जातिगत राजनीति की उपज उपेंद्र कुशवाहा जॉर्ज फर्नांडिस की राह पर
सिटी पोस्ट लाइव “विशेष”: रालोसपा सुप्रीमों बीते दो महीने से बिहार और देश की राजनीति को कुछ अलग संदेश देना चाह रहे हैं लेकिन विभिन्य दलों के नेता ना तो उनके संवाद को भाव दे रहे हैं और ना ही उसका कोई अर्थ ही निकाल रहे हैं। सबसे पहले यह बात करनी जरूरी है कि बिहार सहित देश की राजनीति में उपेंद्र कुशवाहा का कद कितना बड़ा है। उपेंद्र कुशवाहा कोईरी जाति से आते हैं और पिछड़े के सवाल पर राजनीति में एक जगह बनाने में कामयाब भी हुए हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि इनके चेहरे से गम्भीरता और परिपक्कता टपकती है। आप पिछले लोकसभा को याद करें, उस समय भी उपेंद्र कुशवाहा बिहार में खुद को एनडीए का बड़ा सहयोगी होने की जुगत कर रहे थे। लेकिन बाजी मारी चिराग पासवान ने। आगे 2019 में लोकसभा चुनाव है। ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा एनडीए का साथ छोड़ने से पहले कई पार्टियों के दरवाजे खटखटा चुके हैं। राजनीतिक जानकार इन्हें तीन राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव परिणाम आने से पहले इनको महागठबंधन का हिस्सा बनने की नसीहत दे रहे हैं।
अब जबकि खासकर इनकी नीतीश कुमार से तल्खी बढ़ गयी है और रिश्ते में खटास की जगह दरार आ गयी है, तो ये विधवा प्रलाप कर रहे हैं। अब तो ये, यह भी कह रहे हैं कि उन्होंने आजतक खुलकर अपने मंत्री पद का भी इस्तेमाल नहीं कर सके ।यह बात इन्हें मंत्री बनने के शुरुआती वर्ष में ही बोलना चाहिए था। असल में इन्हें तथाकथित अपने लोगों ने सीएम मेटेरियल बताकर इनका माथा घुमा दिया है। देश के जाने-माने भूप महागठबंधन में शामिल हैं। ऐसे में महागठबंधन में इनकी इंट्री के बाद ये स्कूल में सबसे पीछे की बेंच पर बैठने वाले छात्र की तरह हो जाएंगे। महागठबंधन के नेताओं को पता है कि एनडीए ने इनके महत्व को सिरे से खारिज कर दिया, तब वे महागठबंधन की देहरी पर आए हैं। दुःखद बात है कि ना तो अमित शाह और ना ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उपेंद्र कुशवाहा की नोटिश ले रहे हैं। यूँ कहें कि भाजपा का कोई शीर्ष नेता इनकी तरफ ध्यान देना भी मुनासिब नहीं समझ रहे हैं। सही लफ्जों में इनको सुनने और समझने की फुर्सत अब भाजपाईयों को नहीं है।
आगामी लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद इनकी राजनीतिक हैसियत का ग्राफ और गिरना तय है। ऐसे में बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के साझीदार दल इन्हें जार्ज फर्नांडिश की तरह राजनीतिक हासिये पर ला फेकेंगे। इस बात से उपेंद्र कुशवाहा अभी अनभिज्ञ हैं। राजनीतिक दूरदर्शिता के अभाव में उपेंद्र कुशवाहा खुद अपनी राजनीतिक कब्र खोद रहे हैं। इधर मधेपुरा के सांसद और जाप के संरक्षक पप्पू यादव पुर्णिया लोकसभा क्षेत्र में अपना जनाधार तलाशने में जुटे हैं। उन्हें पता चल चुका है कि मधेपुरा सीट से उनकी हर तय है। अब उन्होंने नया दांव खेला है। वे कांग्रेस के शीर्ष नेताओं से कह रहे हैं कि अगर कॉग्रेस उन्हें बिहार में आगामी मुख्यमंत्री का चेहरा मान ले,तो वे कांग्रेस के साथ जाने को तैयार हैं। अब पहले से तेजस्वी यादव बिहार का मुख्यमंत्री बनने के लिए अपने चेहरे का हर तरह से फेशियल और ब्लीचिंग वगैरह करा चुके हैं।
वैसे में पप्पू और उपेंद्र की दावेदारी को महागठबंधन कैसे पचा पायेगा ?हमें यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महागठबंधन में शरद यादव और जीतन राम मांझी जैसे सुरमा पहले से ताल ठोंकने के लिए बैठे हैं। हालिया दिनों में उपेंद्र कुशवाहा की गतिविधि बेहद संदिग्ध रही है। वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि उनके राजनीतिक भविष्य के लिए सही क्या है? वे देश की राजनीति में दमदार उपस्थिति के साथ-साथ बिहार में भी खुद को अव्वल साबित करने की खुशफहमी पाल बैठे हैं। वे एक साथ कई नाव की सवारी करना चाह रहे हैं, जो उनके डूबने की वजह बन सकती है। आज उपेंद्र कुशवाहा अपने राजनीतिक जीवन का बड़ा फैसला लेने और सुनाने वाले हैं। हम उपेंद्र कुशवाहा के राजनीतिक सलाहकार नहीं हैं लेकिन हमारा अनुभव यह कह रहा है कि उपेंद्र कुशवाहा,दूसरे जार्ज फर्नांडिश बनने जा रहे हैं। लालू प्रसाद यादव का परिवार अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए किसी हद तक जा सकता है। ऐसी परिस्थिति में, उपेंद्र कुशवाहा महागठबंधन में कहीं से भी सेफ नहीं दिख रहे हैं। वैसे उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता की वर्तमान राजनीति में जरूरत है। लेकिन ऐसे नेता जनता हित से ज्यादा अपना मुनाफा ज्यादा देखते हैं। आखिर में हम यही कहेंगे कि 2019 का लोकसभा चुनाव उपेंद्र कुशवाहा के लिए अग्नि परीक्षा साबित होगा। यही चुनाव उनके उत्थान और पतन की कहानी लिखेगा।
पीटीएन न्यूज मीडिया ग्रुप से सीनियर एडिटर मुकेश कुमार सिंह की “विशेष” रिपोर्ट
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