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समाचार विश्लेषण : 2019 लोकसभा चुनाव से पहले की राजनीतिक कुश्ती

हर चुनाव से पहले कुछ नेता बन जाते हैं रंगा शियार

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सिटी पोस्ट लाइव : देश में खासकर लोकसभा और विधानसभा चुनाव से पहले बिहार में तिकड़म, दांव-पेंच, छल, प्रपंच, साजिश और तरह-तरह के दबाब भरे तिलस्मी खेल होते हैं। विभिन्न पार्टियों के शीर्ष नेता अपने गुर्गों के माध्यम से तरह-तरह का प्रलाप, अंदेशा और दांव को प्रचारित-प्रसारित करवाते हैं जिससे उनकी राजनीतिक महत्ता की झलक दिखे और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की तुष्टि हो। अभी लोकसभा चुनाव में समय है लेकिन नीतीश कुमार की अमित शाह के अलावे बीजेपी के कई कद्दावर नेताओं से सीट शेयरिंग को लेकर हो रही मुलाकात कई घटक दलों के शीर्ष नेताओं के गले की हड्डी बन रही है।

हम पहले पहले बिहार लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की उस राजनीतिक बड़ी भूल की बात कर रहे हैं जब उन्होंने एनडीए से अलग होकर पहले तो राजद और अन्य पार्टियों का समर्थन लेके अपनी सरकार बचा ली थी। फिर अकेले लोकसभा चुनाव लड़े थे, जिसके परिणामस्वरूप वे किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं थे। फिर हार का ठीकरा खुद पर फोड़ते हुए उन्होंने जीतन राम मांझी को बिहार की गद्दी सौंप दी। उसके बाद जमकर राजनीतिक कुश्ती हुई और नीतीश कुमार पुनः मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए। अब बात पूर्व विधानसभा सभा चुनाव की करते हैं जिसमें बड़े भाई और छोटे का लंबे अंतराल के बाद मिलन हुआ था। उस चुनाव में राजद बिहार की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी।

यहाँ इस बात का उल्लेख राजनीतिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण है कि राजद और कांग्रेस को नीतीश कुमार ने संजीवनी दी थी। एनडीए से अलग होना बिहार और देश की राजनीति में नीतीश कुमार के जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल थी। यह गलीज भूल नीतीश कुमार ने अति महत्वाकांक्षा और पीएम मेटेरिल होने के दिवास्वप्न में की थी। अगर उस समय नीतीश कुमार ने एनडीए के साथ चुनाव लड़ा होता, तो बिहार से राजद और कांग्रेस का अस्तित्व खत्म हो गया होता। लेकिन खुद को सामाजिक इंजीनियरिंग का मास्टर समझते हुए उन्होंने राजद को खुद से बड़ी पार्टी बनने का मौका दिया और कांग्रेस का अप्रत्याशित कद बढ़ा दिया। उस समय के लोकसभा चुनाव को याद कीजिये। लालू और नीतीश के साथ कांग्रेस और कुछ दल थे, तो भाजपा के साथ लोजपा, रालोसपा, हम सहित कुछ अन्य पार्टी थी।

बिहार में सीट शेयरिंग को लेकर खूब बबाल मचा था। उपेंद्र कुशवाहा के पास कोईरी-कुर्मी, रामविलास के पास पासवान और जीतन राम मांझी के साथ मुसहर समाज के अलावे अन्य दलित-महादलित वोट का जखीरा होने का प्रलाप हो रहा था। लेकिन अंत में काफी उठा-पटक के बाद अमित शाह ने जो मुहर लगाई, वही सभी को मान्य हुआ। उस समय चिराग पासवान का रोल सबसे महत्वपूर्ण था। फिर जब विधानसभा चुनाव हुआ, उसमें फिर रामविलास, उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी अपने-अपने तरीके से झोली भरकर सीट मांगने लगे। अमित शाह को लाचार होकर इनलोगों को कई ऐसी सीट देनी पड़ी, जहां ये अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए। जीतन राम मांझी खुद दो जगह से चुनाव लड़े जिसमें एक जगह उन्हें करारी शिकस्त मिली।

अभी उपेंद्र कुशवाहा को लेकर तरह-तरह के संवाद मीडिया में तैर रहे हैं। कुशवाहा लगातार तेजस्वी यादव के संपर्क में हैं, तो चिराग पासवान भी तेजस्वी से अपनी निकटता बढ़ा रहे हैं। अफवाह तो यह भी फैली की कुशवाहा अपने मंत्री पद से इस्तीफा देने जा रहे हैं और तेजस्वी से उनका सीट शेयरिंग मामले में बात पक्की हो गयी है। लेकिन ऐसी कोई बात नहीं है। अमित शाह सहित भाजपा के अन्य बड़े नेता पासवान और कुशवाहा के कद से भली-भांति परिचित हैं। इसबार सीट शेयरिंग हर तरह से नफा-नुकसान को तौलकर होगा। अभी की हवा के मुताबिक पासवान और कुशवाहा भाजपा पर दबाब बनाने की राजनीति कर रहे हैं।एनडीए छोड़कर निकलने की इनकी कहीं से कोई मंसा नहीं है।

वैसे राजनीति में कभी कुछ भी हो सकता है ।अमित शाह उर्फ मोटा भाई राजनीति के बेहद कुशल खिलाड़ी हैं। वे इसबार कोई भी रिस्क लेने के मूड में नहीं हैं। यह बात भी तय समझिये की नीतीश वही करेंगे,जो मोटा भाई चाहेंगे। राजनीति के अलावे कई और दरवाजे हैं जिसमें प्रवेश कराकर पासवान और कुशवाहा का मुंह बंद कराने का माद्दा अमित शाह भली-भांति रखते हैं। असल खेल अभी शुरू नहीं हुआ है। कुश्ती से पहले पहलवान और तबले पर संगत करने से पहले तबलची जो काम करते हैं,ये नेतागण अभी वही कर रहे हैं।पीटीएन न्यूज मीडिया ग्रुप के सीनियर एडिटर मुकेश कुमार सिंह 

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