सम्पादकीय : वोट देने के अधिकार पर बढ़ रहा है खतरा !
सिटी पोस्ट लाइव :‘चुनाव’ पर खर्च संबंधी भारत के विधि और कंपनी मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों को आधार मानें, तो सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि चुनाव के इंतजामात में होनवाला खर्च में बढ़ोतरी का प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है। मोटे अनुमान के मुताबिक़, हर पांच साल में खर्च का प्रतिशत द्विगुणित हो रहा है। आप चाहें और खोजने का कष्ट करें, तो ये आंकड़े निर्वाचन आयोग और भारत के विधि और कंपनी मामलों के मंत्रालय के ‘वेब साइट’ पर कहीं न कहीं मिल जाएंगे।
अगर आप वर्तमान लोकतंत्र में ‘गुड फील’ कर रहे हों, तो चुनाव-खर्च से संबंधित ये आंकड़े शायद आपको चिंतित नहीं करेंगे। उल्टे प्यास न होने पर भी ‘कोकाकोला’ पीने जैसा मजा देंगे। और, अगर आप ‘बैड फील’ कर रहे हैं, तो ये सूचनाएं कुछ कड़वी लगेंगी। प्यास बुझाने के लिए पानी की जगह कोकाकोला गटकने की अनिवार्य मजबूरी का एहसास जगायेंगी। इन आंकड़ों को देख ‘फील गुड के फरिश्ते’ कहेंगे कि चुनाव संपन्न करने के लिए बढ़ता खर्च देश की बढ़ती आर्थिक संपन्नता का उदाहरण है। यह खर्च देश में लोकतंत्र को निरंतर सुरक्षित करने व उसे मजबूती प्रदान करने के प्रयासों का पैमाना है। शायद ‘मातम के मसीहा’ भी ऐसा ही कहेंगे। वे शायद इतना और जोड़ेंगे कि यह खर्च कुछ ज्यादा है, लेकिन जरूरी है। इस तर्क को तो शायद सब दोहरायेंगे कि चुनाव कराने का बोझ बढ़ा, क्योंकि देश की आबादी बढ़ी और उसी अनुपात में वोटरों को संख्या बढ़ी। तमाम वोटर स्वतंत्र और निर्भय होकर वोट देने के अधिकार का उपयोग करें, इसके लिए चुनाव आयोग को मतदान केंद्रों की संख्या बढ़ाने से लेकर वोटर व वोटिंग मशीनों की सुरक्षा तक के इंतजामात करने पड़ते हैं। जाहिर है, इससे खर्च बढ़ेगा।
चुनाव को लोकतत्र का उत्सव मानने वाले वोटर भी शायद चुनाव में बढ़ते खर्च को वाजिब ठहरायेंगे, हालांकि उनको यह दर्द भी सालता होगा कि अंततः इस खर्च का बोझ देश के नागरिक होने के नाते उन पर ही पड़ेगा। लेकिन क्या उनका अनुभव यह मानेगा कि चुनाव का बढ़ता खर्च वोट देने की स्वतंत्रता और निडरता का माहौल मजबूत होने का प्रमाण है? क्या वोटरों की बढ़ती संख्या और चुनाव खर्च के अनुपात में कोई तालमेल दिखता है? भारत में औसतन 60-70 प्रतिशत के बीच वोट पड़ते हैं। कभी कहीं का वोट प्रतिशत बढ़ता है, तो कहीं का घटता है। ऊपर से लोकतंत्र का उत्सव ‘लहर’ की सवारी के बिना परवान नहीं चढ़ता! फिर भी 2014 के लोकसभा चुनाव में 66.40 प्रतिशत वोट पड़े। वह चुनाव पिछले तमाम चुनावों में सबसे अधिक ख़र्चीला था।
यानी 30-40 प्रतिशत वोटरों ने वोट नहीं दिया। वैसे, यह बात सही हो सकती है कि वोट न देनेवाले 30-40 प्रतिशत वोटरों में ऐसे लोग जरूर होंगे जो वोट देने के अपने अधिकार से गाफिल हैं। लेकिन क्या उनमें ऐसे वोटरों की संख्या कम है, जो ‘डर के मारे’ मतदान केंद्रों तक नहीं जाते? या जिनको मतदान केंद्रों तक पहुंचने से रोका जाता है? और तो और, क्या इसका कोई हिसाब है कि जो 60-70 प्रतिशत वोट पड़ते हैं, उनमें कितने प्रतिशत वोट ‘बोगस’ हैं? मशीन के आने से ‘बूथ छपाई’ के खेल की सूचानाएं कम आती हैं। लेकिन लोकसभा चुनावों के पांच साल पहले और बाद के आंकड़ों की तुलना करें तो यह ‘तथ्य’ सामने आ सकता है कि बीते सालों में वोटरों की संख्या बढ़ी और मतदान केंद्रों की भी, लेकिन उनके अनुपात में वोट पड़ने का प्रतिशत नहीं बढ़ा! यानी चुनाव का खर्च बढ़ा, लेकिन वोट पड़ने का प्रतिशत जहां का तहां रह गया! ऐसा क्यों?
क्या ये सवाल चुनाव-खर्च बढ़ने के पीछे कुछ और कारण होने का संकेत नहीं करते? क्या वोटरों के तरह-तरह के अनुभव यह नहीं कहते कि चुनाव-खर्च का बढ़ना वोट देने के अधिकार पर बढ़ते खतरे का संकेत है? याद रहे, चुनाव आयोग के उक्त खर्च में वह खर्च शामिल नहीं है, जो चुनाव-प्रचार पर पार्टी या गठबंधन खर्च करते है या/और फिर स्वयं उम्मीदवार खर्च करते हैं। उसमें ‘बाहुबल’ पर रुपयों में होने वाले खर्च का कोई ‘वैध’ आंकड़ा होता भी नहीं। ‘धनबल’ में भी कितना सफेद धन है और कितना काला, यह मालूम करना भी कठिन है। चुनाव-प्रचार के दृश्य तो यह संदेह पुख्ता करते हैं कि अब सामान्य आदमी चुनाव लड़ने की बात सोच ही नहीं सकता। लड़ने के लिए लाख, तो सीट पर कब्जे के लिए करोड़ चाहिए। ज्यों-ज्यों चुनाव लड़ने के लिए ‘वाजिब’ धनबल-बाहुबल की ‘धाक’ बढ़ रही है, त्यों-त्यों वोट देने के अधिकार पर खतरा बढ़ रहा है। चुनाव आयोग का बढ़ता खर्च इस ओर इशारा करता है। क्या फील गुड के फरिश्ते या मातम के मसीहा यह मानेंगे?
इस ‘इशारे’ को समझने के लिए फिलहाल एक मिसाल है, ‘टोटलाइजर’ का प्रस्ताव। यानी ‘इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन में टोटलाइजर उपकरण लगाने का प्रस्ताव। वैसे, ‘टोटलाइजर’ प्रस्ताव के बारे में देश के आम मतदाता शायद ही कुछ जानते हैं। पिछले दो साल में मुख्य धारा के मीडिया में इस पर चर्चा भी बंद हो चुकी है। सोशल मीडिया को तो शायद इस पर कोई ठोस विमर्श करने में रुचि नहीं। इस बारे में अगस्त, 2016 में एकआध अखबार में एक छोटी से खबर आयी। फिर 2017 में एक खबर आयी बस। ‘टोटलाइजर’ शब्द तक मीडिया से गायब हो गया!
‘टोटलाइजर’ एक तंत्र है। इसे निर्वाचन आयोग ने बूथ-वार मतदान पैटर्न को छिपाने के लिए प्रस्तावित किया था। उसने इसके तहत इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के जरिए बूथों में होने वाली वोटिंग की गिनती ‘टोटलाइजर’ तंत्र के तहत लगभग 14 बूथों के वोटों को एक साथ किये जाने के प्रावधान की अनुमति मांगी थी।इस सिलसले में 2014 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें मतदाताओं को संबद्ध चुनाव क्षेत्रों में डराने से रोकने के लिए विभिन्न मतदान केंद्रों में मतों को गिनती की प्रक्रिया के लिए चुनाव आयोग को निर्देश देने की मांग की गई थी। 2014 के आम चुनाव के दौरान महाराष्ट्र के पूर्व उपमुख्यमंत्री द्वारा कथित तौर पर मतदाताओं को धमकी दिए जाने खबर इस रूप में सार्वजनिक हुई कि उनकी पार्टी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन रीडिंग से ‘वोटिंग पैटर्न’ का पता लगाने में सक्षम होगी! निर्वाचन आयोग ने 2014 में होशंगाबाद (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) में पाया कि सोहागपुर क्षेत्र के मोकाल्वाडा मतदान केंद्र में सिर्फ एक मतदाता ने वोट दिया। आयोग ने उक्त वोटिंग बूथ सहित कई अन्य क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की शुरूआत से पहले के चुनावों के ‘बैलेट पेपर्स’ के जरिये यह जानने की कोशिश की कि ईवीएम मशीन रीडिंग से ‘वोटिंग पैटर्न’ का पता लगा सकने की संभावना या आशंका में कितना दम है? चुनाव आयोग ने माना कि पोलिंग स्टेशन वार मतगणना होने की स्थिति में ऐसी स्थिति आ जाती है कि कई क्षेत्रों और पॉकेट में वोटिंग पैटर्न सबको पता लग जाता है, जिससे उस क्षेत्र के मतदाताओं को डराया-धमकाया जा सकता है।
चुनाव आयोग ने 2008 में यूपीए सरकार को उक्त टोटलाइजर उपाय का सुझाव दिया था। आयोग का कहना था कि टोटलाइजर के इस्तेमाल से ईवीएम में पड़े वोटों की गोपनीयता बनी रहती है। चुनाव आयोग की यह मांग जनवरी 2013 में भी कानून आयोग के पास गई थी। चुनाव आयोग के सूत्रों के हवाले से यह खबर भी मीडिया में आयी कि ‘टोटलाइजर’ मशीन का प्रदर्शन राजनीतिक दलों के सामने भी किया जा चुका है। उस समय कांग्रेस, बसपा, राकांपा ने इसका खुला समर्थन किया था। वहीं भाजपा और माकपा ने सैद्धांतिक रूप से इस पर सहमति जताई थी और साथ ही यह भी कहा था कि इसके इस्तेमाल को लेकर पूरी सतर्कता बरती जाए।लेकिन 2014 के बाद हुआ यह कि कानून आयोग ने मार्च, 2015 में भेजी रिपोर्ट में चुनाव आयोग के प्रस्ताव का समर्थन किया। कांग्रेस, राकांपा और बसपा ने भी स्पष्ट रूप से ‘टोटलाइजर’ मशीन के इस्तेमाल के प्रस्ताव का समर्थन किया, लेकिन भाजपा, तृणमूल कांग्रेस और पीएमके ने टोटलाइजर का विरोध किया!
22 अगस्त, 2016 की खबर थी कि मतगणना के दौरान वोटिंग का रुझान सार्वजनिक होने से रोकने के लिए टोटलाइजर मशीन के इस्तेमाल पर फैसला लेने को केंद्र ने मंत्रियों की एक समिति बनाई। गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय समिति को इस पर निर्णय लेकर केंद्रीय कैबिनेट को सिफारिश करनी थी। सरकार ने यह कदम सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद उठाया। 5 अगस्त को कोर्ट ने टोटलाइजर पर आठ हफ्ते में फैसला लेने का आदेश दिया। समिति में वित्त मंत्री अरुण जेटली, रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर, सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को सदस्य बनाया गया।
फरवरी 2017 में एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने हलफनामे में ‘टोटलाइजर’ का विरोध किया, जबकि भारतीय कानून आयोग और भारतीय चुनाव आयोग ने टोटलाइजर की शुरुआत का समर्थन किया। लॉ कमिशन ने कहा कि ‘टोटलाइजर’ से 2014 में देखी गई परिस्थितियों के मूल्यांकन में मदद मिल सकती है!
केंद्र को भेजी मांग में चुनाव आयोग ने दलील दी कि एक-एक ईवीएम मशीन के जरिये गिनती करने से गोपनीयता नहीं रहती है। वहीं मोदी सरकार का कहना था कि इस मशीन के इस्तेमाल से सभी पोलिंग स्टेशनों के आंकड़े एकत्र हो जाने के बाद यह पता चलना कठिन हो जाएगा कि किस बूथ से किस पार्टी या प्रत्याशी को कितने वोट मिले? बहारहाल, इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन में टोटलाइजर उपकरण लगाने की अपनी पुरानी मांग को चुनाव आयोग ने छोड़ा नहीं है। उसने इसके लिए ‘कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स’, 1961 में संशोधन की मांग तक कर रखी है।उसका कहना है कि इस मशीन से मतगणना के समय मतदान रुझान को सार्वजनिक होने से तो रोका ही जा सकता है। इससे मतदाताओं की गोपनीयता भी बरकरार रहेगी। चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव को कानून मंत्रालय से भी हरी झंडी मिल चुकी है। उसने चुनाव सुधारों पर 10 मार्च, 2015 को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपनी रिपोर्ट में टोटलाइजर मशीन के इस्तेमाल की सिफारिश की है। इसी क्रम में कानून मंत्रालय ने पीएमओ के भेजे अपने नोट में कहा, “सुप्रीम कोर्ट में पिछले दो वर्षों से याचिका पर सुनवाई चल रही है। कोर्ट का सख्त निर्देश है कि इस बारे में जल्द से जल्द फैसला लिया जाए।”इसके बाद पीएमओ के निर्देश पर मंत्रियों की समिति बनाई गई। समिति से कहा गया कि वह टोटलाइजर मशीन का इस्तेमाल करने या नहीं करने पर अपनी रिपोर्ट केंद्रीय कैबिनेट को सौंपे। मौजूदा व्यवस्था में प्रत्येक मतदान केंद्र के वोटिंग का रुझान सार्वजनिक हो जाता है। इससे उक्त क्षेत्र के मतदाताओं के उत्पीड़न का खतरा बना रहता है।
अभी तक की स्थिति-परिस्थिति यही है। केंद्र सरकार यानी एनडीए की मोदी सरकार के ‘टोटलाइजर’ को गैर जरूरी ठहराने का राजनीतिक फैसले पर किसी प्रभु ने आज तक कोई सवालिया निशान लगाया ही नहीं? किसी ने यह पूछा ही नहीं कि किसी बूथ से किसी पार्टी या प्रत्याशी को कितने वोट मिले, यह जानना किसी पार्टी के लिए क्यों जरूरी है? तब बेचारा वोटर क्या माने? क्या चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव को केंद्र की एनडीए सरकार पूर्णतः ‘खारिज’ कर चुकी है? या उसे खटाई में डाल दिया है? और क्यों? आब वे वोटर क्या करें, जो चुनाव में अपना वोट देने के लिए बूथ तक जाने के बारे में भी आज खुल कर बोलने-बतियाने में डरते हैं? वे तो चुनाव के पहले ही चुनाव् के बाद के परिणाम से ‘भयभीत’ हैं! उनको लगता है कि चुनाव में जीत पक्की करने के दावे के साथ दिग्गज-दबंग पार्टियों ने ‘बूथ स्तर’ पर इंतजाम की जो स्ट्रैटजी बनायी है वह इसी ‘भय’ को सान पर चढ़ाने का ‘वैधानिक’ तरीका है! और इसमें मदद करता है ‘टोटलाइजर’ जैसे तकनीकी व्यवस्था को खटाई में डालने का राजनीतिक फैसला!
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