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चमकी बुखार से बच्चों को बचाने में सिस्टम फेल, अब बारिश से ही जान बचने की उम्मीद

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चमकी बुखार से बच्चों को बचाने में सिस्टम फेल, अब बारिश से ही जान बचने की उम्मीद

सिटी पोस्ट लाइव : बारिश नहीं हो रही है. गर्मी का प्रकोप कम होने का नाम नहीं ले रहा. जबतक झमाझम बारिश नहीं होगी और गर्मी का प्रकोप रहेगा तबतक चमकी बुखार से बच्चों के मरने का सिलसिला जारी रहेगा. दरअसल, अभीतक चमकी बुखार की वजहों का पता नहीं चल पाया है. मरीजों के ब्लड सैंपल और लीची को जांच के लिए लैब भेंज गया है लेकिन अभीतक कोई रिपोर्ट नहीं आई है. जाहिर है बीमारी क्या है, क्यों है, अभीतक सरकार अनभिग्य है.

लेकिन बिहार सरकार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पाण्डेय का दावा है कि चमकी बुखार से पीड़ित बच्चों के ईलाज की मुक्कमल व्यवस्था है. 60 से ज्यादा डॉक्टर्स मुजफ्फरपुर में तैनात हैं. 80 से ज्यादा नए ICU तैयार किये जा चुके हैं. स्थिति में सुधार आ रहा है. मंगल पाण्डेय का दावा है कि 600 से ज्यादा चमकी बुखार के मरीज अस्पताल में भर्ती हुए. उनमे से ढाई सौ से ज्यादा ईलाज के बाद स्वस्थ होकर घर लौट गए. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जब बीमारी की वजह का ही पता नहीं है फिर ईलाज कैसे और किस आधार पर किया जा रहा है. कहीं वैकटेरिया का ईलाज एंटी-बायोटिक के सहारे तो नहीं किया जा रहा .अगर बीमारी कुछ और हो और ईलाज कुछ और तो जान बचेगी या फिर जायेगी.

 मंगलवार को श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज में पूर्वी चंपारण से आई आठ साल की एक बच्ची प्रिती कुमारी की मौत हो गई. इस साल अब तक पूरे बिहार में 154 बच्चों के मौत की पुष्टि हो चुकी है.तमाम शोध और चिकित्सकीय कोशिशों के बाद अब चिकित्सा अधिकारियों को गर्मी का मौसम बीतने और बारिश के आने का इंतज़ार है. उन्हें उम्मीद है कि गर्मी कम होने के साथ साथ बीमारी का प्रकोप भी कम हो जाएगा. लेकिन पूरे राज्य में इस वक़्त भीषण गर्मी पड़ रही है और 38 में से 25 ज़िले सूखे की चपेट में हैं. मुज़फ़्फ़रपुर और आस-पास के इलाक़े जहां दिमाग़ी बीमारी का प्रकोप सबसे ज़्यादा है, वहां पीने के पानी के लिए भी हाहाकार मचा हुआ है.

बिहार के स्वास्थ विभाग के प्रधान सचिव संजय कुमार का कहना है  कि “पहली बारिश के बाद से आशाएं जगी थीं कि गर्मी कम होगी और स्थिति में सुधार आएगा. लेकिन एक दिन की बारिश के बाद पिछले चार दिनों से तापमान सामान्य के मुक़ाबले 8 डिग्री सेल्सियस तक ऊपर चढ़ गया है.”श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल के अधीक्षक डॉ एसके शाही को दुबारा गर्मी के बढ़ने से बीमारी के बढ़ने का डर सताने लगा है. हमारी उम्मीद बारिश पर टिकी है वरना हालात और बिगड़ सकते हैं.”

इधर मौसम विभाग का पूर्वानुमान कहता है कि अगले तीन दिनों तक मुज़फ़्फ़पुर और आसपास के इलाक़ों में बारिश की संभावना बहुत कम है. कहीं-कहीं हल्की बारिश हो सकती है.दिमाग़ी बुख़ार के प्रकोप के बढ़ने का एक और कारण जागरुकता का अभाव माना जा रहा है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने अपने अध्ययन की एक रिपोर्ट में कहा है कि ‘अगर राज्य में समय से पहले स्वास्थ्य जागरुकता कैंप चलाए गए होते और परिवारों को सही जानकारी दी गई होती, तो बिहार में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम से हुई बच्चों की भयावह मौतों को रोका जा सकता था.’खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी सार्वजनिकरूप से स्वीकार कर चुके हैं कि जागरूकता अभियान चलाने में चुक हुई है.विपक्ष का आरोप है कि मरनेवाले गरीबों के बच्याचे हैं इसलिए सरकार बेफिक्र है.

सवाल इस बात पर भी उठ रहे हैं कि सरकार ने पैसा रहते हुए अस्पतालों को दुरुस्त करने का काम क्यों नहीं किया.केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से संसद को दी गई जानकारी के मुताबिक़, “साल 2018-19 के दौरान बिहार सरकार को नेशनल हेल्थ मिशन के तहत 2.65 करोड़ रुपए दिए गए थे, जिसमें केवल 75.46 लाख़ रुपए ही ख़र्च हुए. बिहार ने इस योजना के तहत स्वास्थ्य मेले और जागरूकता कैंप लगाने के लिए आवंटित धन का 30 फ़ीसद भी ख़र्च नहीं किया.”जिलों के अस्पतालों में यानी पीएचसी में बुख़ार मापने के लिए थर्मामीटर तक नहीं हैं.मरीजों से ही अस्पताल के कर्मचारी थर्मामीटर की मांग करने लगते हैं. जाहिर है सरकार और सिस्टम स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर बिलकुल गंभीर नहीं है. अस्पताल में एक थर्मामीटर का नहीं होना तो यहीं कहानी कहता है.

दिल्ली से मुजफ्फरपुर पहुंची विशेष जांच टीम के विशेषज्ञों का भी कहना है कि बिहार में इतनी तादाद में बच्चों की मौत के पीछे समय पर इलाज के लिए मुकम्मल इंतज़ाम का न होना सबसे बड़ा कारण है.अगर सरकारी रिकॉर्ड की ही बात करें तो नीति आयोग की रिपोर्ट में बिहार की स्वास्थ व्यवस्था को फिसड्डी बताया गया है और इसको लेकर विपक्ष हमलावर है..बिहार में 28,392 आबादी पर सिर्फ़ एक डॉक्टर है, यहां महज़ 13 मेडिकल कॉलेज, देशभर के मेडिकल कॉलेजों की सीटों का महज़ तीन फीसदी है.बिहार में पीएचसी की हालत पहले से ख़राब है, कुल 1,833 पीएचसी में मात्र 2,078 डॉक्टर हैं. क़रीब 75 फीसदी ऐसे पीएचसी हैं जहां डॉक्टरों की समुचित व्यवस्था तक नहीं है.

इस बीमारी के एक सामाजिक आर्थिक पक्ष भी सामने आया है. दिमाग़ी बुख़ार के अधिकांश पीड़ित बच्चे सामाजिक रूप से पिछड़े ग़रीब आबादी से आते हैं.हरिवंशपुर में जहां 11 बच्चों की मौत हुई, वे सभी दलितों के बच्चे ही हैं. गांव में अन्य संपन्न जातियों के मुहल्ले में इस बीमारी का नामो निशान नहीं है.अस्पताल अधीक्षक एसके शाही के अनुसार भी अधिकांश मामलों में यही देखा गया है कि जो ग़रीबों के बच्चे हैं, कुपोषित हैं, जिनके पास स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव है और जहां पानी की समस्या है, वहीं के बच्चे मर रहे हैं. अधिकांश बच्चे शौचालय विहीन हैं. घर विहीन हैं. पीने का साफ़ पानी नहीं है.”

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