2015 में देश का सबसे बड़ा चुनाव जीतकर नायक बने नीतीश अब रोज क्यों हार रहे हैं?
सिटी पोस्ट लाइवः बिहार के सीएम और जेडीयू के अध्यक्ष नीतीश कुमार ने हाल के वर्षों में कई सरप्राइज दिये हैं। 2014 के आम चुनाव से पहले बीजेपी के साथ दोस्ती तोड़ना हो, 2015 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले लालू से दोस्ती हो या फिर 2017 में लालू का साथ छोड़कर बीजेपी के साथ जा मिलना हो ये सरप्राईज बिहार और देश ने देखा है जो नीतीश ने दिया। हर सरप्राइज के पीछे का तर्क यही रहा कि विचारधारा, नीति और सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं कर सकते। नीतीश कुमार के बारे में यह कहा जाता है कि उन्हें समझना मुश्किल हीं नहीं नामुमकिन भी है लेकिन कम हीं सही बिहार ने नीतीश कुमार को जितना समझा है उससे हर बदलते वक्त के साथ एक नये सरप्राइज की उम्मीद रही है। धारा-370, तीन तलाक सीएबी और सीएए। इन फैसलों के सही गलत पर अलग बहस देश में चलती रही है और चल रही है लेकिन नीतीश जीतनी सहजता के साथ इन फैसलों को पचा गये यह लोग नहीं पचा पा रहे हैं। खुद उनकी पार्टी हीं नहीं पचा पा रही है। सवाल सिर्फ फैसलों को लेकर नहीं है बल्कि केन्द्र के मंत्रिमंडल में हिस्सेदारी या अन्य दूसरों मौकों पर बीजेपी ने उन्हें यह भली-भांति अहसास करा दिया कि यह अटल-आडवाणी की बीजेपी नहीं है ये मोदी-शाह की बीजेपी है। सवाल है नीतीश कुमार क्यों बदले-बदले नजर आते हैं? 2015 के विधानसभा चुनाव में बिहार और देश ने जिस नीतीश कुमार को को देखा 2020 में वो नीतीश कुमार क्यों नहीं दिखते?
सवाल यह भी है कि 2015 में देश का सबसे बड़ा चुनाव जीत कर नायक बने नीतीश कुमार 2020 आते-आते अपनी हीं पार्टी के कुछ नेताओं को खलनायक क्यों दिख रहे हैं? और सवाल यह भी है कि 2015 में पीएम मोदी को हराने वाले नीतीश आज जीत-हार से पहले हीं क्यों हारने लगे हैं? 2015 के विधानसभा चुनाव को देश का सबसे बड़ा चुनाव इसलिए कहा गया था क्योंकि तब लड़ाई महागठबंधन वर्सेज एनडीए या जेडीयू बनाम बीजेपी नहीं थी बल्कि लड़ाई नीतीश बनाम नरेन्द्र मोदी थी। तब नरेन्द्र मोदी के करिश्मे ने कई राज्य बीजेपी की झोली में डाल दिये थे। दस साल तक बिहार की सत्ता पर काबिज रहने वाले नीतीश को लेकर कम हीं सही लेकिन थोड़ी बहुत सत्ता विरोधी लहर भी थी, लालू के साथ दोस्ती को एक अलग गलती मानी जा रही थी। बिहार आकर डेढ़ हजार करोड़ के विशेष पैकेज का एलान कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मास्टर स्ट्रोक चल दिया था बावजूद इसके नीतीश इस लड़ाई को जीत गये। 2015 में विधानसभा चुनाव में जीतकर नीतीश सिर्फ सीएम नहीं बने बल्कि मोदी के करिश्मे से टकराने वाला जो नेता विपक्ष ढूंढ रहा था नीतीश ने उस खोज को खत्म कर दिया।
नीतीश यह कहते रहे हैं कि उनकी पार्टी छोटी पार्टी है और प्रधानमंत्री बनने की उनकी कोई महत्वकांक्षा भी नहीं है लेकिन उनकी पार्टी के अंदर से और कुछ बाहर से 2015 के चुनाव के बाद उन्हें पीएम प्रोजेक्ट किया जाने लगा था। 2015 वाले नायक नीतीश को लेकर आज कई तरह की धारणाएं हैं। धारणाएं कई बार सही भी होती है और कई बार गलत भी होती है लेकिन धारणाएं सियासत में खेल बनाती भी है और बिगाड़ती भी है। 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश की सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि उन्हें लालू के साथ दोस्ती का बचाव करना था। उन्हें लोगों को यह समझाना था कि आखिर क्यों और किन परिस्थितियों में उन्होंने उस लालू के साथ दोस्ती कर ली जिनके राज को कभी वो आतंक राज कहा करते थे। चुनौती 2020 में होगी। अंतर बस इतना होगा कि इस बार उन्हें बीजेपी के साथ दोस्ती का बचाव करना होगा। उनकी विचारधारा को लेकर जो धारणाएं बनी है या फिर उनके सियासी दुश्मनों द्वारा जो धारणाएं बनाने की कोशिश हो रही है उससे निपटना होगा उस पर सफाई देनी होगी। राजनीति के कई जानकार यह मानते हैं कि लालू के साथ दोस्ती का बचाव करना नीतीश के लिए कम बड़ी चुनौती थी। उनकी विचारधारा को लेकर जो सवाल उठ रहे हैं उन सवालों से पार पाना ज्यादा बड़ी चुनौती है। नीतीश के लिए स्थिति यह है कि अगर बीजेपी के साथ दोस्ती बचाएंगे तो सियासी रूप से वे नहीं बचेंगे और अगर खुद को बचाने की कोशिश करेंगे तो दोस्ती नहीं बचेगी। दोनों में रिस्क है और शायद इस डबल रिस्क के उधेड़बुन में वे उलझे हुए हैं।
पवन वर्मा और प्रशांत किशोर उनकी पार्टी के दो ऐसे नेता हैं जिन्होंने उनकी नीति और नियत पर सवाल उठाये हैं। उनसे स्पष्टीकरण मांगने की जुर्रत की है। हाल के दिनों उनके फैसलों और बयानों पर सवाल उठाये हैं। पवन वर्मा को नीतीश कहीं भी चले जाने की सलाह दे चुके हैं, प्रशांत किशोर के बारे में भी माना जा रहा है कि वे भी अलग राह ले लेंगे। लेकिन ये दोनों नेता ऐसे हैं जिनकी 2015 के विधानसभा चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उस चुनाव में नीतीश ने इन दोनों पर काफी भरोसा किया था। प्रशांत किशोर नीतीश के लिए रणनीति बना रहे थे और नारे गढ़ रहे थे दूसरी तरफ पवन वर्मा ठीक उसी तरह मोर्चा संभाले हुए थे और बीजेपी के हमलों का जवाब दे रहे थे जैसे आरजेडी की ओर से मनोज झा दे रहे थे। दोनों नेता आज जेडीयू में साइडलाइन नजर आते हैं इसलिए लगतार यह सवाल उठता है कि क्या यह सिर्फ इस वजह से है क्योंकि जेडीयू या नीतीश कुमार की नयी राजनीति को यह नेता सूट नहीं करते और उन कथित समझौतों पर लगातार सवाल उठाते हैं जिनको लेकर उनके सियासी दुश्मन भी उनपर हमलावर है? 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में अभी कुछ महीनों का वक्त है। अभी से देखने पर यह लग रहा है कि लड़ाई एकतरफा है आरजेडी और महागठबंधन नीतीश को टक्कर देता नहीं दिखता लेकिन चुनाव चुनाव से इतने पहले तय नहीं होते। राजनीति के जानकार यह भी मानते हैं कि परिस्थिति बदल भी सकती है।
Comments are closed.