सिटी पोस्ट लाइव :आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आरक्षण को लेकर देश की राजनीति गरमाने लगी है.उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को कहा था कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है. न्यायालय ने तमिलनाडु के मेडिकल कॉलेजों में ओबीसी उम्मीदवारों के लिए कोटा को लेकर दाखिल कई याचिकाओं पर सुनवाई करने हुए यह टिप्पणी की. डीएमके, सीपीआई, एआईएडीएमके समेत तमिलनाडु की कई पार्टियों ने एनईईटी के तहत मेडिकल कॉलेजों में 50 फीसदी ओबीसी आरक्षण के लिए याचिका दायर की थी.
न्यायालय की इस टिप्पणी से एक बार फिर इसे लेकर देश में राजनीतिक और सामाजिक चर्चा शुरू हो गई है. भाजपा ने इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा कि वह आरक्षण के प्रति पूरी तरह कटिबद्ध है. भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने आज कहा, ‘मोदी सरकार और भाजपा आरक्षण के प्रति पूरी तरह कटिबद्ध है. सामाजिक न्याय के प्रति हमारी वचनबद्धता अटूट है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने बार-बार इस संकल्प को दोहराया है. सामाजिक समरसता और सभी को समान अवसर हमारी प्राथमिकता है. मैं स्पष्ट करता हूं, भाजपा आरक्षण व्यवस्था के साथ है.’
आरक्षण राजनीतिक दलों के लिए यह एक संवेदनशील मुद्दा है. भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों को शिक्षा, सरकारी नौकरियों, संसद और विधानसभाओं में न केवल आरक्षण दिया गया बल्कि समान अवसरों की गारंटी भी दी गई. ये आरक्षण या कोटा जाति के आधार पर दिया गया था. साल 1989 में आरक्षण पर तब राजनीति तेज हो गई जब वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को भी आरक्षण देने का फैसला किया.
ओबीसी उन निम्न और मध्यवर्ती जातियों से आते थे, जिन्हें इसलिए पिछड़ा माना जाता था क्योंकि उन्हें समाज में ऊंची जाति वाला दर्जा हासिल नहीं था. जैसे-जैसे लोग पहले से ही कम हो रही सरकारी और विश्वविद्यालयों की नौकरियों में हिस्सेदारी मांगने लगे, वैसे-वैसे जातियों में खुद को पिछड़ा घोषित किए जाने के लिए होड़ लग गई. 1980 में मंडल आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और तत्कालीन कोटा में बदलाव करते हुए इसे 22 फीसदी से बढ़ाकर 49.5 फीसदी करने की सिफारिश की. 2006 तक पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गई.
राजनीतिक दल अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए विभिन्न जातियों को आरक्षण की सूची में जोड़ने की बात करते हैं. लेकिन इसे घटाने या इसकी समीक्षा करने की वकालत नहीं करते हैं. नतीजा यह हुआ कि तमिलनाडु जैसे राज्य में ग़रीब और पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षिक पदों में 69 प्रतिशत आरक्षण है. कई राज्यों में विभिन्न समुदाय अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं और कई बार तो उनका प्रदर्शन हिंसक भी हुआ है. महाराष्ट्र में मराठों, गुजरात में पटेलों, हरियाणा में जाटों और राजस्थान में गूर्जरों ने अपने लिए आरक्षण की मांग करते हुए व्यापक प्रदर्शन किया.
संघ प्रमुख मोहन भागवत कई बार कह चुके हैं कि आरक्षण पर देश में बहस की जरूरत है. पिछले साल तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने एक बार फिर यह बात कहकर भाजपा को बैकफुट पर ला दिया था. महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विधानसभा चुनावों से पहले उन्होंने यह सुझाव दिया था. उन्होंने कहा था कि जो आरक्षण के पक्ष में हैं और जो इसके खिलाफ हैं, उन्हें सौहादर्पूर्ण वातावरण में बैठकर विचार करना चाहिए.
कुछ लोगों का तर्क है कि अब आरक्षण को जाति आधारित नहीं रहने देना चाहिए बल्कि इसे आर्थिक आधार के साथ जोड़ देना चाहिए. जिसमें कुछ जातियों के सम्पन्न लोगों की बजाय सभी जातियों के ग़रीबों को लाभ मिलेगा. मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के लिए आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया है. इससे संबंधित विधेयक को पिछले साल संसद ने मंजूरी दी थी.
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