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सभी गैर-बीजेपी राजनीतिक दलों के लिए चुनौती बन गए हैं ओवैशी.

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सभी गैर-बीजेपी राजनीतिक दलों के लिए चुनौती बन गए हैं ओवैशी.

सिटी पोस्ट लाइव : लगातार बीस साल से बिहार की राजनीति में अपने मुस्लिम-यादव समीकरण के बलबूते अपना दमखम बरकरार रखनेवाले लालू यादव, अपने सेक्युलर क्रेडेंशियल की वजह से बीजेपी के साथ सरकार चलाने के वावजूद अल्पसंख्यकों को रिझानेवाले नीतीश कुमार और अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण की नीति को अपना सबसे मजबूत हथियार बना चुकी ममता बनर्जी जैसे देश के दिग्गज नेता देश के एक संसद से परेशान हैं. ये सांसद कोई और नहीं बल्कि हैदराबाद के सांसद हैं असदुद्दीन ओवैसी.अल्पसंख्यक वोट बैंक पर दावेदारी करनेवाले सभी नेताओं के लिए आज ओवैशी एक बड़ी चुनौती बन चुके हैं.

ओवैशी कहते हैं-“हर कोई आज मुझे टारगेट कर रहा है घर में मुर्गी अंडा न दे तो हम ज़िम्मेदार, भैंस दूध न दे तो भी ओवैसी ज़िम्मेदार.”ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी आज अपनी पार्टी की पहचान देश भर में बना चुके हैं और पार्टी की साख मजबूत करने में अब जुटे हैं.इतने कम समय में अपनी पार्टी को देश भर में मशहूर कर चुके ओवैशी देश के ज्यादातर नेताओं के निशाने पर रहते हैं.

बिहार के लालू यादव और नीतीश कुमार हों या फिर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सभी अल्पसंख्यकों के बीच ओवैशी की पार्टी की बढती लोकप्रियता से परेशान हैं.पश्चिम बंगाल के कूचबिहार में अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के कार्यक्रम के दौरान ममता बनर्जी ने ओवैशी पर हमला करते हुए कहा कि “एक राजनीतिक पार्टी है जो बीजेपी से पैसे ले रही है. वो पश्चिम बंगाल से नहीं बल्कि हैदराबाद से है.असदुद्दीन ओवैसी ने भी जवाब देने में देरी नहीं की. एआईएमआईएम प्रमुख ने कहा, “ममता बनर्जी की ज़ुबान पर मेरा नाम आया, इसके लिए मैं थैंक्यू कहना चाहूंगा.”

ओवैसी ने अल्पसंख्यकों को बांटने के आरोप पर भी पलटवार किया और कहा कि “आजकल हर कोई हमें ही ज़िम्मेदार मान रहा है, लेकिन ये नहीं जानते हैं कि मुसलमान बदल चुका है. बंगाल में ये बीजेपी को नहीं रोक पाए तो हमें ज़िम्मेदार मान रहे हैं.”ममता बनर्जी का बयान और असदुद्दीन ओवैसी का बयान ऐसे समय में आया है जब एआईएमआईएम पश्चिम बंगाल में 2021 में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में उतरने का ऐलान कर चुकी है.पश्चिम बंगाल की सीएम के निशाने पर अक्सर लेफ़्ट और बीजेपी रहा करते थे मगर यह पहला मौक़ा है जब उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से एआईएमआईएम पर निशाना साधा है.ममता बनर्जी और असदुद्दीन ओवैसी के बीच हुए शब्दों के इस आदान-प्रदान पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत के तौर पर भी देखा जा रहा है.

दरअसल, पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ने के ओवैसी के बयान से ममता बनर्जी की चिंताएं बढ़ना स्वाभाविक माना जा रहा है क्योंकि एआईएमआईएम ने पिछले एक दशक में हैदराबाद से निकलकर देश के अन्य हिस्सों में भी पैर पसार लिए हैं.और प्रभाव बढ़ाने में अहम भूमिका रही है इसके अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी की जो तेज़ी से युवा मुसलमानों के बीच लोकप्रिय हुए हैं. शायद यही कारण है कि चुनावों में बेशक समय है मगर ममता बनर्जी ओवैसी और उनकी पार्टी को हल्के में नहीं लेना चाहती.असदुद्दीन ओवैसी और उनके भाई अकबरुद्दीन की रैलियों में ख़ूब भीड़ जुटा करती है. इसके इतर भी उनके प्रशंसकों और आलोचकों, दोनों का ही एक बड़ा वर्ग है.असदुद्दीन ओवैसी की ओर से संसद के अंदर, समाचार चैनलों की चर्चाओं में और राजनीतिक रैलियों में दिए गए भाषणों के वीडियो सोशल मीडिया पर भी ख़ूब देखे जाते हैं. फ़ेसबुक पर उनके नाम से कई अनाधिकारिक पेज बने हैं जो उनके भाषणों के वीडियो शेयर करते हैं.

ओवैसी बंधुओं और एआईएमआईएम के नेताओं पर भड़काऊ भाषणों से सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं. मगर पार्टी के समर्थक इसे भारतीय जनता पार्टी और अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों का जवाब देने वाली शक्ति के रूप में देखते हैं.एक पक्ष का कहना है कि वह लोगों की भावनाओं को भड़काते हैं जबकि उनके समर्थकों का कहना है कि वह तार्किक ढंग से मुसलमानों की समस्याओं पर बात करते हैं.हाल के दिनों में अल्पसंख्यकों के मामलों पर जिस तरह से ओवैसी खुलकर बात कर रहे हैं, उससे भी उनकी अलग पहचान बनी है.हाल ही में जब अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट का बहुप्रतीक्षित फ़ैसला आया तो उससे असंतोष जताने वाले शुरुआती लोगों में असदुद्दीन भी थे. उन्होंने कहा था कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरह वो भी इससे संतुष्ट नहीं हैं.

“ओवैसी की लोकप्रियता बढ़ाने का श्रेय टीवी को भी जाता है, जिसके माध्यम से मुसलमान देखते हैं कि असदुद्दीन क्या सोच रखते हैं और उनके मामलों पर पर क्या बात करते हैं.”सदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन जिसे मजलिस भी कहा जाता है, काफ़ी पुराना संगठन है. लगभग 85 साल पहले हैदराबाद में सामाजिक-धार्मिक संस्था के रूप में इसकी शुरुआत हुई थी.1928 में नवाब महमूद नवाज़ खान ने मजलिस स्थापना की थी और 1948 तक उनके पास इस संगठन की बागडोर रही. भारत की स्वतंत्रता के बाद यह संगठन हैदराबाद को स्वतंत्र देश के रूप में बनाए रखने की वकालत करता था.

इसीलिए जब 1948 में हैदराबाद का भारत में विलय हुआ था, तब भारत सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था. उस समय इसके अध्यक्ष रहे क़ासिम राजवी को गिरफ़्तार कर लिया गया था. बाद में राजवी पाकिस्तान चले गए मगर संगठन की ज़िम्मेदारी उस समय के मशहूर वकील अब्दुल वहाद ओवैसी को सौंप गए थे.तबसे, यानी पिछले पांच दशकों से अधिक समय से ओवैसी परिवार ही मजलिस को चला रहा है. 1957 में मजलिस को राजनीतिक पार्टी के तौर पर बहाल किया गया, इसके नाम में ‘ऑल इंडिया’ जोड़ा गया और इसका संविधान भी बदला गया.

अब्दुल वहाद ओवैसी के बाद 1976 में पार्टी की ज़िम्मेदारी उनकी बेटे सलाहुद्दीन ओवैसी को मिली जो साल 2004 तक लगातार छह बार हैदराबाद के सांसद रहे.अब सलाहुद्दीन ओवैसी के बेटे असदुद्दीन ओवैसी पार्टी के अध्यक्ष और हैदराबाद से सांसद हैं और उनके छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी विधानसभा में पार्टी विधायक दल के नेता हैं. तेलंगाना विधानसभा में उनकी पार्टी के सात विधायक हैं.

13 मई 1969 को हैदराबाद में जन्मे असदुद्दीन ओवैसी राजनीति में आने से पहले लंदन से क़ानून की पढ़ाई कर रहे थे. जब वह लौटे तो उनके पिता सलाहुद्दीन ओवैसी पार्टी के अध्यक्ष थे.असदुद्दीन पहली बार 2004 में हैदराबाद से सांसद चुने गए थे. वह 2019 में चौथी बार यहां से सांसद चुने गए हैं. 1984 से लगातार हैदराबाद लोकसभा सीट ओवैसी परिवार के ही सदस्य जीते हैं.

असदुद्दीन ओवैसी जिस तरह से मुस्लिमों की समस्याओं पर राष्ट्रीय स्तर पर संसद के अंदर और बाहर मीडिया में मुखर होकर बोलते रहे हैं, उससे पूरे राज्य और देश में अल्पसंख्यकों को लगा है कि कोई एक ऐसा लीडर है जो हमारी बात कर रहा है.इसका प्रभाव भी हुआ और हैदराबाद से बाहर मजलिस को सफलता मिली महाराष्ट्र में. अभी महाराष्ट्र से एआईएमआईएम का एक सांसद है और हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में उसे दो सीटें मिली हैं. पिछली बार भी विधानसभा चुनाव में उसने दो सीटें जीती थीं. इस बार वहां से हार मिली है मगर दो नई सीटों पर उसके विधायक जीते हैं.बिहार के विधान सभा उप-चुनाव में भी उनकी पार्टी किशनगंज से जीतने में कामयाब हुई है.

2019 लोकसभा चुनाव के दौरान अहम मोड़ तब आया जब मजलिस ने प्रकाश आंबेडर की पार्टी बीबीए के साथ गठजोड़ किया और औरंगाबाद सीट पर जीत हासिल की. इस तरह इस बार लोकसभा में एमआईएम के दो सांसद हैं. एक औरंगाबाद से इम्तियाज़ जलील और दूसरे ओवैसी ख़ुद.मजलिस ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उम्मीदवार उतारे थे मगर उसे वहां सफलता नहीं मिली थी. मगर बिहार के किशनगंज में हुए विधानसभा उपचुनाव के दौरान मजलिस के प्रत्याशी कमरुल होदा ने बीजेपी प्रत्याशी स्वीटी सिंह को 10 हज़ार से अधिक वोटों से हरा दिया. यह कांग्रेस की पारंपरिक सीट थी मगर यहां कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही थी.

ख़ास बात यह है कि किशनगंज बिहार का वह इलाक़ा है जो पश्चिम बंगाल से जुड़ा हुआ है. एआईएमआईएम का इस क्षेत्र में बढ़ता प्रभाव ममता बनर्जी,लालू यादव और नीतीश कुमार की चिंता का कारण है.लेकिन यह पहला मौक़ा नहीं है जब कोई मजलिस को ‘वोट काटने वाली पार्टी’ कह रहा है. ऐसा ही आरोप समाजवादी पार्टी ने तब लगाया था जब ओवैसी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान अपनी पार्टी से उम्मीदवार उतारे थे. महाराष्ट्र में भी कांग्रेस और एनसीपी ऐसा आरोप लगाती रही हैं.बिहार में भी सभी दल इसी तरह के आरोप लगा रहे हैं.लेकिन असदुद्दीन ओवैसी वोट काटने के इस ‘टैग’ को हटाने की कोशिश भी कर रहे हैं. वह कई बार कह चुके हैं कि लोकसभा चुनाव और अन्य राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी के उम्मीदवार नहीं थे, फिर भी बीजेपी विरोधी पार्टियों की हार हुई. इसलिए यह कहना ग़लत है कि एआईएमआईएम के कारण बीजेपी को फ़ायदा पहुंचता है.

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