बिहार के नियोजित शिक्षकों के साथ खड़े हुए कन्हैया, सोशल मीडिया पर किया लंबा-चौड़ा पोस्ट
सिटी पोस्ट लाइवः बिहार के तकरीबन साढ़े 3 लाख नियोजित शिक्षकों ने समान काम समान वेतन को लेकर लंबी लड़ाई लड़ी। पहले पटना हाईकोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया बाद में बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गयी। देश की सर्वोच्च अदालत में भी यह लड़ाई लंबी चली और जब फैसला आया तो बिहार के नियोजित शिक्षक यह लड़ाई हार गये। कोर्ट ने बिहार सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया। नियोजित शिक्षक आंदोलन की तैयारी में हैं और कोर्ट में पुर्नविचार याचिका भी दायर करने वाले हैं। बिहार के नियेजित शिक्षकों को जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार का साथ मिला है।
कन्हैया ने सोशल मीडिया पर एक लंबा चौड़ा पोस्ट बिहार के नियेजित शिक्षकों के पक्ष में लिखा है साथ हीं अपने पोस्ट के जरिए बिहार में शिक्षा और शिक्षकों की बदहाली के लिए उन्होंने बिहार सरकार को जिम्मेवार ठहराया है। कन्हैया ने लिखा है कि-‘ बिहार में हाल ही में दो नियोजित शिक्षकों ने आत्महत्या कर ली। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले के बाद नौकरी के पक्की होने और वेतन बढ़ने की उम्मीद पर पानी फिरने के बाद निराश होकर ऐसा कदम उठाने वाले शिक्षकों की आत्महत्याएँ बहुत बड़े सवाल खड़े करती हैं।
क्या किसानों के बाद शिक्षकों और विद्यार्थियों की आत्महत्या की ऐसी ख़बरें राजनीति और लोकतंत्र की बहुत बड़ी समस्या की ओर इशारा नहीं कर रही हैं?बिहार सरकार अब बचे-खुचे स्थायी शिक्षकों की नौकरी लेकर उनकी जगह भी अस्थायी शिक्षकों को काम पर लगाने की सोच रही है। यह सोच एक ख़ास मानसिकता से पैदा होती है जिसमें शिक्षा, रोज़गार जैसी सबसे अहम चीज़ों को जनता का अधिकार नहीं मानकर बाज़ार का ऐसा माल माना जाता है जिस पर सिर्फ़ अमीरों का अधिकार होता है। सरकार अपनी तमाम ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़कर सब कुछ बाज़ार के हवाले कर रही है।
क्या अस्थायी शिक्षकों की आर्थिक असुरक्षा का शिक्षा पर ख़राब असर नहीं पड़ता है? क्या बदहाल शिक्षकों के देश में ख़ुशहाल लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है? जहाँ ज़रूरत सभी अस्थायी या नियोजित शिक्षकों को पक्की नौकरी देने की थी, वहाँ सरकार उनकी माँगों की अनदेखी करके उन्हें बर्बादी की खाई में धकेल रही है। ’समान काम के लिए समान वेतन’ के सिद्धांत की अनदेखी लोकतंत्र को कमज़ोर बना रही है। यह कहाँ का इंसाफ़ है कि एक ही काम के लिए किसी स्कूल में एक शिक्षक को दूसरे शिक्षक का आधा या उससे भी कम वेतन मिले?क्या आज तक दुनिया का कोई देश अपनी शिक्षा व्यवस्था की दुर्गति करके विकसित या ख़ुशहाल बन पाया है?
जहाँ ज़रूरत शिक्षा पर जीडीपी का 10 प्रतिशत खर्च करने की है, वहाँ उससे हाथ खींचकर उसे उन प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों के हवाले करने की साज़िश रची जा रही है जिनका एकमात्र मकसद मुनाफ़ा कमाना होता है। ज़िम्मेदार नागरिकों का यह कर्तव्य है कि वे किसानों की तरह शिक्षकों की बदहाली के सवाल पर भी आवाज़ उठाएँ। जिन शिक्षकों पर आने वाली पीढ़ियों की दशा-दिशा तय करने की ज़िम्मेदारी होती है, उन्हें पक्की नौकरी या वेतन बढ़ाने जैसी माँगों के लिए आत्महत्या करते देखकर चुप बैठे रहकर हम लोकतंत्र को कमज़ोर ही बनाएँगे।
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