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अरविंद केजरीवाल और पीएम मोदी के बीच पक रही है कैसी खिचड़ी?

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अरविंद केजरीवाल और पीएम मोदी के बीच पक रही है कैसी खिचड़ी?

सिटी पोस्ट लाइव : केजरीवाल की राजनीति बीजेपी-कांग्रेस विरोध पर अबतक टिकी रही है.केजरीवाल मोदी सरकार का विरोध का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते. जब से वो सत्ता में आये हैं, लगातार मोदी सरकार से लड़ते रहे हैं. लेकिन ठीक विधान सभा चुनाव के पहले केजरीवाल ये संकेत खुद दे रहे हैं कि उनकी मोदी के साथ सुलह हो गई है. राजनीतिक गलियारों में भी केजरीवाल के मोदी के प्रति विनम्र होने की चर्चा है. आखिर विधानसभा चुनाव के करीब आते-आते मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी बदले-बदले से नज़र आ रहे हैं.

बीते दिनों दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल अपने डिप्टी मनीष सिसोदिया के साथ पीएम आवास पहुंचे.समय लिया था केवल 10 मिनट का लेकिन बातचीत शुरू हुई तो ख़त्म हुई 30 मिनट बाद.  ऐसा कहा जा रहा है कि वह दिल्ली की कानून-व्यवस्था में सुधार से लेकर पानी समेत विकास कार्यों की योजनाओं को पूरा करने के लिए केंद्र के साथ मिलकर काम करने को तैयार हैं. केजरीवाल की कोशिश है कि दिल्ली की भलाई के कामों में केंद्र और दिल्ली सरकार का टकराव कोई अड़चन न बनें. जाहिर है विधानसभा चुनाव के करीब आते-आते मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी बदले-बदले से नज़र आ रहे हैं.

आजकल केजरीवाल मोदी के खिलाफ कुछ भी नहीं बोल रहे हैं. हाल के दिनों में उन्होंने अपने भाषणों में कहीं भी पीएम मोदी के खिलाफ कुछ नहीं कहा. वो  केंद्र सरकार की आलोचना करने से भी बच रहे हैं. जबकि, चुनाव परिणाम आने के पहले तक केजरीवाल पीएम मोदी और केंद्र को किसी न किसी मुद्दे को लेकर घेरने की कोशिश करते रहे.

इस ‘सुलह’  का असर केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के कामकाज पर भी दिख रही है. केंद्र सरकार राज्य सरकार के किसी कामकाज में बाधा नहीं डाल रही है. अब मोदी सरकार के मंत्री केजरीवाल सरकार के कामकाज में दखल देने का बहाना नहीं खोज रहे हैं.अब  केंद्रीय मंत्री आम आदमी पार्टी के नेताओं और उनके प्रतिनिधियों से मीटिंग करने से नहीं कतरा रहे हैं.जाहिर है हाल के दिनों में केजरीवाल सरकार के प्रति मोदी सरकार का रवैया बदला है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पीएम मोदी बदल गए हैं? या फिर अरविंद केजरीवाल ने ही मौजूदा राजनीतिक हालात से समझौता कर लिया है?

अतीत की बात करें, तो केजरीवाल के मोदी के साथ कभी अच्छे रिश्ते नहीं रहे. राजनीति में अरविंद केजरीवाल की एंट्री साल 2013 में जनलोकपाल आंदोलन के बाद हुई. आम आदमी पार्टी बनाने से पहले केजरीवाल सिविल राइट्स एक्टिविस्ट के तौर पर जाने जाते थे. समाजसेवी अन्ना हजारे और केजरीवाल के नेतृत्व में 2013 में हुई भ्रष्टाचार मुक्त आंदोलन ने मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस पार्टी को हिला कर रख दिया था.इसी दौरान नरेंद्र मोदी बीजेपी के प्रधानमंत्री चेहरे के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में एंट्री की कोशिश कर रहे थे. मोदी की पहली प्राथमिकता गुजरात चुनाव में जीत हासिल करना था, जो कि उन्होंने दिसंबर 2012 में हासिल कर भी लिया था. अब मोदी राष्ट्रीय राजनीति की तरफ रुख कर चुके थे, तभी अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाई. बेशक केजरीवाल ने इसकी शुरुआत दिल्ली से की, लेकिन हर कोई उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं से वाकिफ था.

शुरुआत में तो आम आदमी पार्टी को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया. लेकिन जब दिल्ली चुनाव में इस पार्टी ने 28 सीटें जीत लीं, तो केजरीवाल एक बड़े और दूरदर्शी नेता के रूप में पहचाने जाने लगे. दिल्ली में ये सब 2014 के लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले हुआ था.

 मोदी जानते थे कि अगर केजरीवाल ने बिना राजनीतिक बैकग्राउंड के दिल्ली में जादू कर दिखाया, तो वह राष्ट्रीय राजनीति में उनके संभावनाओं को भी प्रभावित करने की माद्दा रखते हैं.लेकिन जब सारा देश केजरीवाल की ओर उम्मीद से देख रहा था, तभी बिना किसी तर्कसंगत कारणों के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की बड़ी राजनीतिक गलती कर दी. बीजेपी ने भी इसे खूब भुनाया और केजरीवाल पर ‘भगोड़ा’ होने का लेवल सा लग गया.कुछ दिनों बाद केजरीवाल ने दूसरी बड़ी गलती की. उन्होंने वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया. यह वह समय था जब उन्हें मोदी के साथ-साथ वैकल्पिक राजनीति के विकल्प के रूप में देखा गया था. लोग कहने लगे थे कि केजरीवाल बहुत महत्वाकांक्षी हैं. वह सीएम नहीं बने रहना चाहते, बल्कि पीएम बनना चाहते हैं. वहीं, केजरीवाल के बारे में कुछ राजनीतिक पंडितों का मानना था कि वह या तो बेहद मासूम हैं या फिर अधीर और अपरिपक्व.

 केजरीवाल दोबारा दिल्ली की सत्ता में आए और फिर शुरू हुई उपराज्यपाल के साथ उनकी अधिकारों की लड़ाई. केजरीवाल के एलजी नजीब जंग और फिर अनिल बैजल के साथ मदभेद कोर्ट तक पहुंचे. दिल्ली पुलिस कमिश्नर बीएस बस्सी के साथ हुआ विवाद भी चर्चा में रहा. इसी दौरान आम आदमी पार्टी और इसके नेताओं को इनकम टैक्स डिपार्टमेंट का नोटिस आने लगा. आए दिन आप के नेता किसी न किसी माममें में मीडिया में आने लगे.

केजरीवाल जो भी करते, मामला उलटा पड़ जाता. फिर चाहे वो पंजाब चुनाव हो या फिर एमसीडी इलेक्शन. इधर, अन्ना हजारे से भी दूरी बढ़ चुकी थी. लोगों को अब ये समझ आ गया था कि आम आदमी पार्टी बाकी राजनीतिक पार्टियों जैसी ही है, और केजरीवाल बाकी नेताओं की तरह ही महात्वाकांक्षी हैं. इसके बाद आम लोगों की इस आम आदमी पार्टी में कोई खास रूचि नहीं रही.

हालांकि, इतने नुकसान के बाद केजरीवाल ने खुद को संभालना सीखा है. उन्होंने अपनी नीतियां बदली हैं. लड़ने के हथियार भी दुरुस्त किए हैं. केजरीवाल को समझ आ गया है कि सत्ता में रहना है तो मोदी सरकार से दोस्ती करके रखनी होगी. वहीं, मोदी भी और शक्तिशाली हुए हैं, ऐसे में उन्हें अब केजरीवाल से लड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं हैं. राजनीतिक गलियारों में अब चर्चा है कि केजरीवाल-मोदी अब विरोधी नहीं रहे, बल्कि सहयोगी बन चुके हैं.

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