उमर अब्दुल्लाह और महबूबा मुफ़्ती क्यों लगाया गया पब्लिक सेफ़्टी एक्ट, क्या है कानून?
सिटी पोस्ट लाइव : जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह और महबूबा मुफ़्ती पर पब्लिक सेफ़्टी एक्ट लगाये जाने को लेकर देश की राजनीति गरमाई हुई है. इन दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के अलावा नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के दो बड़े नेताओं पर भी ये सख़्त क़ानून लगाया गया है. महबूबा मुफ़्ती की बेटी इल्तिज़ा मुफ़्ती ने ट्विटर पर इस बारे में जानकारी देते हुए लिखा है कि उनकी मां पर बीती रात 9.30 बजे ये क़ानून लगाया गया.
इल्तिज़ा ने लिखा, “जब मैं छोटी थी मैंने अपनी मां को अवैध रूप से गिरफ़्तार किए गए नौजवानों को छुड़ाने के लिए मशक्कत करते हुए देखा. अब मुझे ये संघर्ष करना पड़ रहा है. ज़िंदगी फिर वहीं आ गई है.”एक दूसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा बीजेपी के मंत्री मुसलमानों के खिलाफ़ भाषणों में आग उगल रहे हैं और सम्मानित हो रहे है. दूसरी तरफ जम्मू कश्मीर के तीन मुख्यमंत्री पिछले 6 महीने से जेल में हैं जो भारत का इकलौता मुस्लिम बहुल राज्य है. आप क्रोनोलॉजी समझिए.
नेशनल कॉन्फ्रेंस के महासचिव अली मोहम्मद सागर और पीडीपी के महासचिव सरताज मदनी पर भी ये क़ानून लगाया गया है.कांग्रेस नेता पी चिदांबरम ने ट्विटर पर लिखा, ” उमर अब्दुल्लाह, महबूबा मुफ़्ती और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ पब्लिक सेफ़्टी एक्ट के क्रूर आह्वान से हैरान और परेशान हूं.”
सरकार के इस क़दम को लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार के भाषण से जोड़ कर देख रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में कहा, “महबूबा मुफ़्ती ने पाँच अगस्त को कहा था कि भारत ने कश्मीर के साथ धोखा किया. हमने जिस देश के साथ रहने का फ़ैसला किया था, उसने हमें धोखा दिया है. ऐसा लगता है कि हमने 1947 में ग़लत चुनाव कर लिया था. क्या ये संविधान को मानने वाले लोग इस प्रकार की भाषा को स्वीकार कर सकते हैं?”
उन्होंने आगे कहा, “उमर अब्दुल्लाह ने कहा था कि 370 को हटाने से ऐसा भूकंप आएगा कि कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा. फ़ारूक़ अब्दुल्लाह जी ने कहा कि 370 को हटाए जाने से कश्मीर की आज़ादी का रास्ता साफ़ होगा. अगर 370 हटाया गया तो भारत का झंडा लहराने के लिए कश्मीर में कोई नहीं बचेगा. क्या भारत का संविधान मानने वाला ऐसी बात स्वीकार कर सकता है क्या?”
पब्लिक सेफ़्टी एक्ट किसी व्यक्ति को सुरक्षा के लिहाज़ से ख़तरा मानते हुए एहतियातन हिरासत में लेने का अधिकार देता है.राज्य की सुरक्षा और क़ानून व्यवस्था के लिए ख़तरा समझते हुए किसी महिला या पुरुष को इस क़ानून के तहत हिरासत में लिया जा सकता है. यह राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के समान है जिसे सरकारें एहतियातन हिरासत में लेने के लिए इस्तेमाल करती रही हैं. लेकिन जैसा कि इसकी परिभाषा से स्पष्ट है हिरासत में लेना सुरक्षात्मक (निवारक) क़दम है न कि दंडात्मक. पब्लिक सेफ़्टी एक्ट बिना किसी ट्रायल के किसी व्यक्ति को दो साल हिरासत में रखने की इजाज़त देता है.इसे डिविजनल कमिश्नर या ज़िलाधिकारी के प्रशासनिक आदेश पर ही अमल में लाया जा सकता है न कि पुलिस से आदेश पर.
पब्लिक सेफ़्टी एक्ट में हिरासत में लिए गए दोनों के पास एडवाइज़री बोर्ड के पास जाने का अधिकार भी है और उसे (बोर्ड को) आठ हफ़्तों के भीतर इस पर रिपोर्ट सौंपनी होगी. इस क़ानून के तहत किसी स्थान पर जाने पर रोक लगाई जा सकती है. सरकार आदेश पारित कर किसी स्थान पर लोगों के जाने पर रोक लगा सकती है.ऐसे किसी व्यक्ति को इस क़ानून के तहत दो महीने तक की अवधि के लिए गिरफ़्तार किया जा सकता है. साथ ही उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है. अगर वह व्यक्ति ऐसे किसी जगह पर वहां तैनात सुरक्षाकर्मी को झांसा देकर घुसता है तो उसे अधिकतम तीन महीने तक की सज़ा दी जा सकती है.
जम्मू-कश्मीर में इस अधिनियम को 8 अप्रैल 1978 को लागू किया गया था. तब राज्य के मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्लाह के पिता शेख अब्दुल्लाह थे. उन्होंने इसे विधानसभा में पारित कराया था. इसके तहत 18 साल से अधिक उम्र के किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लिया जा सकता है और उस पर बिना कोई मुक़दमा चलाए उसे दो साल तक हिरासत में रखा जा सकता है.पहले यह उम्र सीमा 16 साल थी, जिसे 2012 में संशोधित कर 18 वर्ष कर दिया गया. 2018 में यह भी संशोधन किया गया कि जम्मू-कश्मीर के बाहर के भी किसी व्यक्ति को पब्लिक सेफ़्टी एक्ट के तहत हिरासत में लिया जा सकता है
जब यह क़ानून लागू किया गया तो इसका मक़सद था लकड़ी की तस्करी रोकना. लेकिन बाद में इसका बहुत दुरुपयोग हुआ और इसका राजनीतिक कारणों से इस्तेमाल किया जाने लगा.लकड़ी की तस्करी को रोकने के लिए ‘लकड़ी की तस्करी’ या ‘लकड़ी की तस्करी के लिए उकसाने’ या ‘तस्करी की लकड़ी की ढुलाई’ या ‘तस्करी की लकड़ी को रखना’ गुनाह माना गया है.
इस क़ानून की धारा 23 के तहत इस अधिनियम में बीच-बीच में बदलाव किए जाने का प्रावधान भी है. राज्य में अलगाववादी और चरमपंथी घटनाओं को रोकने को लेकर इस क़ानून का बहुतायत में इस्तेमाल किया जाता रहा है.2016 में चरमपंथी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत के बाद घाटी के सैकड़ों लोगों को इसी क़ानून के तहत हिरासत में लिया गया था.मानवाधिकारों की रक्षा से जुड़े संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने 2012 और 2018 के बीच 200 मामलों का अध्ययन किया.
इस अध्ययन के मुताबिक़, तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने विधानसभा में यह कहा था कि 2016-2017 में पीएसए के तहत 2,400 लोगों को हिरासत में लिया गया. हालांकि इनमें से 58 फ़ीसदी मामलों को कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया.साल 2019 में 5 अगस्त को इसी क़ानून के तहत फारूक अब्दुल्लाह को हिरासत में लिया गया था.
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