विशेष : अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को सार्थक बनाने की है जरूरत
शब्दजाल से नारियों का,कभी भी नहीं हो सकता है असली सम्मान
विशेष : अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को सार्थक बनाने की है जरूरत
सिटी पोस्ट लाइव : आदिकाल से ही नारी विषय गूढ़ रहस्य का संसार रहा है। समय-समय पर संत, ऋषि, मुनि, दार्शनिक, चिंतक, विचारक और समाज सुधारकों ने नारी के लिए अलग-अलग लक्ष्मण रेखा खींची और नारी को अलग-अलग तरीके से परिभाषित भी किया है। आदिकाल से मध्यकाल और अभी के आधुनिक काल में नारी के लिए अनेक उपमाओं और अलंकार के प्रयोग हुए हैं ।कुछ वर्तमान दार्शनिक, विचारक और लेखकों ने नारी को लेकर अपने समृद्ध विचार रखे हैं। इनलोगों के विचारों की हमने ना केवल तटस्थ पड़ताल की है बल्कि उनका गहन अध्यन भी किया है। इनलोगों के विचारों में वर्तमान परिपेक्ष्य में सोसल मीडिया और आधुनिक संचार माध्यमों के जरिये नारी को “वस्तु”समझने की कोशिश का खुला उपक्रम किया जा रहा है। यह खुला सच है की आज के दौर में नारी मजबूती से घर की देहरी लांघकर शासन-प्रशासन से लेकर विविध क्षेत्रों में अपने नाम और काम का पताका लहरा रही हैं।
ऐसे में उनके साथ हो रहे दुर्व्यवहार, शोषण और व्याभिचार को किसी संचार माध्यम से जोड़ना, मानसिक दिवालियेपन की निशानी है ।केवल आज की नारी काम वासना की शिकार नहीं हो रहीं हैं ।नारी के स्थूल शरीर का,काम वासना लिप्त शोषण का पुराना इतिहास रहा है। अरस्तू और प्लेटो जैसे दार्शनिकों ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि अलग-अलग नारी के साथ,काम पिपासा और तृष्णा की तुष्टि के बाद, उन्हें चिंतन और ज्ञान संवर्धन में अकूत ऊर्जा मिलती रही ।यानि पुरुषों को अतिशय ऊर्जावान बनाने के लिए नारी एक नैसर्गिक मशीन बनी रहीं। आज के समय में,विकास के नाम पर ऊँची इमारतें खड़ी करना, मजूबत सड़कें बनवा लेना, फ्लाई ओवर बनवाना, बड़े-बड़े होटल, मॉल और विविध बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान बनावा लेना,कतई वास्तविक विकास नहीं है ।भौतिकवादी विकास और संस्कारों का विकास,दोनों दो चीजें हैं।
नारी और पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। काम वासना को नियंत्रित करने के लिए भारतीय संस्कृति के अंदर विवाह संस्था का उद्भव हुआ। लेकिन आज के परिपेक्ष में विवाह अपने मौलिक अर्थ से भटक चुका है। नारी को आदिकाल से ही शब्दों से अकूत सम्मान मिलते रहे हैं लेकिन नारी को “वस्तु” समझने का सिलसिला आदिकाल से चल रहा है। पुरुष,नारी को अपनी इच्छानुसार उपभोग करना चाहता है ।यह अलग बात है की इस दुःपरिस्थिति में नारी की सहमति का बेहद खास महत्व है ।सभ्यता के विकास काल से ही पुरुष,नारी को रिझाने के तरह-तरह के उपक्रम करता रहा है ।नारी के ज्ञान,उसके विवेक और उसके समृद्ध वृहत्तर क्षमताएं अमूमन गौण रही हैं। इसमें कतई किसी शक की गुंजाईश नहीं रही है कि नारी देह, पुरुषों की प्राथमिकता रही है ।नारी के देह उपभोग से,पुरुष अपने को अधिक ऊर्जावान बनाकर अन्य कृत्यों को शक्ल देने का आदी रहा है ।
भारतीय इतिहास और विश्व इतिहास को खंगालें तो नारी सदैव “वस्तु” की तरह ही रही हैं ।यह अलग बात है की भारतीय संस्कृति में नारी को विशष्ट सम्मानों और अलंकारों से सुशोभित करके “वस्तु” समझने का छदम् खेल होता रहा है ।वैसे भारतीय इतिहास को संगठित इतिहास के तौर पर हम कतई नहीं देखते हैं ।सार्थक मूल्यों और समृद्ध तथ्यों को समेटकर भारतीय इतिहास को किसी भारतीय इतिहासकार ने सहेजाही नहीं है ।खैर इसे हम तत्कालीन समय और काल की परिस्थिति से जोड़कर देखते हैं । हम रामायण काल की चर्चा करते हैं ।उसमें सीता का स्वयंवर हुआ था। नारी को जीतने के लिए धनुष उठाये गए थे और तीर छोड़े गए थे ।रावण ने सीता का अपहरण किया था।बाली ने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी पर कब्जा कर रखा था ।महाभारत काल में युधिष्ठिर ने द्रोपदी को जुए में दांव पर लगाया था ।हद बात तो यह भी थी की द्रोपदी के पांच पति थे ।कृष्ण की सैंकड़ों पटरानियां थीं ।बाद के समय के किसी काल को देखें तो,एक राजा की कितनी ही बीबियाँ थीं ।युद्ध जीतकर पराजित राजा की पत्नी को विजेता अपने साथ ले जाते थे ।अलाउद्दीन खिलजी की बुरी नजर रानी पद्मावती पर थी ।अकबर की कई पत्नियां थी ।राजाओं के हरम हुआ करते थे,जहां सुंदर नारी रखे जाते थे ।राजा अपनी मर्जी से वहाँ रासलीला करते थे ।
भारतीय समाज में एक दौर आया सतीप्रथा का ।पति के मरने पर पत्नी, पति की चिता में कूद जाती थी ।साक्ष्य बताते हैं कि उस समय बेबा को आग में कूदने के लिए उत्प्रेरित किया जाता था ।हांलांकि इस कुप्रथा को खत्म कराने के लिए क्रांतिकारी समाज सुधारक राजा राम मोहन राय ने, कालजयी संघर्ष और प्रयास किये ।देश की आजादी के बाद भारतीय संविधान में नारी को अलग से सम्मान देने की कोशिश की गयी ।फिर बाद के दिनों में नारी के हितार्थ कई कार्यक्रमों का दौर चला ।”आधी आबादी”संज्ञा से लवरेज नारी का जीवन अनवरत चलता रहा ।नारी उत्थान के लिए,अभी भी कई तरह के कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। बाबजूद इसके नारी “वस्तु” होने से उबर नहीं पायी है ।पहले के समाज में नारी का उपभोग परदे के भीतर होता था। आज के आधुनिक और वर्तमान काल में नारी घर से बाहर निकल चुकी हैं,तो उनका उपभोग बदले हुए स्वरूप से हो रहा है ।पुरुष प्रधान समाज में नारी सदैव भोग्या और वस्तु ही रही है ।वर्तमान समाज में नारी घर से बाहर निकली हैं ।बच्चियां स्कूल और कॉलेज जा रही हैं। विभिन्य क्षेत्रों में नारी का डंका बज रहा है ।बाबजूद इसके पुरुष की लोलुपता बढ़ी है। पुरुष नारी को लपकने के लिए,ज्यादा आतुर रहते हैं ।नारी को “वस्तु” समझने में पुरुष मानसिकता निश्चित रूप से अपराधी है।
लेकिन हम इस स्थिति के लिए नारी को भी गुनहगार मानते हैं । आज की नारी स्कूल-कॉलेज, किसी ऑफिस,संस्थान से लेकर जब मन्दिर जाती हैं तो उनके भड़काऊ लिबास और उनकी साज-सज्जा पुरुष को भीतर से जलाते हैं ।नारी खुद “वस्तु” बनकर घर से निकलती हैं ।नारी पहले पुरुष को मानसिक अपराध करने के लिए विवश करती हैं ।फिर थोड़ी सी आजादी के बाद, पुरुष वह कर गुजरता है जिसे हम व्याभिचार की संज्ञा देते हैं। भारतीय परिवेश में रिश्तों का एक संसार है ।स्त्री-पुरुष के बीच कई रिश्ते होते हैं ।लेकिन आज रिश्ते अपनी गर्माहट और मर्यादा खो से चुके हैं ।रिश्तों के मजबूत मेड़ धराशायी हो चुके हैं ।आलोक धनवा की एक कविता इस मौके पर बेहद फिट बैठती है “घर की बेड़ियां कितनी कमजोर थी,यह तब पता चलता है,जब कोई लड़की घर से भाग जाती है “।
नारी मुतल्लिक विभिन्य तरह की गोष्ठी और कार्यक्रम नारी महत्व और महात्म्य को स्थापित करने की जगह उनकी कमजोरी के प्रचारक और संवाहक होते हैं । रामायण में तुलसीदास ने लिखा है की “ढ़ोल, गंवार,शुद्र,पशु,नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी” । विद्वानों ने ताड़ना के दो अर्थ निकाले ।एक प्रताड़ित करना और दूसरा उबारना ।दोनों ही अर्थ में नारी कमतर,बेबस और लाचार प्रतीत होती हैं ।आधुनिक काल नें कालजयी साहित्य पुरोधा जयशंकर प्रसाद ने नारी को बेहद सम्मान दिया और लिखा “नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास-रजत-नग पगतल में, पीयूष–स्रोत बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में”।वाकई यह पंक्तियाँ बेहद निर्मल और नारी के वास्तविक स्वरूप और अर्थ का परचम लहरा रही हैं ।मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा “अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी,आँचल में है दूध और आँखों में पानी” ।नारी का यह चित्रण भी दिल की गहराईयों को छूने वाला है ।इसके वृहत्तर अर्थ निकालकर नारी को स्वस्थ और निर्मल सम्मान दिया जा सकता है ।
आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है ।विश्व सहित भारत में आज महलाओं को कई नए अलंकार के साथ-साथ कई तमगे भी मिले हैं ।लेकिन ये सब बस फारस हैं ।महिला को उचित सम्मान और न्याय तभी मिलेगा जब हम हृदय में नारी महत्ता को जगह देंगे,उसे आत्मसात करेंगे और उसे अपने लहू में दौड़ाएंगे ।नारी उत्थान की चर्चाओं से नारी का कभी भला होना सम्भव नहीं है ।पुरुष चित्त और नारी चित्त के समवेत बदलाव “नारी की असलियत” को स्थापित कर सकता है ।हम नारी महत्ता को अंतरतम से स्वीकारते हैं ।लेकिन हमारे एकल प्रयास से नारी को कभी वास्तविक शक्ल और सीरत मिलना नामुमकिन है ।नारी को भी मर्मज्ञ होकर,अपनी प्रासंगिकता पर अन्तः यात्रा करने की जरूरत है ।स्त्री सुधार को लेकर बड़े -बड़े दावे होते रहें हैं और इसकी आड़ में राजनीति चमकाने के साथ-साथ हर तरीके से उल्लू भी सीधा किया जाता रहा है ।कई कानून स्त्री के लिए बने तो,कई योजनाएं कागजों में ही दम तोड़ती रही हैं ।फिर भी, जिस सुधार की उम्मीद हम लगाए बैठे थे,हमें उसका अंश मात्र भी जमीनी स्तर पर देखने को नहीं मिल रहा है ।
क्या केवल सरकार इसके लिए जिम्मेवार है ?क्या केवल कानून के दम पर हम इतनी बड़ी आबादी को अधिकार दिला सकते हैं आज स्त्रियों की दशा में सुधार की जरुरत हर घर में है,हर मजहब में है,हर तबके और हर समाज में है ।”क्या यह कहा जा सकता है कि हमारा पुरुष प्रधान समाज,नारी के वृहत्तर औचित्य और उसके शास्वत संवर्धन को कुंद करने के लिए सबसे अधिक जिम्मेवार हैं ?”यह बिल्कुल सच है ।साथ ही स्त्रियों के दीन-हीन दशा के पीछे स्वयं स्त्रियां भी जिम्मेवार हैं ।भौतिक और शारीरिक स्वार्थ स्त्रियों पर कुछ इस तरह हावी है कि आज वे स्वयं ही अपने आप की पहचान नहीं कर पा रहीं हैं ।आज के दौर में अच्छे और महंगे कपड़े,घर से बाहर भोजन और घर में हर सुख-सुविधा के सामान तक ही स्त्रियों की मानसिक दशा सीमित हो गयी है ।हांलांकि यह दीगर बात है कि पहले की नारियों ने जो परिवर्तन चाहा,आज की कुछ नारीयां ही उस राह पर चल रही हैं ।ऊंचे मकानों में आज भी स्त्रियों की जुबान दबी हुयी है ।हमारे पुरूष प्रधान समाज में पति परमेश्वर हैं ।
आज के आधुनिक दौर में,जो नारी इस परम्परा को मान रही हैं,कहीं ना कहीं वही मानसिक,शारीरिक रुप से और अपनी सामाजिक प्रासिंगता के मद्दे नजर से,सिद्दत से प्रताड़ित हो रही हैं ।पुरूष का प्रेम,स्त्रियों के लिए स्वार्थ युक्त और बेहद संकुचित है ।जब तक हमारे समाज के हर व्यक्ति,स्त्रियों के प्रति अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे,तब तक स्त्री सुधार की बात महज एक कल्पना और दिवास्वप्न भर है ।यह एक अहम् मसला है की स्त्रियों को भी भौतिकवादी परिवेश से बाहर आकर अपनी वास्तविकता को समझना होगा ।यह बात सर्वविदित है की अधिक अपेक्षाएं,आपको कमजोर बनाती हैं ।अधिक महत्वाकांक्षाएं शर्तों पर जीने को मजबूर करती हैं ।सिर्फ कानून के बल पर बुराईयों को कतई खत्म नहीं किया जा सकता है ।जब तक आधी आबादी को पूर्ण अधिकार नहीं मिल जाता,तब तक ना पुरूष पूर्ण है और ना ही हमारा समाज ।
जाहिर तौर पर,ऐसी अपूर्ण दशा में देश और समाज का पूर्ण विकास शब्दों में ही सिमटकर रह जाएगा ।इच्छा की जगह अभीप्सा का सृजन जरुरी है ।नारी को शब्दजाल से ईज्जत बख्सी के खोखले अभिव्यंजना से पुरुष जात को उबरना होगा ।बड़ा यथार्थ यह है की एक स्त्री,एक पुरुष में सिमटकर,अपनी पूरी दुनिया देखती है लेकिन एक पुरुष कई स्त्रियों की सोहबत में रहकर खुद को यशस्वी साबित करते रहते हैं ।नारी को वस्तु समझने की परम्परा बदलनी होगी ।नारी और पुरुष,स्वस्थ जीवन में एक दूसरे के पूरक हैं ।नारी को अपने शौर्य को और पुरुष को अपने कर्तव्य को समझना बेहद जरुरी है ।भारतीय सभ्यता की नारी आधुनिक समय में निर्मल और निश्छल प्रेम के अभाव में भटकन की शिकार हैं ।पुरुष को आगे बढ़कर बेहतर सहचर और रहबर बनकर दिखाना होगा ।नारी प्रेम की भूखी है ।नारी प्रेम के इस्तेमाल को,बन्द करने पर ही पूज्या नारी का पुरातन अस्तित्व दृष्टिगत होगा ।नारी अन्तः यात्रा से जब,बाह्य यात्रा करेगी,तभी नारी होने के यथार्थ के महात्म्य दृष्टिगत होंगे ।
पीटीएन मीडिया ग्रुप के मैनेजिंग एडिटर मुकेश कुमार सिंह का खास विश्लेषण
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