखे, किसी का पक्ष न ले। उनके प्रति निष्पक्षता का भाव बनाए रहे।दूसरी व्याख्या यह है कि सरकार किसी धर्म से कोई संबंध ही न रखे। यानी सबसे समान दूरी बनाए रखने का अर्थ यह है कि वह सभी से पूरी तरह दूर हो जाए।

इन दोनों व्याख्याओं में इतना स्पष्ट है कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ का अर्थ है – सरकार किसी भी धर्म को विशेषधिकारपूर्ण महत्व न प्रदान करे।
लेकिन पहली व्याख्या के तहत सरकार से प्रत्येक धार्मिक कार्य से बिल्कुल अलग रहने की अपेक्षा नहीं की जाती। उसमें केवल यह अपेक्षित है कि विभिन्न धर्मों और धार्मिक समुदायों के सदस्यों से सरकार का व्यवहार सम्यक या समान दृष्टि वाला हो। अक्सर यहीं मामला पेचीदा हो जाता है। धर्मनिरपेक्षता की इस पहली व्याख्या के अनुसार, पूजा-अर्चना के ‘अधिकार’ के संरक्षण में सरकार की भूमिका को लेकर सरकार द्वारा सभी के पूजा-अर्चना के अधिकार को संरक्षण किया जाना धर्मनिरपेक्षता ‘विरोधी’ नहीं माना जाता। हालांकि पूरे संरक्षण कार्य के सिलसिले में सरकार को धार्मिक समुदायों के साथ मिलकर कार्य करना पड़ सकता है। इससे आम तौर पर यह दृष्टि पनपती है कि सरकार किसी एक ही समुदाय के पूजा-अर्चना के अधिकार की रक्षा करने में विषमता की दृष्टि का निषेध करे। यानी सभी धर्मों समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता के लिए वह सम्यक दृष्टि से भलीभांति प्रयास करे, तो यह धर्मनिरपेक्षता के नियमों का उल्लंघन नहीं कहलाएगा।
लेकिन सम्यक दृष्टि से जुड़ा व्यवहार अक्सर यह सवाल पैदा करता है कि इस ‘सम्यकता’ का स्वरूप क्या हो? जैसे, क्या सरकार यह फैसला कर सकती है कि किसी धर्म से जुड़े ‘अस्पताल’ को वह आर्थिक सहायता नहीं देगी?

इसका सामान्य जवाब यह है कि सरकार यह फैसला नहीं कर सकती। इसके विपरीत अब तक संविधानसम्मत धर्मनिरपेक्षता के निर्देश के तहत सरकारों को यह मान्य है कि सभी अस्पतालों को, उनके धर्म संबंधों की जांच किए बिना भी सहायता प्रदान की जा सकती है।
लेकिन, यह मान्यता अधिक धर्मनिरपेक्ष दिखते हुए भी कई ‘तटस्थ’ विद्वान इस सवाल से जूझते मिलते हैं कि क्या इससे धर्मनिरपेक्षता की उस व्याख्या का प्रतिपादन होगा, जो किसी भी धर्म से कोई नाता नहीं रखने की बात कहती है? वैसे, दूसरी व्याख्या भी राजनीतिक दृष्टि से पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष मानी जाती है, क्योंकि किसी अस्पताल के साथ उसके धार्मिक संबंधों के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता तथा इस प्रकार की निष्पक्षता से सरकार और धर्म के बीच अलगाव बनी रहती है।
धर्मनिरपेक्षता निश्चय ही किसी धर्म विशेष को वरीयता देने से मना करती है, फिर भी बिना भेदभाव के सरकार सभी धर्मों से कितनी दूरी बनाकर रखे? इस बारे में न सरकार अधिक स्पष्टीकरण दे पाती है और न सत्ता-राजनीति के दिग्गज खिलाड़ी अपने आप में स्पष्ट हैं। लेकिन इससे बड़ी विडम्बना यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी, संवाद और विमर्श को लोकतंत्र में सत्ता-राजनीति के मुख्य आधार मानने वाले बुद्धिजीवी भी इस बाबत स्पष्ट होने के लिए वैचारिक मंथन को आवश्यक नहीं मानते।

इसके परिणामस्वरूप भारतीय धर्मनिरपेक्षता को लेकर इसके विरोधी कई शंकाएं प्रगट करते हैं और समर्थक उन शंकाओं को विरोधियों की राजनीतिक चाल करार देकर धर्मनिरपेक्षता की आंतरिक अपूर्णताओं तथा उनके कारण जन्मी समस्याओं पर विचार करने के किसी अवसर को पैदा न होने देने अथवा पैदा होते ही खत्म करने की राजनीतिक चाल चलने लगते हैं। इससे आमजन सिर्फ भ्रम की राजनीतिक का शिकार नहीं होता, बल्कि धर्मनिरपेक्षता की अपनी पहचान को निरंतर धूमिल और विकृतिपूर्ण होते देखता है। सो आज लोकतंत्र में आमजन मूक दर्शक-सा है, उस असहाय और असमर्थ मालिक-सा, जो अपने दबंग नौकरों की आपसी लड़ाई से अपने घर को तहस-नहस होते देखता है! (सिटी पोस्ट लाइव की प्रस्तुति : नोबल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन के विचारों पर आधारित)

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