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संस्कृति की सांप्रदायिकता : सांप्रदायिकता की संस्कृति – 3  

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मोटे तौर पर संस्कृति के तीन आयाम मुझे दिखते हैं – परिवार, समाज और राज्य। उनके आपसी शक्ति-सम्बंध – पावर रिलेशन्स – क्या हैं, उनको कैसे संपादित किया जाता है, यह समाज द्वारा रचे गये और मान्य नियम-कायदों से मालूम होता है। यह संस्कृति का महत्वपूर्ण पहलू है। इसे संगठन संस्कृति कहिए या फिर पावर डायमेंशन आफ कल्चर। संस्कृति का यह पक्ष मजबूत हो तो फिर वैयक्तिक या सामाजिक स्तर पर होने वाले परिवर्त्तन या की जाने वाली परिभाषाओं से संस्कृति के मूल प्रवाह में कोई फर्क नहीं आता। अब जैसे, हमारे यहां जो लोक-धर्म का चिंतन विद्यमान है, इसमें मौत को बहुत प्रतिष्ठित – डिग्नीफाइड – स्थान हासिल है। शायद बाहर के देशों में भी ऐसा ही हो। भारत में मौत को जीवन का ही सहज-सामान्य हिस्सा माना जाता है। इसके लिए बहुत तरह के चिंतन हैं। कई तरह के कर्मकांड हैं। ये चिंतन और कर्मकांड बताते हैं कि व्यक्ति अपने जीवन से पहले और मौत के बाद के समय से अपना जुड़ाव किस मुहावरे में व्यक्त करता है? यह भी संस्कृति का बहुत बड़ा हिस्सा है। यह संस्कृति के सत्तामूलक आयाम को निरंतर प्रभावित करता रहता है। कल्चर के पावर डायमेंशन को मौत का व्यक्ति-चिंतन सबल, लेकिन लचीला बने रहने को प्रेरित करता रहता है। साथ ही उस पावर डायमेंशन से संस्कृति के मूल प्रवाह को बाधित होने, सीमित होने या सूखने से बचाता भी है।
यहीं मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि अर्थपूर्ण ढंग से ज़िंदा रहने के लिए आदमी सिर्फ अपने समय में नहीं जीता। वह रोजमर्रा जिंदगी में क्या करता है? कैसा व्यवहार करता है? वह किस तौर-तरीके को वांछनीय मानता है? किसको अच्छा मानता है और किसको करणीय मानता है? – ये सारी बातें आज के समय के आकलन, अतीत के अनुभव और भविष्य के सपनों – तीनों के द्वंद्वात्मक जुड़ाव से तय होती हैं। भारत के संदर्भ यह कहा जा सकता है कि भविष्य और अतीत के बारे में – मौत के बाद के भविष्य और जन्म से पहले के अतीत तथा उनको जोड़ने वाली वृहद शक्तियों (लार्जर फोर्सेस) के बारे में – कई तरह के दर्शन-चिंतन मौजूद हैं। वे  फकीरों एवं अन्य माध्यमों से लोक तक पहुंचे और परम्पराओं के रूप में ज़िंदा हैं। शायद इसीलिए हमारी – भारत की – अस्मिता में एक धारावाहिकता है। यूरोप में हुआ यह कि एक लहर आयी तो सब मुसलमान हो गये, दूसरी लहर चली तो सब ईसाई (क्रिश्चियन) हो गये और तीसरी आयी तो सब ‘उपभोगवादी’ हो गये। भारत में संस्कृति गंगा की तरह अविरल बहती नदी रही है, जिसके किनारे पंथ और वादों की लहरें आती रही हैं, लेकिन उससे नदी की मूल प्रकृति में फर्क नही आता। (जारी)
(विजय प्रताप, नयी दिल्ली)

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