प्रकृति से प्रेम का उत्सव है लोक पर्व करम
सिटी पोस्ट लाइव, रांची: झारखंड अपने नैसर्गिंक स्वरूप में सुरम्य, वन्यधरा और नत्नगर्भा है। पर्वत, नदियां, झरने और जंगल इसका श्रृंगार है। जनजातियों और सदानों की समृद्ध सभ्यता यहां पलती है। झारखंड के चप्पे-चप्पे में श्रद्धालु प्रकृति के संरक्षक त्योहार को लेकर उत्साह से भरे हैं। कर्मा पर्व आदिवासी समाज का प्रचलित लोक पर्व है। राज्यभर में सोमवार को प्रकृति का महापर्व करम या करमा हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। आदिवासी युवक-युवतियां मांदर की थाप, नगाड़ों की गूंज और करम गीतों पर नाचते झूमते दिख रहे हैं। करम पर्व भादो महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है, लेकिन इसके विधि-विधान सात दिन पहले से ही शुरू हो जाते हैं। आदिवासी समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संवर्धन में स्त्री-पुरूष की बराबरी की परंपरा रही है, जिसे करम गीत में गाते हैं- सातो भाइयो रे सातो करम गड़ाय, सातो भाइयो रे सातो करम गड़ाय। आदिवासी समुदाय करम देव से अच्छे फसल की कामना करते हैं। सौहार्द्र और सद्भावना का संदेश देने वाला यह त्योहार भाई-बहन के प्रेम का भी प्रतीक है। बहनें अपने भाइयों की सुख-समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं। इसके अलावा खेतों में अंकुरित बीजों की रक्षा के लिए भी पूजा की जाती है। राजधानी रांची के विभिन्न सरना स्थलों और अखरा में पारंपरिक विधि के साथ पूजा की गई। अखरा में रीति रिवाज के साथ करम डाली-डाल लाकर उसे गाड़ा जाता है और इसके बाद पाहनों द्वारा पूजा-अर्चना की गयी। इसके लिए शहर के सभी प्रमुख अखरा को आकर्षक तरीके से सजाया-संवारा गया है। मंगलवार को करम डाली विसर्जन और जावा फूल खोंसी होगी। इसके साथ ही दो दिवसीय करम महोत्सव का समापन हो जाएगा।
जावा से होती है बीजों की जांच
करमा पर्व केवल भाई-बहन की एकजुटता का संदेश ही नहीं देता, इसका वैज्ञानिक पक्ष भी है। बरसात के बाद का समय रबी और दलहन की खेती का होता है। किसान का पूरा परिवार उसकी तैयारी में जुटा होता है। पर्व के सात दिन पहले किसान पिछले साल के रखे हुए बीज की जांच करते हैं। इस संबंध में कृषि वैज्ञानिक डॉ. सूर्य प्रकाश कहते हैं कि बरसात के मौसम में नमी ज्यादा होती है। इस दौरान वैसी चीजें, जो नमी को सोख सकती हैं, उनके खराब होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। ऐसे में किसान करम पर्व और फसल की बुआई से पहले पिछले साल रखे गये बीजों की जांच करते हैं, अंकुरण विधि प्रक्रिया सात दिनों तक चलती है। सात दिनों के दौरान अगर बीज से फसल निकल आये, तो इसका अर्थ है कि बीज सही सलामत है और उसे फसल के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। करम में कुंवारी कन्याओं द्वारा की जाने वाली विधियां सिर्फ धार्मिक रीति-रिवाज नहीं है, बल्कि यह कृषि कार्य और पौध संरक्षण के प्रशिक्षण का प्रारंभ भी होता है। कृषि कार्यों में झारखंड क्षेत्र की महिलाएं, पुरुषों के मुकाबले अधिक बोझ उठाती हैं। पुरुष हल जोतकर रोपनी लायक खेत बनाते हैं। उसके बाद रोपनी से लेकर कटनी तक बल्कि फसल कूट-पीसकर भोजन बनाने का सारा काम तो महिलाएं ही करती हैं। फसल तैयार करने की पूरी प्रक्रिया में पुरुष सहायक भर होते हैं। उन व्रती बालिकाओं का करम जावा उनके भावी जीवन के कर्तव्यों और दायित्वों से परिचित कराता है। इन अवसरों पर गाये जाने वाले गीतों में उनका प्रशिक्षण और कृषि दर्शन होता है। करम पर्व का एक और वैज्ञानिक पक्ष है। आदिवासियों को प्रकृति पूजक माना जाता है। ऐसे करम पर्व एक बहन की ओर से तीन करम डाल को अखड़ा में गाड़ने की प्रथा है। जबकि यह तीन डाल प्रकृति प्रेम को चित्रित करती है। एक बहन तीन डाल। परमेश्वर के नाम पर, गांव के नाम पर और परिवार के नाम पर गाड़ती हैं। ऐसे में एक समूह की ओर से अगर खाली जगह में करम की इन डाल को पूजा विधि के बाद सुरक्षित गाड़ दिया जाये तो सैकड़ों पेड़ खड़े किये जाते हैं। इससे पर्यावरण संरक्षण की ओर से एक कदम बढ़ाया जाता है।
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