कुदरती रंगों से सजा है पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने वाला सरहुल, जनजातियों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत
रूसा, सरना पूजा और फूलखोंसी के रूप में त्योहार के तीन चरण
कुदरती रंगों से सजा है पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने वाला सरहुल, जनजातियों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत
सिटी पोस्ट लाइव, रांची: इस वर्ष 08 अप्रैल को मनाया जाने वाला प्रकृति पर्व सरहुल, जनजातियों का मुख्य त्योहार है। अलग-अलग जगहों पर जनजातीय समुदाय इस त्योहार को अपनी सुविधा के मुताबिक मनाता है। सरहुल शब्द का विकास दो शब्दों ‘सरई’ और ‘फूल’ के मेल से हुआ माना जाता है। सरई का अर्थ है साल वृक्ष यानि सखुआ का पेड़ अर्थात यह साल वृक्ष के फूलों का त्योहार है। विभिन्न जनजातियों में सरहुल के अलग-अलग नाम प्रचलित हैं। मुंडा जनजाति इसे ‘बापरब’ कहती है। मुंडारी शब्दावली में ‘बा’ का अर्थ फूल होता है अर्थात् यह फूलों का त्योहार है। उरांव इसे ‘खड़ी’ कहते हैं। खड़ी का अर्थ है नई-नई पत्तियां। खड़िया जनजाति इसे ‘जाड़कोर’ कहकर पुकारती हैं। जाड़ का अर्थ ही बीज तथा एकोर का अर्थ है प्रक्रिया अर्थात बीज बनने की प्रक्रिया फूलों से ही प्रारम्भ होती है। इसलिए इन तमाम अर्थों से यही स्पष्ट होता है कि सरहुल फूलों का अर्थात प्रकृति का त्योहार है। बसंत ऋतु के आते ही जंगल के सभी वृक्ष नई-नई पत्तियों और फूलों से लद जाते हैं। चारों ओर हरियाली ही हरियाली नज़र आने लगती है। इस मनोरम दृश्य को देखकर लोग बीते वर्ष की उदासी भूल जाते हैं। इस कुदरती छटा को देखकर लोग यह भी समझ जाते हैं कि एक वर्ष का समय बीत चुका है। इसलिए अब हम सभी को एकत्रित होकर अपने पूर्वजों को पुकारना चाहिए और एक वर्ष की अवधि के लिए उनसे आशीर्वाद लेना चाहिए। सरहुल के दिन पाहन, सरना स्थल पर पूजा करते हैं। सरना एक पवित्र तथा धार्मिक स्थल होता है। यहां साल के कई वृक्षों के साथ ही अन्य कई वृक्ष होते हैं। इस स्थल पर उगे वृक्षों की देखभाल सभी का कर्त्तव्य माना जाता है। पूजा के दिन सभी लोग सरना स्थल पर पहुंचते हैं। पाहन भी पूजन सामग्री के साथ वहां आते हैं तथा पूजा-अर्चना के समय वे पूर्वजों को पुकारते हैं। समाज के प्रतिनिधि के रूप में आराधना करते हुए कहते हैं- हे पूर्वज देव! आज एक वर्ष और बीत गया। इस वर्ष भी हमलोगों को प्रेमभाव और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में रहने दें। हमारी कार्यक्षमता एवं कुशलता में किसी भी प्रकार की कमी न आये। हमारे पशुधन में वृद्धि हो। उचित वर्षा हो और साल के वृक्ष में खूब फूल लगें।
रूसाः इस दिन कृषि कार्य के लिए खेतों की कोड़ाई-जुताई नहीं होती
सरहुल पूजा के विधि विधान तीन चरणों में पूरे होते हैं। पहला चरण रूसा या बांगुरी या हांक (निरबिसरा) कहलाता है। दूसरा चरण सरना पूजा और तीसरा चरण फूल खोंसी कहलाता है। चैत मास समाप्त होने के पूर्व तक गांव के लोग पाहन की उपस्थिति में एक बैठक का आयोजन करते हैं, जिसमें सरहुल मनाने की तिथि तय की जाती है। निर्धारित तिथि के एकदिन पूर्व गांव का गोड़इत या चौकीदार संध्या के बाद पूरे गांव में हांक भरता (सूचना देना या मुनादी करना) है कि अमुक तिथि को रूसा मनाया जायेगा। इसलिए उस तिथि को कृषि से संबधित कार्य एवं जमीन आदि की कोड़ाई, खुदाई नहीं होनी चाहिए। इस दिन करमाली तथा अन्य जनजातियों के साथ ही गैर आदिवासी भी कृषि से संबंधित कार्य एवं जमीन की कोड़ाई, जुताई या खुदाई नहीं करते हैं। इसे ही निरबिसरा कहा जाता है। यह कहीं-कहीं तीन दिनों का भी होता है।
सरना पूजाः वृक्षों की होती है पूजा, दी जाति है बलि, निकलता है जुलूस
रूसा के दूसरे दिन गांव के सभी लोग सरना स्थल पर एकत्रित होते हैं। यहां पाहन प्रकृति एवं वृक्षों की पूजा करते हैं। सर्व प्रथम पाहन अपने पूर्वजों की याद में मुर्गी की बलि देते हैं। परिवार के मुख्य व्यक्ति मुर्गी काटते हैं। इसके बाद जुलूस निकाले जाते हैं। इस दौरान सभी औरत-मर्द अपने बालों तथा कानों में साल के मंजर को खोंसकर नृत्य करते चलते हैं।
फूल खोंसीः दरवाजे पर साल का मंजर खोंसते हैं पाहन
सरहुल पूजा के दूसरे दिन पाहन एक नए सूप में साल वृक्ष के मंजर अर्थात फूल लेकर अपनी पहनाइन के साथ गाते-बजाते हुए गांव में सभी किसानों के घर पर जाते हैं। दरवाजे पर साल का मंजर खोंस देते हैं। इस दौरान प्रत्येक घर की महिलाएं पाहन दंपती को आदर के साथ चटाई पर बिठाकर उनके पैरों को धोती हैं और उस पानी को छप्पर पर फेंक देती हैं। इससे उसका घर पवित्र हो जाता है और सभी लोग आने वाली विपत्तियों से मुक्त हो जाते हैं।
कृषि कार्यों से भी जुड़ा है सरहुल
सरहुल त्योहार का संबंध कृषि कार्य के साथ जुड़ा हुआ है। झारखंड क्षेत्र में कृषि कार्य पूर्ण रूप से मॉनसून पर निर्भर है। पूरे प्रदेश में मॉनसून पहुंचने में 15-20 दिन लग जाते हैं। रांची तथा इसके आसपास के दक्षिणी क्षेत्रों में मॉनसून की वर्षा पहले पहुंचती है। इसलिए रांची और इसके आसपास के दक्षिणी क्षेत्रों में सरहुल का त्योहार पहले मनाया जाता है। इस समय तक सखुआ में मंजर लग जाते हैं। चूंकि इस त्योहार में साल या सखुआ के मंजर यानि फूल चढ़ाए जाते हैं इसलिए इस सरहुल को ‘फूलसरहुल’ भी कहा जाता है। यह त्योहार झारखंड प्रदेश के उत्तरी क्षेत्रों में 15-20 दिनों के बाद मनाया जाता है। इसलिए अब मनाये जाने वाले सरहुल को ‘बीजसरहुल’ कहते हैं क्योंकि अबतक सखुआ के उन फूलों में बीज लग जाते हैं। इस त्योहार के बाद ही कृषि कार्य शुरू किया जाता है और नए फल को खाया जाता है। इस क्षेत्र में इस त्योहार के बाद ही शादी विवाह की भी शुरुआत की जाती है।
पारंपरिक त्योहार पर आधुनिकता का रंग
सरहुल जनजातियों की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा त्योहार है। वर्तमान में पारम्परिक तरीके से मनाये जाने वाले सरहुल के उत्सव पर थोड़ा आधुनिकता का रंग भी चढ़ गया है। इसकी झलक सरहुल शोभायात्रा में देखने को मिलती है। ढोल, ढांक, मांदर के साथ ही अब डीजे की धुन पर नृत्य और झांकियों का प्रचलन भी बढ़ा है। समय के साथ यह परिवर्तन प्रायः हर क्षेत्र में देखने को मिलते हैं।
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