क्यों जरुरी है NDA के लिए पासवान का चिराग, जानिए क्यों झुक गए अमित शाह?
सिटी पोस्ट लाइव : पिछले विधान सभा चुनाव के बाद ही NDA में बिखराव की नींव पड़ गई थी. सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी NDA से बाहर हुए.अब उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा भी निकल चुकी है.कमजोर पड़ते NDA और मजबूत होते महागठबंधन को देखकर एलजेपी सुप्रीमो रामविलास पासवान लोजपा दुविधा में फंसे थे. जीतन राम मांझी को और उपेन्द्र कुशवाहा को तो BJP ने नजर-अंदाज कर दिया लेकिन LJP की क्यों नहीं कर पाई बीजेपी उपेक्षा. LJP को मनाने में BJP के सारे बड़े नेता जुट गए. फटाफट फार्मूला बन गया .पासवान की सारी मांगें मान ली गईं .उन्हें राज्य सभा से भेजे जाने का आश्वासन मिला और बिहार में 5 और उत्तर-प्रदेश में 6 सीटें देने को BJP तुरत तैयार हो गई.
दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव का मोदी मैजिक 17 महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में कहीं नजर नहीं आया.BJP को अपनी गलती का अहसाश हुआ कि बिहार में नीतीश कुमार के वगैर सत्ता पर काबिज होना नामुमकिन है.विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद ही नीतीश से दोस्ती की संभावना की तलाश शुरू हो गई.नीतीश कुमार भी RJD के साथ असहज मह्सुश कर रहे थे. फिर क्या था BJP ने उनकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया. फिर दोनों साथ आ गए. फिर सरकार भी बन गई.
लेकिन मांझी को जब गवर्नर या फिर राज्यसभा भेजने का वायदा BJP ने पूरा नहीं किया तो मांझी ने अपने बेटे को एनडीए कोटे से विधान परिषद तक पहुंचाने की मांग कर दी.जब इतनी छोटी मांग भी पूरी नहीं हुई तो मांझी समझ गए अब BJP को उनकी दरकार नहीं है. रालोसपा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. विधानसभा चुनाव में उसके हिस्से की जहानाबाद सीट उप चुनाव में JDU के खाते में चली गई.BJP ने मांझी के बाद उपेन्द्र कुशवाहा को भी बाहर निकल जाने का संकेत दे दिया. मांझी जल्दी समझ गए और निकल लिए लेकिन उपेन्द्र कुशवाहा इसे नीतीश कुमार की चाल समझते रहे और BJP का दावं समझ ही नहीं पाए.
मांझी-कुशवाहा दोनों को नीतीश कुमार ने ही राजनीति में आगे बढ़ाया. लेकिन आज की तारीख में दोनों के जानी दुश्मन नीतीश कुमार ही हैं और नीतीश कुमार के रास्ते के रोड़े उपेन्द्र कुशवाहा और मांझी हैं. लेकिन LJP सुप्रीमो रामविलास पासवान और नीतीश कुमार के बीच प्रेम और घृणा का रिश्ता नहीं है. दोनों के बीच बराबरी का रिश्ता है.दोनों एक दुसरे को बहुत पसंद करते हैं. उनके भाई को पशुपति कुमार पारस को मंत्री बनाया गया. विधान परिषद में नामित किया गया.वैसे भी मांझी और कुशवाहा पासवान के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते.पासवान हमेशा बिहार की चुनावी राजनीति के लिए अपरिहार्य रहे हैं.अपने समाज का वोट ट्रांसफर कराने का उनमे दमखम है. 2005 के फरवरी वाले विधानसभा चुनाव में LJP को 12. 62 फीसद वोट मिला.
अक्टूबर में LJP अकेले लड़ी. फिर भी उसे 11.10 फीसदी वोट मिला. 2010 के विधानसभा चुनाव में LJP महा-गठबंधन में शामिल थी. उसका वोट 6.75 फीसदी पर आ गया.जाहिर है LJP को भी महागठबंधन से ज्यादा NDA शूट करता है. BJP कभी नहीं चाहेगी कि LJP उससे अलग हो.चुनाव के समय सत्ता विरोधी रूझान से होने वाली संभावित क्षति की भरपाई LJP ही कर सकती है. 5 से 10 फीसदी वोट ट्रांसफर कराने की LJP की क्षमता किसी गठबंधन के लिए संजीवनी का काम कर सकती है. महागठबंधन भी पासवान की इस क्षमता से परिचित है इसलिए लालू यादव ने वगैर देर किये पासवान को लोकसभा भेंजने के साथ साथ 6 सीट का ऑफर दे दिया था. अब BJP ने पासवान को लोक सभा की बिहार में पांच, उत्तर-प्रदेश में 1 सीट के साथ साथ राज्यसभा की एक सीट देने का फैसला ले लिया है.
पासवान की राजनीतिक ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी पासवान से मिलने पैदल ही 12 जनपथ पहुंच गईं थीं. हालांकि 10 और 12 जनपथ के बीच सिर्फ एक दीवार का ही फासला है.लेकिन यह फासला भी सोनिया गांधी और दुसरे दलों के नेताओं के लिए बहुत है.
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