सिटी पोस्ट लाइव : भारत-नेपाल की सीमा को लेकर चल रहा विवाद अब भयानक रूप लेता जा रहा है. भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद (Border dispute between India and Nepal) इस कदर गहराता जा रहा है कि बिहार से लगी सीमा पर भी तनाव देखा जा रहा है. शुक्रवार को बिहार में सीतामढ़ी के सोनबरसा बॉर्डर (Sonabarsa border of Sitamarhi) में भारत-नेपाल सीमा पर नेपाल पुलिस की ओर से जबरदस्त फायरिंग की गई. फायरिंग की इस घटना में 4 भारतीयों को गोली लगी है, वहीं एक शख्स की मौत भी हो गई.
गौरतलब है कि दोनों देशों के बीच सीमा को लेकर तनाव की स्थिति तब शुरू हुई जब नेपाल ने भारत द्वारा उत्तराखंड के अपने क्षेत्र में किए गए निर्माण कार्यों पर आपत्ति दर्ज करा दिया. इसके बाद नेपाल संसद (Nepal Parliament) ने एक नया नक्शा पारित कर दिया जिसमें भारत के 394 वर्ग किमी भूभाग को अपना हिस्सा बता दिया. हालांकि भारत ने नेपाल के इस नये नक्शे को सिरे से खारिज कर दिया है.दरअसल परस्पर भाईचारे से रहने वाले भारत और नेपाल के बीच ये सीमा विवाद (India-Nepal border dispute) क्यों हुआ इसे भी समझने की जरूरत है. आइये हम इस पूरे विवाद को आसान भाषा में जानने का प्रयास करते हैं.
गौरतलब है कि नेपाल एक लैंडलॉक देश है. लैंडलॉक उसे कहते हैं जो चारो ओर से भूमि से घिरा हो. इसके साथ ही नेपाल की स्थिति भारत और चीन के बीच एक बफर देश जैसी भी है. बफर देश वो होता है जो दो बड़े देशों के बीच कोई छोटा देश हो.एक दौर था जब मुगलों के पतन के बाद नेपाल के शासक बहुत शक्तिशाली हो गए थे. गोरखा सैनिकों के बल पर उनलोगों ने नेपाल ने सिक्किम के साथ उत्तर प्रदेश का तराई क्षेत्र, जो अवध का एरिया कहलाता है, कब्जा कर लिया था. उधर उत्तराखंड में कुमायूं और गढ़वाल को भी कब्जा कर लिया. कुमायूं और गढ़वाल मिलाते हैं तो उत्तराखंड हो जाता है.
सिक्किम और उत्तराखंड के किनारों पर तीस्ता और सतलज नदियां बहती हैं. तब इन दोनों किनारों पर बहने वाली सतलज से तीस्ता नदी के बीच नेपाल की सीमा हो गई.सुगौली संधि से पहले तीस्ता और सतलज नदियों के बीच का इलाका नेपाल कहलाता था.इसके बाद एंग्लो-नेपाल वार हुआ जिसे हम आंग्ल-नेपाल युद्ध भी कहते हैं. ये 1814 से लेकर 1916 के बीच में हुआ था. इस युद्ध में गोरखा बहुत वीरता से लड़े, लेकिन अंग्रेजों के हथियार और रणनीति अच्छी थी, इसलिए अंग्रेजों की जीत हो गई.
1916 में एक संधि अंग्रेजों और नेपाल शासकों के बीच हुई जिसे सुगौली की संधि. ये संधि 1815 में हस्ताक्षरित हुई थी, लेकिन लागू 1816 से हुई इसलिए इसे 1816 की संधि ही कही जाएगी. सुगौली बिहार के चंपारण में है. यहीं नेपाल और अंग्रेजों के बीच समझौता हुआ था.सुगौली समझौते में कहा गया था कि गोरखा शासकों ने जो गढ़वाल, कुमायूं, तराई यानी अवध और सिक्किम वापस करे. तब एक नयी सीमा का निर्धारण किया गया, जिसपर अभी विवाद चल रहा है.दरअसल अंग्रजों और नेपाल शासकों के समझौते के बाद जो सीमा का निर्धारण किया गया उसके तहत उत्तराखंड की शारदा नदी, जिसे नेपाल के लोग काली या महाकाली नदी कहते हैं, वो पश्चिम से सीमा बनाएगी और पूर्वी सीमा बिहार के किशनगंज के पास मेची नदी के बीच सीमा बनेगी.
गौरतलब है कि मेची नदी बिहार में महानंदा नदी से मिल जाती है. वहीं नेपाल की दक्षिणी सीमा बिहार के चंपारण में त्रिवेणी नदी सीमा बनी. फिलहाल यहां कोई विवाद नहीं है. यहां साफ है कि समझौते से पहले सतलज और तीस्ता नदी के बीच नेपाल था, लेकिन अंग्रजों से समझौते के बाद यह शारदा नदी और मेची नदी के बीच नेपाल बन गया. भारत के श्रद्धालुओं को सिक्किम के नाथुला दर्रे के रास्ते कैलाश मानसरोवर जाना पड़ता था. तब भारत सरकार ने सोचा कि क्यों न उत्तराखंड के रास्ते श्रद्धालुओं को कैलाश मानसरोवर पहुंचाया जाए. तो उत्तराखंड के लिपुलेख दर्रा से रास्ता बनाया गया और कैलाश मानसरोवर रास्ता बन गया.
भारत सरकार ने यहां चीन को देखते हुए भी रणनीति तैयार की क्योंकि चीन पर भरोसा करना संभव नहीं है. भारत सरकार ने सोचा कि लिपुलेख दर्रा के पास सड़क बना दें. सरकार ने बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन के जरिये सड़क बनाई. ये सेना के अंडर संस्था है जो सड़कें बनाती है.यहां विवाद ये हुआ है कि कालापानी तक की सड़क को बढ़ाकर लिपुलेख लाया गया जिसकी लंबाई 80 किमी थी. अब नेपाल ने भारत से कहा कि ये सड़क बनाए हैं वह नेपाल में बनाए गए हैं. दरअसल ये जगह भारत-नेपाल और चीन के बीच ट्राइ जंक्शन प्वाइंट है इसलिए रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है.
यहां यह समझने की बात है कि नेपाल कहता है कि हम सुगौली की संधि मानते हैं और भारत भी यही बात कहता है. फिर विवाद कैसे हुआ. दरअसल नेपाल और उत्तराखंड के बीच महाकाली नदी की तीन शाखाएं बहती हैं. संधि में कहा गया था कि ये नदी ही भारत और नेपाल का बॉर्डर होगा.
कालापानी को ही भारत काली नदी का उद्गम स्थल मानता है. यहां आईटीबीपी ने काली माता का मंदिर भी बनाया है जिसकी देखरेख आईटीबीपी ही करती है.कालापानी को ही भारत काली नदी का उद्गम स्थल मानता है. यहां आईटीबीपी ने काली माता का मंदिर भी बनाया है जिसकी देखरेख आईटीबीपी ही करती है.अब दिक्कत ये है कि नदी का उद्गम तीन नदियों से मिलकर होता है. सबसे पश्चिमी नदी का नाम लिम्प्याधूरा है, जो उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में है. इसके पूर्व में है कालापानी और सबसे पूर्वी हिस्सा है लिपुलेख.
भारत कहता है कि महाकाली नदी लिपुलेख से शुरू होती है इसलिए इसका पश्चिमी हिस्सा हमारा हो गया. जबकि नेपाल कहता है कि महाकाली नदी लिम्पयाधूरा से शुरू होता है इसलिए पश्चिमी हिस्सा बॉर्डर होना चाहिए. यानी सारा का सारा झमेला इसी एरिया के लिए है.सबसे खास बात ये है कि इस एरिया यानी ट्राइ जंक्शन पर पहले से ही भारत का कब्जा है. अब नेपाल ने कालापानी और लिम्प्याधूरा और लिपुलेख को अपने नक्शे में दिखा दिया है. भारत ने साफ-साफ कह दिया है कि ये नहीं मानते हैं.लिपुलेख समेत कई भारतीय इलाकों को नेपाल अपने नए नक़्शे में दर्शा रहा है.
जानकारों का मानना है कि भारत में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है. यह चाइना की कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से मिलती है. ये चीन की गोद में बैठे हैं. दरअसल चीन डेब्ट ट्रैप में फंसा लेता है. यानी इतना कर्ज दे देता है कि वह चुका ही नहीं पाता है और फिर उससे कर्ज वापस मांगता है. जब वापस नहीं हो पाता है तो चीन अपनी मनमानी करता है.जानकार कहते हैं कि नेपाल चीन के कहने पर ही ये सब कर रहा है, लेकिन 2015 का मधेशी आंदोलन नेपाल अगर याद करेगा तो साफ हो जाएगा कि उसकी हैसियत क्या है. तब नेपाल में पेट्रोल और डीजल तक मिलना दूभर हो गया था. अनाज की आपूर्ति ठप हो गई थी.
यही नहीं अगर वह चीन के भरोसे है तो यह स्पष्ट है कि भारत और नेपाल मैदानी इलाके से जुड़ते हैं जबकि चीन और नेपाल पहाड़ी इलाके से. ऐसे में कोई सामान जब भारत से नेपाल पहुंचेगा तो वह 10 रुपये का होगा, लेकिन चीन से यह कोलकाता बंदरगाह के रास्ते आएगा तो इसकी कीमत करीब 250 रुपये होगा.जानकार बताते हैं कि फिलहाल नेपाल जितना भी कुछ कर रहा है वह चीन के उकसावे पर ही कर रहा है, हालांकि नेपाल को अहसास है कि वह भारत से दुश्मनी नहीं झेल सकता. लेकिन, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी इसमें बड़ी अड़चन है. हालांकि देर-सबेर उसे भी यह समझ आ ही जाएगी कि भारत से दुश्मनी करना कहीं से भी नेपाल के अस्तित्व के लिए सही नहीं है.
जानकार बताते हैं कि सबसे पहले नेपाल से कूटनीतिक चैनल के जरिये ही बात की जानी चाहिए क्योंकि आप दोस्त बदल सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं. पर अगर वह फिर भी नहीं मानता है और चीन के हाथों का खिलौना बना रहता है तो टिट पॉर टैट वाला रास्ता भारत को भी अख्तियार करना चाहिए और उसे हैसियत बता देनी चाहिए.
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