मोदी समर्थन और मोदी विरोध की पत्रकारिता तक सिमटा मीडिया
मीडिया में बदलाव के लिए याद किया जाएगा गुजरा साल ,बन गया सबसे ज्यादा मुनाफे का कारोबार.
मीडिया में बदलाव के लिए याद किया जाएगा गुजरा साल
सिटी पोस्ट लाइव : आज से वर्ष 2020 यानी नए साल की शुरुवात हो गई है.हर खबरिया चैनलों पर, अखबारों में पिछले एक साल की प्रमुख घटनाएं छाप रही हैं.पिछले एक साल में कौन कौन सी बड़ी घटनाएं-दुर्घटनाएं हुईं, क्या क्या बदलाव हुआ, सबकी समीक्षा हो रही है लेकिन जिस क्षेत्र में सबसे ज्यादा बदलाव हुआ, वह क्षेत्र है मीडिया का. लेकिन आज नए साल में इसकी चर्चा कोई नहीं कर रहा. मीडिया की भूमिका, मीडिया का चरित्र और मीडिया का कारोबार का स्वरूप कितना बदला है, इसके ऊपर न तो कोई कुछ लिख रहा है और ना ही कोई कुछ बोल रहा है. लिखे और बोले भी कैसे.कौन दूध का धुला है. कोई विरोध में तो कोई समर्थन में हर कोई मीडिया के मंच का जबर्दश्त दुरुपयोग कर रहा है.
मीडिया का स्वरूप इतना बदल गया है, मीडिया का चरित्र ऐसा हो चूका है, कि उसकी विश्वसनीयता खतरे में नहीं बल्कि पूरी तरह से ख़त्म हो गी है.मीडिया प्रमुख रूप से दो भागों में बाँट गया है.एक मोदी समर्थन तो दूसरा मोदी विरोध. सच्चा,निर्भीक,संतुलत स्वरूप मीडिया का बिरले कहीं नजर आ रहा है. सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर होनी चाहिए कि देश की जनता भी बदल गई है. वह या तो मोदी के समर्थन या फिर मोदी के विरोध को ही असली पत्रकारिता मान बैठी है.जनता भी आज उस मीडिया की तलाश नहीं कर रही है, या फिर उस मीडिया मंच को फॉलो नहीं कर रही जो सच्चा है, निर्भीक और तथस्त है.ये लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है.
साल 2019 भारतीय मीडिया में बड़े बदलाव के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा. मीडिया में ये बदलाव का दौर पहले से चल रहा था और नए ट्रेंड छिपे हुए नहीं थे, मगर इस साल जैसे वे अपने चरम पर पहुँच गए.अब भारतीय मीडिया की दिशा और दशा दोनों बिल्कुल साफ़ दिखने लगी हैं. मीडिया में इस बदलाव की वजह समझाने के लिए ये जान लेना बहुत जरुरी है कि आर्थिक मंदी के खतरनाक दौर से गुजर रहे इस देश में करीब ग्यारह फ़ीसदी की दर से मीडिया इंडस्ट्री का विकास हो रहा है.मीडिया इंडस्ट्री अब एक लाख करोड़ से ज़्यादा की हो गई है. संभावना है कि साल 2024 तक ये तीन लाख करोड़ का आँकड़ा पार कर जाएगी.
पत्र-पत्रिकाओं की संख्या एक लाख पंद्रह हज़ार से ऊपर हो गई है. टीवी चैनल 900 तक पहुँचने वाले हैं. एफएम रेडियो का जाल पूरे देश में बिछ गया है. डिज़िटल मीडिया का विकास दर सबसे अधिक है. विज्ञापनों से आने वाला राजस्व ज़रूर अपेक्षा के अनुसार नहीं बढ़ रहा, फिर भी वह ठीक-ठाक है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल- आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे देश में मीडिया इंडस्ट्री के उत्थान का राज क्या है. क्या यहीं तेजी मीडिया के चरित्र और भूमिका में बदलाव का प्रमुख कारण है. या फिर यह तेजी इस बात की तरफ ईशारा कर रहा है कि हमारा मीडिया एक लोकतांत्रिक देश में अपनी असली भूमिका का निर्वहन करने की बजाय महज एक सबसे ज्यादा मुनाफे वाला कारोबार बनकर रह गया है.इसमे शक की कोई गुंजाइश नहीं कि गुजरे साल ने मीडिया व्यावसायिक चरित्र, उसके इरादों और सरोकारों को उजागर कर दिया है.
अपने देश में ये साल आम चुनाव का था. हर चुनाव मीडिया के लिए लाभकारी और परिवर्तनकारी होता है. लेकिन इसबार तो ऐसा परिवर्तन मीडिया के चरित्र और भूमिका में दिखा है कि मीडिया का मतलब ही बदल गया है. पुलवामा में हुआ आतंकवादी हमला था. इस हमले के बाद बालाकोट पर वायुसेना की सर्जिकल स्ट्राइक और फिर अभिनंदन की रिहाई ने न केवल चुनाव का एजेंडा बदल दिया, बल्कि इससे राजनीति का नरैटिव ही बदल गया.जिस सरकार की वापसी को लेकर संदेह ज़ाहिर किए जा रहे थे, उसकी जीत को इसने सुनिश्चित कर दिया. पुलवामा के बाद देश में राष्ट्रोन्माद की एक लहर पैदा की गई. इसमें राजनीति का योगदान तो था ही, मगर मीडिया की भूमिका भी कम नहीं थी. उसने सत्ताधारी दल की ज़रूरत के अनुरूप चुनावी एजेंडा तय करने में बड़ी भूमिका निभाई.
सच तो ये है कि मीडिया इसबार सत्तारूढ़ दल और विपक्ष का प्रवक्ता बन गया. ये दीगर बात है कि विपक्ष का प्रवक्ता बना मीडिया कमजोर साबित हुआ और मोदी का प्रवक्ता बना मीडिया विपक्ष को कठघरे में खड़ा करके सत्तापक्ष के अनुकूल माहौल बनाने में सफल रहा. नतीजा बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की अभूतपूर्व जीत के रूप में सामने आया.मोदी की जीत के साथ ही उग्र राष्ट्रवाद को नए पंख लग गए. मीडिया भी उसके सहारे उड़ने लगा. तमाम मीडिया संस्थान इस अति-राष्ट्रवाद का झंडा उठाकर चलने लगे. इसका मतलब ही था बीजेपी का अंध-समर्थन और उसके विरोधियों का अंध-विरोध.अब हमारे सामने प्रश्न पूछने वाला, जवाबदेही तय करने वाला और आलोचना करने वाला नहीं, कीर्तन करने वाला भक्त-मीडिया था और जो आलोचना करनेवाला मीडिया था वह इतना बड़ा आलोचक बन गया कि वह भी भरोसेमंद नहीं रहा.
दोबारा सत्ता में आने के आत्मविश्वास से भरी सरकार ने मीडिया पर अपना नियंत्रण और भी बढ़ाना शुरू कर दिया. नतीजतन, जो थोड़ी-बहुत आज़ादी चुनाव के पहले के मीडिया में दिखलाई दे रही थी, वह भी ग़ायब हो गई. सरकार का एजेंडा उसका एजेंडा हो गया. वह सरकार की प्रोपेगंडा मशीनरी की तरह काम करने लगा.सरकार के प्रति इस बढ़ती वफ़ादारी का असर हमें बार-बार दिखा. टीवी-अख़बारों का कंटेंट मुसलमान और पाकिस्तान तक सीमित रहने लगा. अर्थव्यवस्था पर गहराते संकट की ख़बरें हाशिए पर धकेल दी गईं. सरकार की नाकामियों पर बात करने का तो रिवाज़ ही जैसे ख़त्म हो गया.
न्यूज़ चैनलों पर होने वाली नब्बे प्रतिशत चर्चाएं हिंदू-मुस्लिम पर होने लगीं. उनमें घूम-फिरकर सांप्रदायिक उन्माद को हवा देने वाली नफ़रत और हिंसा से सनी झड़पों के दृश्य रचे जाने लगे. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एजेंडे से लैस सरकार उन्हें इसके लिए मुद्दे उपलब्ध करवाती रही.वह तीन तलाक, धारा 370, अयोध्या विवाद और नागरिकता संशोधन जैसे मुद्दे एक-एक करके लाती रही और मीडिया उन्हें उसकी इच्छा के अनुरूप पैकेज करके परोसता रहा. गौरक्षा और मॉब लिंचिंग जैसे मसले तो पहले से थे ही, इतिहास और पहले से चले आ रहे स्टीरियोटाइप्स का भी इस्तेमाल इसके लिए किया गया.
कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के बाद तो उसका रवैया एकदम से संविधान विरोधी ही हो गया. उसे कश्मीरियों के मौलिक अधिकारों की कोई चिंता नहीं रही, बल्कि सरकारी दमन को वह जायज़ ठहराता रहा. यहाँ तक कि उसे अपनी स्वतंत्रता की भी चिंता नहीं रही.उसके इसी रवैये का असर था कि लोग विदेशी मीडिया का रुख़ करने लगे. विडंबना देखिए कि एक बार भारतीय मीडिया की तुलना में विदेशी मीडिया उन्हें ज़्यादा भाने लगा. उन्हें विदेशी चैनल और पत्र-पत्रिकाएं अधिक विश्वसनीय लगने लगे.उन्हें लगने लगा कि अघोषित आपातकाल से गुज़र रहा भारतीय मीडिया सच नहीं बताएगा, इसके लिए तो उन्हें बीबीसी, द गार्डियन और वॉशिंगटन पोस्ट की मदद लेनी पड़ेगी. तुलना की इस प्रक्रिया में ये और भी ज़्यादा उजागर हो गया कि भारतीय मीडिया कतई स्वतंत्र नहीं है. उसकी बची-खुची साख़ भी धूल धूसरित हो गई.
इस तरह साल के अंत तक मीडिया का चरित्र पूरी तरह से बदल चुका था. विचारों की विविधता और बहुलता ख़त्म हो गई. मतभेदों को अपराध बना दिया गया. हेट न्यूज़ या हेट कंटेंट अख़बारों के पन्नों से लेकर टीवी स्क्रीन तक हर जगह पसर गया.नए मीडिया की कमान बाज़ारवादी-राष्ट्रवादी-सवर्णवादी पत्रकारों के हाथ में जा चुकी है. ज़ाहिर है कि दलित-आदिवासियों की चिंताएं उसके दायरे से बाहर हो चुकी हैं. अगर बलात्कार न हो तो महिलाओं पर भी वह वक़्त बरबाद न करे. अल्पसंख्यक तो उसके सीधे निशाने पर हैं.
मानवाधिकार कार्यकर्ता, स्वयंसेवी संगठनों से जुड़े लोग, वामपंथी और उदारवादी भी उसके लिए खलनायक बन गए हैं. वह इन्हें कभी टुकड़े-टुक़ड़े गैंग की संज्ञा देता है तो कभी अर्बन नक्सलाइट बताता है. इनका चरित्र हनन करना और जनता की निगाहों में उन्हें देशद्रोही बनाना उसके अघोषित लक्ष्यों में से एक बन गया है.ऐसा नहीं है कि मीडिया का ये रूप उसकी सहमति या इच्छा से निर्मित हुआ है. ये सही है कि मीडिया में इनके प्रति स्वाभाविक रुझान रहा है. ऐसा उसकी आंतरिक संरचना की वज़ह से भी है. वह सत्ता, उच्च-मध्यवर्ग और अपरकास्ट की ओर पहले से झुका हुआ है. मगर इसके लिए सरकार ने हर हथकंडा भी अपनाया है.
सरकार ने कभी संकेतों में तो कभी बाकायदा एडवायज़री और चेतावनियाँ देकर मीडिया को धमकाया है. उसने कई बड़े अख़बारों के विज्ञापन रोककर मीडिया जगत में भय पैदा किया. उसकी भृकुटियाँ तनीं देखकर कई संपादकों और पत्रकारों को संस्थानों से निकाला गया. उसने भय का ऐसा वातावरण बनाया कि मीडिया झुकने के बजाय रेंगने लगा.मीडिया का नया चरित्र दूसरे माध्यमों जैसे सोशल मीडिया के प्रभाव-दबाव से भी बना. सोशल मीडिया में अतिरंजित टिप्पणियाँ और भड़काऊ कंटेंट की सफलता ने उसे भी ललचाया और वह भी उसके जैसा बनने लगा. लेकिन इस मीडिया पर सरकार और सत्तारूढ़ दल का ज़ोर काम कर रहा था.
फ़ेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्वीटर और यू ट्यूब में जो कंटेंट पैदा हो रहा है वह कई तरह के अविश्वसनीय स्रोतों से भी आ रहा है. इसमें राजनीतिक दलों के आईटी सेल भी हैं, ट्रोलर भी हैं और बाज़ार की ताक़तें भी. इसीलिए फ़ेक न्यूज़ का असर उस पर भी दिखलाई देने लगा.मीडिया इंडस्ट्री में आ रहे बदलाव भी बड़ी वजहों में से एक हैं. एक तो तकनीक मीडिया यूजर्स के व्यवहार में व्यापक बदलाव लाई है. स्मार्ट फ़ोन अब ख़बरें और दूसरे कंटेंट देखने का सबसे बड़ा प्लेटफ़ॉर्म बन गया है और उसकी अपनी सीमाएं भी हैं. इस प्लेटफ़ॉर्म के हिसाब से कंटेंट तैयार करना और दूसरों से होड़ लेना बड़ी चुनौती है.मीडिया में बड़ी पूँजी वाले कॉर्पोरेट का बढ़ता वर्चस्व भी उसकी स्वतंत्रता को ख़त्म कर रहा है. कॉर्पोरेट अपने स्वार्थों के लिए मीडिया को हथियार बना रहे हैं और इस क्रम में उन्होंने सत्ता से गठजोड़ कर लिया है. ये प्रवृत्ति इस साल और भी बढ़ी है.
ज़ाहिर है कि पहले बाज़ार और उसके द्वारा पैदा की गई प्रतिस्पर्धा ने पत्रकारिता को मूलभूत उद्देश्यों और आचरण संहिता से भटका दिया था, मगर अब वह भटका नहीं है, उसने घर ही बदल लिया है.दुर्भाग्य ये है कि लोगों ने आचरण संहिता की बात करना लगभग बंद कर दिया है. आत्म नियमन के उपाय पूरी तरह नाकाम होने के बाद अब जबकि मीडिया को रेगुलेट करने के लिए किसी स्वतंत्र नियामक संस्था की ज़रूरत महसूस हो रही है तो कहीं कोई सुगबुगाहट ही नहीं हो रही है.इसके उलट, दुनिया भर में, ख़ास तौर पर यूरोप में सोशल मीडिया प्रदान करने वाली कंपनियों को कसने का काम शुरू हो गया है. अधिकांश देश कड़े नियमन की तरफ बढ़ रहे हैं. भारत में इस दिशा में जो कुछ किया जा रहा है उसका मक़सद कुछ और है. मीडिया को आचरण संहिता का पालन करने के लिए मजबूर करने के बजाय प्रतिरोध को दबाने की मंशा ज़्यादा है.
Comments are closed.