भ्रष्ट IPS की मदद कर फंसे बिहार के डीजीपी.
सुप्रीम कोर्ट पहुंचा साइबर क्राइम का मामला, जांच में खुलेगा DGP की मदद का राज.
सिटी पोस्ट लाइव :बिहार पुलिस के मुखिया एसके सिंघल की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. साइबर अपराधी के चक्कर में फंसकर साइबर अपराधी के फोन कॉल पर भ्रष्ट IPS की मदद करना उन्हें भारी पड़ सकता है. अब सरकार को यह तय करना होगा कि DGP की कार्रवाई कितनी सही है. साइबर क्राइम का यह हाई प्रोफाइल मामला अब सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया है.पटना हाई कोर्ट के एक एडवोकेट ने इसे चीफ जस्टिस एवं न्यायपालिका की छवि धूमिल करने वाला बताकर सर्वोच्च न्यायालय से CBI जांच की मांग की है.उनका कहना है कि घटना के मुख्य आरोपित को रिमांड पर वह विभाग ले रहा है जो डीजीपी के अधीन है, ऐसे में निष्पक्ष जांच पर कई सवाल उठ रहे हैं.
पटना उच्च न्यायालय के सीनियर एडवोकेट मनीभूषण प्रताप सेंगर ने बिहार के डीजीपी एस के सिंघल की कार्य प्रणाली पर सवाल खड़ा किया है। एडवोकेट ने सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस और पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को लेटर पेटीशन देकर इस गंभीर मामले की न्यायिक या सीबीआई जैसी स्वतंत्र एजेंसी कराने की मांग की है। 18 अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस को भेजे गए लेटर पेटीशन में एडवोकेट ने कहा है कि बिहार पुलिस के मुखिया का किसी साइबर क्रिमिनल के जाल में फंस जाना बड़ा सवाल है। पुलिस को कोई भी अधिकारी कैसे किसी फ्राॅड के झांसे में आ सकता है। इसमें कहीं न कहीं पुलिस का बड़ा खेल है, जिससे पटना के हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और न्याय पालिका की छवि धूमिल की जा रही है.
एडवोकेट मनीभूषण प्रताप सेंगर का कहना है डीजीपी के पद पर बैठा व्यक्ति किसी भी साइबर फ्रॉड के झांसे में नहीं आ सकता है. अगर किसी भ्रष्ट अफसर को मदद पहुंचाने का मामला था तो डीजीपी ने आंख बंद करके इस पर काम क्यों कर दिया. अभिषेक अग्रवाल नामक साइबर अपराधी द्वारा आईपीएस आदित्य कुमार के पक्ष में प्रशासनिक आदेश जारी कराने के लिए कैसे दबाव बना सकता है. वह भी मुख्य न्यायाधीश के नाम का दुरुपयोग करके. डीजीपी की कार्य प्रणाली इसलिए सवालों में है क्योंकि शक भ्रष्ट आईपीएस की मदद के बाद होता है. कहानी बिहार पुलिस के डीजीपी और पुलिस मुख्यालय के साथ आर्थिक एवं साइबर अपराध इकाई द्वारा सुनाई जा रही है.
सर्वोच्च न्यायालय को भेजे गए लेटर पेटीशन में एडवोकेट ने कहा है कि इस पूरी कहानी और तथ्य की सत्यता की जांच (न्यायायिक अथवाा सीबीआई जैसी स्वतंत्र एजेंसी) से कराया जाए। इस कांड में जो भी लोग दोषी हो, इसमें पुलिस अफसर और अन्य लोग हों उनपर कार्रवाई की जाए। एडवोकेट का कहना है कि ऐसे लोगों को दंडित करने के लिए यह याचिका है, कारण इसमें पटना उच्च न्यायालय का नाम और मुख्य न्यायाधीश पटना उच्च न्यायालय का नाम उछाला जा रहा है। यह कहीं न कहीं मुख्य न्यायाधीश एवं न्याय पालिका की छवि को धूमिल कर रहा है.
मामले की CBI जांच की मांग करनेवाले एडवोकेट के अनुसार इस पूरे मामले में डीजीपी और वरीय आईपीएस अफसर संलिप्त हैं, इसलिए बिहार सरकार की किसी भी एजेंसी द्वारा निष्पक्ष जांच संभव नहीं है. इसके पीछे कारण यह है कि डीजपी जैसे पद पर बैठे आईपीएस एक साइबर फ्राड से कई बार बात करते हैं और जो वह कहता है तो वह करते भी हैं. बात करने और काम करने के बाद यह प्रतीत होता है कि शयद यह कोई गलत आदमी है, तब जांच के लिए पत्र लिखते हैं. डीजीपी स्तर से हुई यह गलती सवाल है, इस पूरी कहानी की एक उच्च स्तरीय जांच होनी चाहिए, जिससे आम लोगों का पुलिस पर भरोसा बढ़े. इसके साथ ही न्यायालय और चीफ जस्टिस की छवि को खराब करने वाले बेनकाब हो जाएं.
भ्रष्ट IPS की मदद के मामले में अब पूरी तरह से जवाबदेही डीजीपी की है. अब सरकार को यह बताना होगा कि उनकी कार्रवाई में कितनी सच्चाई है. किसी भी परिस्थिति में उन्होंने आईपीएस की मदद की है, जवाबदेही हर हाल में डीजीपी की है. वे इस बात से नहीं बच सकते हैं कि उन्होंने किसी साइबर फ्रॉड के जाल में फंसकर ऐसा किया है. बिहार पुलिस के मुखिया के पद से रिटायर होने वाले एक पुलिस अफसर ने बताया कि डीजीपी को कभी भी कोई न्यायिक अधिकारी ऐसे भ्रष्ट अफसर की मदद के लिए फोन नहीं करेगा. इस मामले में अब सरकार को अपनी बात रखनी चाहिए कि डीजीपी की कार्रवाई सही है या गलत. ऐसे मामले में न्यायिक जांच होनी चाहिए जिससे मामले का पूरा खुलासा हो जाए. इस घटना में बड़ा सवाल यह है कि डीजीपी ने इतनी बार बात की और उन्हें साइबर फ्रॉड और चीफ जस्टिस में फर्क नहीं पता चला.
गौरतलब है कि मुख्य न्यायधीश बनकर मुख्य आरोपित अभिषेक अग्रवाल को 48 घंटे के लिए न्यायिक हिरासत में लिया गया है. ऐसे में अब सवाल खड़ा किया जा रहा है कि आखिर डीजपी के अधीन वाले विभाग से क्यों जांच कराई जा रही है. एक पुलिस अफसर ने तो नाम नहीं सार्वजनिक करने के आग्रह पर बताया कि डीजीपी के अधीन वाले विभाग से जांच कभी भी निष्पक्ष नहीं हो सकती है. मामला डीजीपी से जुड़ा है और उनके अधीन वाला विभाग उनके खिलाफ रिपोर्ट कैसे लगाएगा. ऐसे में इस मामले की न्यायिक जांच कराया जाना चाहिए.
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