मांझी डुबाएंगे महागठबंधन की नैया? बीच मंझधार महागठबंधन के सवार
सिटी पोस्ट लाइवः क्या नये सहयोगियों के लिए पुराने सहयोगी किनारे लगा दिये गये हैं? क्या नये दोस्ती का बोझ महागठबंधन को भारी पड़ रहा है और क्या मांझी डूबाएंगे महागठबंधन की नैया? इन तमाम सवालों को बिहार की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों ने जन्म दिया है। एनडीए को नागनाथ और महागठबंधन को सांपनाथ कहने वाले बिहार के पूर्व सीएम जीतन राम मांझी क्या किसी नये सरप्राइज देने की तैयारी कर रहे हैं क्योंकि राजनीति में बयानों और संकेतों के अपने मायने होते हैं और चुनावी मौसम में तो हर बयान और संकेत बेहद महत्वपूर्ण होता है। चाहे महागठबंधन हो, चाहे एनडीए हो हर राजनीतिक खेमे की कहानी और समस्या एक सी हीं है हालाकि एनडीए में सीट शेयरिंग के औपचारिक एलान के बाद वहां खींचतान तकरीबन खत्म हुई है लेकिन पेंच अब महागठबंधन खेमे में फंसता नजर आ रहा है।
दरअसल दिक्कत यह है कि राजद ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है, दूसरी तरफ मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जीत से उत्साहित कांग्रेस को बिहार में कम से कम उतनी हिस्सेदारी जरूर चाहिए जो एनडीए में बीजेपी ने जेडीयू को दी है। यानी कांग्रेस चाहेगी कि वो राजद के बराबर सीटों पर चुनाव लड़े। उपेन्द्र कुशवाहा की अपनी डिमांड है, मुकेश सहनी की अपनी डिमांड है और पूर्व सीएम मांझी की अपनी डिमांड है। दरअसल मसला दो तरह का है एक तो सीटों की संख्या दूसरी कौन सी सीट किस पार्टी को मिलेगी। वक्त कम है और बदली राजनीतिक परिस्थिति ने राजनीतिक समीकरणों को पूरी तरह बदल दिया है। ऐसा भी कह सकते हैं कि बदली परिस्थितियों ने कई मायनों में समीकरणों को बिगाड़ भी दिया है। जीतन राम मांझी के बयान को इसी का साइड इफेक्ट कह सकते हैं। एनडीए छोड़कर महागठबंधन में शामिल होने वाले मांझी यूं हीं नही बोलते, वे जब बोलते हैं तो नये पाॅलिटिकल सरप्राइज का इशारा कर जाते हैं। हांलाकि हम यह कतई नहीं कह रहे कि जीतन राम मांझी महागठबंधन छोड़ देंगे, ऐसा कहना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन तय मानिए जीतन राम मांझी जो बोल गये हैं उसका असर होगा। महागठबंधन में उस बयान को लेकर हलचल है। सवाल है कि क्या जीतन राम मांझी की हैसियत महागठबंधन में वही रह गयी है जो एनडीए में उपेन्द्र कुशवाहा की थी? क्या जीतन राम मांझी ने अपना दर्द बयां किया है? क्या यह दर्द उपेक्षा का है, उचित सम्मान नहीं मिलने का है या फिर मांगो के नहीं पूरा होने से आशंकित मांझी की व्यथा है?
इसलिए सवाल है कि क्या मांझी महागठबंधन की नैया डुबाएंगे? क्या वे महागठबंधन की नयी मुश्किल हैं क्योंकि जीतन राम मांझी आसानी से मान जाने वालों में से नहीं है और मांगों पर मुहर नहीं लगती तो खेमे बदल लेना उनके लिए कोई बड़ी बात भी नहीं है। यह सवाल भी है कि आखिर मुकेश सहनी और उपेन्द्र कुशवाहा के साथ पूर्व सीएम मांझी लालू से मिलने क्यों नहीं गये। अगर उपेन्द्र कुशवाहा के महागठबंधन में शामिल होने वाले अहमद पटेल की प्रेस काॅन्फ्रेंस को अपवाद माने तो जीतन राम मांझी और तेजस्वी यादव, लालू यादव या कांग्रेस के दूसरे नेता से बात-मुलाकात की कोई खबर नहीं है, कोई तस्वीर नहीं है, मांझी खेमे में भी सीट शेयरिंग को लेकर खामोशी है और जब खामोशी टूटती है तो नागनाथ और सांपनाथ वाला बयान सामने आता है। जाहिर है महागठबंधन की नांव अभी मंझधार में ही है, और मंझधार में है इस नाव के सवार क्योंकि तय कुछ नहीं है अभी और उलझनें बहुत हैं, राह आसान नहीं दिखती उपर से मांझी के बयान और यह कयास कि मांझी महागठबंधन की नाव डुबा सकते हैं यानि महागठबंधन के लिए मुश्किलें खड़़ी कर सकते हैं जाहिर है बिहार की राजनीति एक दिलचस्प मोड़ पर है, जहां क्लाइमेक्स के खत्म होने का इंतजार है ताकि 2019 से पहले हर धुंधली तस्वीर पूरी तरह साफ हो सके लेकिन यह राजनीति का मिजाज है यहां तस्वीरें धीरे-धीरे साफ होती है।
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