हाशिये पर लुढ़की है सवर्ण राजनीति, देश के उद्धार के लिए मजबूत सवर्ण राजनीति की है जरूरत
सिटी पोस्ट लाइव “विशेष” : आजादी के बाद निर्मित भारतीय सविधान में दूरदर्शी और पारदर्शी सोच का अभाव रहा। देश के गणतंत्र होने के बाद संविधान की व्यापकता और उसके महात्म से ईतर राजनीति की शुरुआत हुई। देश में कांग्रेस के शासन से भारतीय राजनीति की शुरुआत हुई। आजादी से पहले अंग्रेजी हुकूमत की “बी” पार्टी के तौर पर काम करने वाली कांग्रेस को देश के गरीब, दलित और पिछड़े के उत्थान के प्रति समर्पण का नितांत अभाव रहा। एक तो संविधान में लोकसभा और विधानसभा जाने वाले लोगों की योग्यता तय नहीं की गई, जो हिंदुस्तान के अभ्युदय के लिए ग्रहण और काल साबित हुआ। शुरुआती शासन काल में ही गरीबी हटाने के लिए बनाई गई योजनाएं और तमाम नीतियां जमीनी सच्चाई से बिल्कुल परे थी। संविधान में आरक्षण की व्यवस्था,निसन्देह एक आवश्यक कदम था।
समाज में समानता लाने के लिए और हकमारी के शिकार लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए विराट संकल्प की जरूरत थी। लेकिन आरक्षण का लाभ जिन तबकों के लिए तय किये गए थे, उन्हें संविधान द्वारा तय दस वर्ष की सीमा में महज आंशिक रूप से लाभान्वित किया जा सका। फिर राजनीति ने अपना शक्ल बदला और वह घाघनीति हो गयी और वोटगिरी के चक्कर में नेताओं ने आरक्षण को संविधान की अहर्ताओं के खिलाफ दलीय फायदे के लिए इस्तेमाल शुरू कर दिए। गणतंत्र के करीब सात दशक होने वाले हैं और इस दौरान जिन तबकों को हर दृष्टिकोण से समृद्ध करना था, उन तबकों के अधिकांश लोग आज भी हासिये पर हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इस वर्ग से आने वाले राजनेताओं और सभी दर्जे की सरकारी नौकरी में आने वालों ने उस तबके को ऊपर उठाने का ख्याल छोड़ दिया, जो उनकी पहली जिम्मेवारी थी। ये सभी मिलकर बस अपने रिश्तेदारों तक सिमट गए, या फिर उनके लिए कुछ किया जिन्होंने मोटी रकम का नजराना उन्हें सौंपा।
आज दलित, पिछड़े के नेता करोड़ों की संपत्ति के स्वामी हैं। यही हाल सरकारी नौकरी पाने वालों का भी है। किसी एक ने भी ईमानदारी से इन तबकों के हितार्थ कोई बड़े काम नहीं किये। एक समृद्ध दलित और पिछड़ा इतना अलमस्त हो गया है कि उसे अपने समाज के उत्थान की चिंता ही नहीं है। उन्हें अपने समाज को बरगला के बस वोट लेने की फिक्र है। हमने इस मसले पर गम्भीर शोध किये हैं। हम बेहद खुले सफे और ताल ठोंककर यह मुनादी करते हैं कि जबतक इस देश में सवर्णों का साम्राज्य यानि सरकार नहीं होगी, तभी तक दलित और पिछड़े की वाजिब पीड़ा को नहीं समझा जा सकेगा। अभी देश को क्षत्रिय, ब्राह्मण, भूमिहार और कायस्थ की राजनीति की जरूरत है। सवर्ण जब सत्तासीन होंगे, तो वे अपना घर नहीं भरेंगे बल्कि अपनी विशिष्ट सोच से समाज में एक मजबूत धरा से समानता की नई ईबारत लिखेंगे।
सवर्णों की यह जिम्मेवारी होगी कि वह दलित और पिछड़ों को समाज की मुख्यधारा में शीघ्रता से लाएं। पूरे देश की नजर सवर्ण सरकार के हर कृत्य पर होगी। आज दलित और पिछड़ों की वकालत करने वाले धनाढ्य नेता और नौकरशाह सिर्फ राजनीति की जगह और क्या कर रहे हैं? आजतक उनके कार्यों की समीक्षा क्यों नहीं की गई? दलित और पिछड़ा होने के नाम पर घर में शाही खजाना रखने वाले नेताओं और नौकरशाहों के काम पर आजतक किसी की नजर नहीं गयी है। किसी संगठन या स्वतंत्र एजेंसी से इन लोगों के कृत्यों और दलित सहित पिछड़े समाज के लिए उनके द्वारा किए गए उत्थान के कामों का मूल्यांकन कराया जाएगा, तो लगभग सभी की भूमिका सिफर निकलेगी। आखिर में हम यही कहेंगे कि देश में मुखर सवर्ण नेताओं का टोंटा है। अब सिर्फ मुखर सवर्ण नेता से इस देश का भला नहीं होगा बल्कि देश में सवर्ण सरकार ही समानता की राह आसान कर सकती है।
पीटीएन न्यूज मीडिया ग्रुप से सीनियर एडिटर मुकेश कुमार सिंह की “विशेष” रिपोर्ट
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