विशेष सम्पादकीय : ‘स्त्री-विमर्श’ : औरत अपने साथ पुरुष की मुक्ति का संघर्ष कर रही है
देश की वर्तमान ‘राजनीति’ में पुरुष अहमन्यता हावी है। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों की राजनीति में महिला चिंतन ‘एक ही सिक्के के दो पहलू’ जैसा है। एक पक्ष द्रौपदी को जुए में दांव पर लगाता दिखता है और दूसरा पक्ष चीरहरण करता नजर आता है।भारत की आधी आबादी के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों में यह सवाल बरसों से काफी महत्वपूर्ण रहा है कि क्या कोई ‘देवी’ सत्ता या सत्ता से अलग किसी तरह की राजनीति में सहज नारी रूप से शामिल हो सकती है और शामिल रह सकती है? ऐसे कितने पुरुष हैं जो किसी ‘पद’ में न रहते या ‘पद’ से उतरने के बाद भी उस देवी के नेतृत्व को स्वीकार करते हैं? पुरुष किसी नारी को देवी और देवी को ‘नेता’ बनाता है, लेकिन ‘नेतृत्व’ नहीं सौंपता! किसी ‘देवी’ का राजनीति में रहना और नहीं रहना दोनों एक ही पहलू की ओर इशारा करते हैं कि यहां औरत को पुरुष की कृपा अथवा एहसान के एवज में इस्तेमाल होने के लिए तैयार होने पर राजनीति में जगह मिलती है।
भारत की महिला आबादी की वर्तमान गति-प्रगति की स्थिति से यह तथ्य प्रगट होता है कि महिलाओं के प्रति समाज और सत्ता के ‘पुरुष मूल्य’ में कोई परिवर्तन लाने या प्रायश्चित करने की इच्छा के बगैर यह अपेक्षा की जा रही है कि अब महिला उत्पीड़न में कमी आ जाएगी, लिंग भेद के नाम पर शोषण और प्रताड़ना कम हो जाएगी, शिक्षा और रोजगार में महिलाओं को बराबर के अवसर मिलने लगेंगे और उनकी इज्जत-आबरू बची रहेगी! लेकिन आज की कई घटनाएं महिलाओं के अस्तित्व और अस्मिता के प्रति समाज, सरकार, सत्ता-राजनीति में पक्ष-विपक्ष, सबके ‘पुरुष-चिंतन’ को अक्सर नंगा कर जाती हैं।
भविष्य की चुनौतियों के संदर्भ में वर्तमान की इस हकीकत को स्वीकार करना होगा कि देश की आधी आबादी औरत होने के नाते औरत पर होने वाले शोषण-अत्याचार और कायम ‘गैरबराबरी’ की स्थितियों को समझते हुए जग रही है, संघर्ष कर रही है और अपनी मुक्ति के रास्ते तलाश रही है। वह समाज से मुक्ति नहीं, बल्कि समाज में मुक्ति के मार्ग खोज रही है। वह अपने संघर्षों के जरिये, पूरे समाज की मुक्ति के भी नये रास्ते गढ़ रही है। वह इस इंसानी बोध को निरंतर मुखर कर रही है कि औरत की मुक्ति के लिए पुरुष को अपनी उस ‘गुलामी’ से छुटकारा पाना होगा, जिसे उसने अपनी आज़ादी के नाम पर खुद रच रखा है। इस मायने में औरत अपने साथ पुरुष की मुक्ति का भी संघर्ष कर रही है। देश में जारी विविध आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक संघर्षों में औरत की भागीदारी इसका प्रमाण है।
दोहरा शोषण
आज भी भारतीय समाज में औरत दोहरे शोषण की शिकार है। पहला – आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक सभी स्तरों पर शोषण। इसमें मर्द के साथ औरत भी पिस रही है। विकास, बदलाव, आधुनिकता और उदारीकरण के इस दौर में इस शोषण की रफ़्तार और तेज हो रही है। दूसरा यह कि आज भी समाज में औरत औरत होने के नाते शोषण की शिकार है। खासकर उस समाज में, जहां विकास के मामलों में परम्परा और आधुनिकता के बीच ‘टक्कर’ है। क्योंकि औरत के मामले में परम्परा और आधुनिकता एक दूसरे से ‘गले मिलते’ नजर आते हैं।
आज भी देश में कई सामाजिक नियम प्रचलित हैं। उनमें से कुछ घिस चुके हैं। कई की उपयोगिता पर सवालिया निशान लग चुका है। कई नियम औरत के शोषण के हथियार के रूप में रेखांकित हो चुके हैं। कई नियम ऐसे हैं जो बदलाव की आंधी में तिनकों की तरह उड़ते नजर आ रहे हैं। इसके बावजूद शोषण-अन्याय कायम है। कई नियम हमारी शासन-व्यवस्था और सत्ता संचालन के अंग बनकर चेहरा बदल चुके हैं। और, उनको लेकर पूरा समाज बंटा हुआ है।
इसके रू-ब-रू देश में हर क्षेत्र में औरतें जिस पैमाने पर अपनी क्षमता, दक्षता और प्रतिभा का प्रदर्शन कर रही हैं, उससे यह एहसास पुख्ता होता है कि उक्त सारे नियमों पर आज प्रश्नचिन्ह लग चुका है। लेकिन जो व्यवस्था चल रही है और जो प्रवृत्तियां समाज पर हावी हैं, वे उन नियमों को ही पुष्ट कर रही हैं।
आम तौर पर लोग कहते हैं कि यह पुराने जमाने की बात हो गयी, जब मर्द और औरत की प्राकृतिक बनावट में फर्क को शोषण-दमन का आधार बनाया जाता था। प्रकृति ने औरत और मर्द की शारीरिक बनावट में फर्क किया। यह फर्क सृजन और समाज के विकास का आधार बना। और, पुरुष समाज ने उस फर्क को ‘अधिकारों में फर्क’ का आधार बना दिया। यूं हर समाज में मर्द और मर्द के बीच की शारीरिक बनावट में भी फर्क होता है। कोई मर्द शरीर से कमजोर होता है और कोई मजबूत, लेकिन संघर्ष और विकास के दौर में समाज ने मर्द और मर्द के बीच के प्राकृतिक अंतर से किसी मर्द पर अत्याचार करने की हर व्यवस्था को चुनौती दी। उसे अमान्य किया। लेकिन सभ्यता के विकास के साथ औरत के शोषण और अत्याचार के जो नियम-कानून बने, उनकी बुनियाद में औरत और मर्द के बीच का प्राकृतिक फर्क प्रमुख कारण बना रहा। क्या उन नियम-कानूनों में फर्क आया है? क्या महिलाओं के साथ होने वाली घटनाओं पर व्यक्त प्रतिक्रियाएं या समाज-सत्ता की ओर से की जानेवाली कार्रवाइयों के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि निहित सोच में बदलाव आ गया?
संदेश बनाम साजिश
पिछले कुछ सालों में देश के बिहार जैसे पिछड़े प्रदेशों में लड़कियों की पढ़ाई को लेकर अद्भुत चेतना का विकास हुआ है। जिस बिहार में 56 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीती है, वही अब लड़कियों की ऊंची पढ़ाई पढ़ाना चाहती है। इसके लिए वह ‘पेट काट’ कर भी अपनी बच्चियों को घर से बाहर भेजने को तैयार है। लेकिन लड़कियों से जुड़ी किसी भी घटना को ‘स्कैंडल’ के रूप में पेश कर इस संदेश की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। उल्टे यह भी होता है कि संदेश को साजिश के रूप में पेश किया जाता है। गैया-बकरी चरती जाये, मुन्नी बिटिया पढ़ती जाये’ का राग अलापने वाला पिछ्ला शासन तो गाफिल था ही, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ का फतवा देने वाला वर्तमान शासन-प्रशासन का भी यही हाल है।
वस्तुतः देश की औरतें अब रक्षिता होने की अवधारणा को चुनौती देने लगी हैं। अतीत में समाज ने ऐसे नियम बनाये कि औरत मात्र ‘संरक्षिता’ बनी रहे। वह हर वक्त इस एहसास से चालित रहे कि उसे हर स्तर पर पुरुष का संरक्षण चाहिए। औरत के लिए समाज में काम करने से लेकर सोचने तक की ऐसी सीमाएं बंधी कि लगातार उन स्थितियों में जीते-जीते रक्षिता होना औरत का संस्कार बन गया। आजन्म रक्षिता बनकर जीने की विवशता का मतलब है निर्बल होते जाना और अंततः गुलामी को स्वीकार कर लेना।
इतिहास बताता है कि औरत रक्षिता होकर पुरुष की दासी बन गयी। दास प्रथा तभी चल सकती है जब उसमें खरीद-बिक्री की गुंजाइश हो। पहले औरत के साथ-साथ मर्द भी बिकते थे। मर्द की खरीद-बिक्री का आधार यह हुआ करता था कि वह कितना श्रम कर सकता है या फिर राजा या सरदार के मनोरंजन के लिए मल्ल युद्ध में कितना उपयोगी हो सकता है। औेरत के लिए? वह भी शरीर श्रम करे, लेकिन उससे ज्यादा वह पुरुष-भोग के लिए अपना शरीर समर्पित करे। खरीद-बिक्री का सामान बनकर औरत भोग्या बन गयी। भोग-उपभोग के आधार पर जमीन-मकान की तरह औरत की कीमत लगने लगी। जमीन-मकान की कीमत होती है, इसलिए उन्हें मालिक की सम्पत्ति कहते हैं। वस्तु बनकर औरत भी मर्द की सम्पत्ति बन गयी। जिसके पास अधिक सम्पत्ति होती है, वह धनवान कहलाता है। सम्पत्ति छिनती है तो उसके उपभोग का अधिकार छिनता है और अधिकार छिनने का मतलब है कि उपभोक्ता की इज्जत गयी। औरत भी पुरुष की सम्पत्ति और भोग का सामान बन कर उसकी इज्जत का पैमाना बन गयी।
आज लोकतंत्र है। सभ्यता, संघर्ष और विकास के लम्बे दौर में यह तो दिखता है कि व्यवस्था बदली है। इसकी बदौलत औरत समाज में भी बदलाव आया है। अब ऐसी औरतों की संख्या लाखों में है जो अपना भविष्य अपने हाथों गढ़ रही हैं। वे पुरुष पर निर्भर नहीं हैं। लेकिन क्या औरत के प्रति समाज के नजरिये में परिवर्त्तन हुआ है?
हां, यह तो दिख रहा है कि समाज में औरतों के प्रति उदार रुख रखनेवाले पुरुषों की संख्या भी बढ़ी है। लेकिन साफ तौर से नजर आने वाला एक नतीजा यह है कि ऐसे पुरुष औरतों की ‘विशेष’ चिंता करते हैं। यह चिंता वाजिब भी लगती है। लेकिन वे उनको सुरक्षा देने के फेर में उन्हें साहसी नहीं बनाते। उल्टे उन्हें तरह-तरह के नियमों से जकड़ देते हैं। यूं समाज में अब लड़की के पैदा होते ही उसे मार देने या उसे कुपोषण का शिकार बनाने की पुरानी प्रथाएं लगभग समाप्त हो गयीं हैं, लेकिन इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि समाज में आज भी अधिसंख्य लड़कियां और औरतें अपने अधिकार और दायित्व घर-परिवार की चारदीवारी के अंदर ही खोजने-पाने को विवश हैं।
यौनशुचिता
यह तो कदम-कदम पर अनुभव किया जा सकता है कि समाज में आज भी रिश्तों की अहमियत है। यह हमारे देश-समाज की विशेषता है। लेकिन इसका उल्टा पक्ष यह भी है कि यहां औरत की पहचान किसी न किसी रिश्ते में ही सीमित है। यहां रिश्तों के बाहर औरत की पहचान नहीं बन पा रही। यानी औरत, मां, पत्नी, बहन या बेटी आदि रिश्तों में अपनी पहचान, उपयोगिता और दायित्व खोज सकती है। वह मर्द की तरह शिक्षिका, डाक्टर, इंजीनियर और लेखक बन रही है, लेकिन उसका वह रूप उसके ‘मुकम्मिल’ औरत होने या हो सकने की ताकत नहीं बन पा रहा है। शिक्षिका या इंजीनियर या लेखक बनी औरत को आज भी अपनी पहचान के लिए बताना होता है कि वह अमुक की पत्नी है या फलाने की बहन है। अन्यथा उसकी पहचान तो क्या सम्मान और जान भी खतरे में पड़ जाती है।
औरत की पहचान और प्रतिष्ठा के लिए बड़ा सवाल उसकी यौनशुचिता से जुड़ा हुआ है। अगर किसी परिस्थति या घटना की वजह से औरत यौनशुचिता कायम रखने में असमर्थ हुई तो वही सबसे पहले तिरस्कृत होती है। विभिन्न घटनाओं की बाबत पुरुषसत्तात्मक प्रभु वर्ग उस आदिम राग को पुनः-पुनः मुखर करता रहता है कि औरत से संबद्ध कोई घटना औरत की सहमति के बिना संभव नहीं है। औरत की इज्जत का पैमाना उसका शरीर है। शरीर की सीमाओं में ही उसकी सारी इज्जत, पवित्रता और नैतिकता सिमटी हुई है। एक तरफ वह पुरुष के लिए भोग की वस्तु बनने की विवश है और दूसरी तरफ इज्जत का पैमाना यह है कि वह अपने शरीर को पुरुष की उस लोलुपता से बचाये, जिस पर कोई प्रतिबंध नहीं है। संविधान और कानून में ऐसे प्रतिबंध हैं भी तो उन पर अमल संभव नहीं, क्योंकि समाज में आज भी उन्हीं परम्पराओं और प्रक्रियाओं का वर्चस्व है जिनमें पुरुष पर प्रतिबंध को गैरजरूरी माना जाता है! क्रमशः जारी
श्रीकांत प्रत्यूष
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