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कुशवाहा को लेकर महागठबंधन में क्यों नहीं है कोई ख़ास उत्साह, जानिये इस खास रिपोर्ट में

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कुशवाहा को लेकर महागठबंधन में क्यों नहीं है कोई ख़ास उत्साह ,जानिये इस खास रिपोर्ट में

सिटी पोस्ट लाइव ( सोमनाथ पाण्डेय ) : सबके जेहन में बस एक ही सवाल उठ रहा है .उपेंद्र कुशवाहा के महागठबंधन में शामिल हो जाने के बाद बिहार की सियासत में क्या बदलाव आएगा. दिल्ली में शरद यादव, अहमद पटेल और तेजस्वी यादव की मौजूदगी में उपेन्द्र कुशवाहा महागठबंधन में शामिल हुए.लेकिन सबसे ख़ास बात ये रही कि तेजस्वी यादव उनके महागठबंधन में आने को लेकर कोई ख़ास उत्साहित नहीं दिखे. इतना ही नहीं, शरद यादव की उपेन्द्र कुशवाहा की राहुल गांधी के साथ मीटिंग कराने की योजना भी सफल नहीं हुई. जाहिर है कांग्रेस ने भी उन्हें उतनी अहमियत नहीं दी जीतनी उन्हें उम्मीद थी. गुरुवार को आरजेडी नेता तेजस्वी यादव, हम नेता जीतन राम मांझी, कांग्रेस नेता शाक्ति सिंह गोहिल और अहमद पटेल और शरद यादव की मौजूदगी में उपेन्द्र कुशवाहा ने महागठबंधन में शामिल होने का एलान किया. लेकिन यह एक बड़ा इवेंट नहीं बन पाया.

अब सवाल उठता है कि उपेन्द्र कुशवाहा के महागठबंधन में आने से NDA की सेहत पर क्या असर पड़ेगा और महागठबंधन को कितना फायदा पहुँचेगा.क्या  बिहार की राजनीति के लिए यह एक बड़ा बदलाव है.क्या उपेन्द्र कुशवाहा इससे मजबूत होगें या और कमजोर. जातीय गोलबंदी के लिहाज से भी एक नया समीकरण जरुर बना है. लेकिन सवाल ये है कि उपेन्द्र कुशवाहा के इस एनडीए छोड़ने और महागठबंधन में शामिल होने का असर धरातल की राजनीति पर कितना होगा.

2014 के लोकसभा चुनाव में कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी का एनडीए  के साथ गठबंधन था. लेकिन पार्टी अकेले दम पर महज 3 प्रतिशत वोट ही ला पाई थी. दूसरी ओर, उस समय नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने 2014 के चुनाव में अकेले 15 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था. जाहिर है वोट शेयर के मामले में आरएलएसपी JDU से बहुत ज्यादा पिछड़ गई .JDU ने उससे पांच गुना ज्यादा वोट शेयर हासिल कर लिया. 2015 के विधानसभा चुनाव में भी आरएलएसपी के साथ आने के बाद भी कुशवाहा वोटर एनडीए के साथ खड़े नहीं हो पाए थे.उपचुनावों में भी कुशवाहा समाज ने एनडीए का साथ नहीं दिया था, यानी उपेन्द्र कुशवाहा फैक्टर का फायदा एनडीए को अधिक नहीं मिला.

चुनावी गणित के लिहाज से देखें तो बिहार की 243 विधानसभा सीटों में करीब 63 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां कुशवाहा समुदाय के मतों की संख्या 30 हजार से ज्यादा है. किसी भी विधानसभा में 30 हजार मतदाता बहुत अहम फैक्टर हैं. इसके अलावा बाकी विधानसभा सीटों पर भी कुशवाहा मतदाता की संख्या मामूली नहीं है. लेकिन सवाल यही उठता है कि उपेन्द्र कुशवाहा में अपनी बिरादरी के वोट ट्रान्सफर कराने की कितनी क्षमता है. बिहार में कुशवाहा समुदाय के 7 फिसद वोटर हैं. अब तक इस तबके का नेत्रित्व नीतीश कुमार ही करते आ रहे हैं. बिहार में अब सियासी समीकरण भी बदल गए हैं. नीतीश कुमार एनडीए गठबंधन में हैं. जाहिर है गठबंधन का वोट शेयर और बढ़ने की संभावना है. निजी चैनलों के तमाम सर्वे भी यही बता रहे हैं कि नीतीश के आने से एनडीए की स्थिति मजबूत है. ऐसी स्थिति में अगर कुशवाहा एनडीए से अलग भी होते हैं तो बीजेपी को इसका खास मलाल नहीं होगा.

राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आज भी  कुशवाहा मास के नहीं, मीडिया के लीडर रहे हैं. जमीन पर उनका जनाधार उतना कभी नहीं रहा है, जितना उन्हें महत्व मीडिया में मिलता रहा है. साढ़े चार साल तक केंद्रीय मंत्री रहते हुए भी कुशवाहा का व्यवहार  सीजन्ड पॉलिटिशियन का रहा है. ऐसे में उनकी विश्वसनीयता पर हमेशा सवाल रहे हैं. वहीं 2005 में सत्ता में आने के बाद अपने काम की बदौलत नीतीश कुमार की विश्वसनीयता लोगों के बीच बड़ी है. 15 साल में काम के बदौलत बिहार की राजनीति में अपना एक इम्पैक्ट बना लिया है. दलितों- अति-पिछड़ों के साथ साथ महिलाओं के हित में उन्होंने कई महत्वपूर्ण फैसले लेकर अपना एक अलग वोट बैंक बनाया है. हालांकि हाल के दिनों में बढ़ते अपराध की वजह से कानून-व्यवस्था की उनकी यूएसपी को झटका लगा है. लोगों का विश्वास थोडा डगमगाया है. लेकिन अभी भी उनसे बेहतर प्रशासन देने वाला कोई चेहरा सामने नहीं है. इसलिए कानून व्यवस्था में आई गिरावट उनकी हार जीत की वजह नहीं बन सकती.

उपेन्द्र कुशवाहा तो महागठबंधन में शामिल हो गए हैं. लेकिन उनकी पार्टी चिन्न-भिन्न हो गई है. उनकी पार्टी के दो विधायक और एक मात्र एमएलसी ने साथ छोड़ एनडीए का दामन थाम लिया है. भगवन सिंह जैसे बड़े नेता भी साथ छोड़ चुके हैं.कुशवाहा का साथ देते नजर आ रहे  सांसद अरुण कुमार भी एनडीए के साथ बने रहने के पक्ष में  दलील देते रहे हैं. जाहिर है  जिस ‘सियासी खीर’ की उम्मीद उपेन्द्र कुशवाहा कर रहे थे शायद उसका स्वाद कुछ खास न हो. क्योंकि इसका राजनीतिक लाभ उन्हें उतना नहीं मिलने जा रहा जितने की वे उम्मीद किए बैठे हैं. उनके महागठबंधन में आने का फायदा  आरजेडी को थोडा बहुत जरुर मिल जाएगा लेकिन उपेन्द्र कुशवाहा को कुछ ख़ास हासिल होनेवाला नहीं है.

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