जेपी नड्डा बने BJP के राष्ट्रीय अध्यक्ष, अमित शाह जैसा परफॉर्म करने की बड़ी चुनौती
अब दो लोगों की जगह चार लोगों की BJP बन गई है पार्टी, इसे मन जा रहा BJP में नए युग की शुरुवात.
जेपी नड्डा बने BJP के राष्ट्रिय अध्यक्ष, अमित शाह जैसा परफॉर्म करने की बड़ी चुनौती.
सिटी पोस्ट लाइव : जगत प्रकाश नड्डा को भारतीय जनता पार्टी के नये अध्यक्ष बनाए जाने के साथ ही पार्टी में नए दौर का आगाज हो गया है. स्वभाव से मृदुभाषी, सबको साथ लेकर चलने वाले, नफ़ासत पसंद और आराम से काम करने वाले नड्डा के राजनीतिक जीवन के अगले तीन साल बेहद चुनौतीपूर्ण साबित होनेवाले हैं. संगठन में अमित शाह की जगह लेनेवाले जगत प्रकाश नड्डा को अमित शाह की तरह पार्टी के लिए कुछ ख़ास करके दिखाना होगा.
जेपी नड्डा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के क़रीबी हैं. पर मोदी और शाह दोनों ही संबंध से ज्यादा काम और परिणाम को अहमियत देते हैं. नड्डा मिमिक्री के उस्ताद हैं. राजनीतिक वज़न (क़द) बढ़ने के साथ ही उनके लिए बड़ी चुनौती अपने शारीरिक वज़न घटाने की है.आजकल वो दो ही वक़्त खाना खाते हैं. राजनीतिक जीवन में उन्हें परिश्रम से ज़्यादा फल ही मिला है. उनका राजनीतिक कायांतरण 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगने के बाद हुआ. उसके बाद उनके राजनीतिक स्वभाव में थोड़ी आक्रामकता आई. साल 1993 में पहली बार विधायक बने और एक साल में विपक्ष के नेता बन गए. दूसरी और तीसरी बार जीते तो हिमाचल सरकार में मंत्री बने. उसके बाद कभी विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा और राज्यसभा के सदस्य बन गए.
हिमाचल की राजनीति में प्रेम कुमार धूमल और शांता कुमार की गुटबाज़ी से दूरी बनाकर रखी. मोदी जब पार्टी महामंत्री के नाते हिमाचल के प्रभारी थे तो लगातार उनके साथ रहे. तब की दोस्ती भी 2014 में काम आई. वे साढ़े पाँच साल पहले भी अध्यक्ष पद की दौड़ में थे पर अमित शाह से मात खा गए. फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल की शोभा बने.
इस बार मोदी जीते तो जेपी नड्डा मंत्री नहीं बने. उससे मायूसी में थे. पर कुछ समय बाद ही उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया. उनकी वैचारिक निष्ठा और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता पर किसी को कोई शक नहीं है. पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का कहना है कि उनके पास कोई काम लेकर जाए तो बातचीत से संतुष्ट होकर लौटता है. लेकिन किसी का काम कभी होता नहीं है. सवालों को टालने में दक्ष हैं. जानकारी सब होती है पर बताते कुछ नहीं. पत्रकारों से अच्छी दोस्ती हो जाती है पर पार्टी की जानकारी देने में अमित शाह की ही तरह मितव्ययी हैं.
उन्हें जो दायित्व मिला है उसके लिए उनका स्वभाव सबसे बड़ी बाधा है. उनका दुर्भाग्य कहिए या सौभाग्य कि अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी अमित शाह के बाद मिल रही है. सौभाग्य इसलिए कि अमित शाह ने पिछले साढ़े पाँच साल में पार्टी के संगठन का ढांचा ही नहीं कार्यसंस्कृति भी बदल दी है.पुराने लोग शिकायत करते हैं कि पहले वाली बीजेपी नहीं रही. नये लोग ख़ुश हैं कि मोदी शाह की नई कार्य संस्कृति ने पार्टी में जीत की भूख जगा दी है. अब चुनाव हारने के बाद बड़े नेता सिनेमा देखने नहीं जाते. हार बुरी लगती है और जीत का जश्न मनाया जाता है. दुर्भाग्य इस मायने में कि अमित शाह ने जो लकीर खींच दी है उसे बड़ा करने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ेगा. फिर भी कामयाबी की गारंटी नहीं.
हिमाचल प्रदेश या केंद्र में मंत्री के रूप में अपने कामकाज से जेपी नड्डा कोई छाप छोड़ने में सफल नहीं रहे हैं. उनकी परफ़ॉर्मेंस औसत दर्जे की ही रही है. फिर हिमाचल या देश के दूसरे राज्यों में भी भाजपा की ‘भाई साहब’ वाली जो संस्कृति रही है वह अब नहीं चलने वाली. नड्डा इसी राजनीतिक संस्कृति में पले बढ़े हैं. अमित शाह को लाभ मिला कि वे कम उम्र से ही मोदी की कार्य संस्कृति का हिस्सा रहे.
नड्डा के सामने चुनौतियां बहुत सी हैं. अमित शाह की भी यह ख़ूबी थी कि वे प्रधानमंत्री के इशारे को समझते थे. इसलिए उन्हें पार्टी चलाने या कड़े और बड़े फ़ैसले लेने में कोई समस्या नहीं हुई. क्या नड्ड़ा ऐसा कर पाएंगे. लोकसभा चुनाव के दौरान इस बार उत्तर प्रदेश का प्रभार जेपी नड्डा के पास था.किसी चर्चा में पार्टी के एक नेता ने अमित शाह से नड्डा जी के स्वभाव के बारे में पूछा. अमित शाह का संक्षित सा जवाब था- नड्डा जी सुखी जीव हैं. अब आप इसका मतलब अपने हिसाब से निकाल सकते हैं.
अब दो प्रश्न उठते हैं. एक, नड्ड़ा के स्वभाव के बारे में जानते हुए भी उन्हें इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी क्यों सौंपी जा रही है? इसी से उपजा है दूसरा सवाल. क्या अमित शाह नेपथ्य से पार्टी चलाएंगे. दूसरे सवाल का जवाब पहले. नहीं, नड्डा को काम करने की पूरी आज़ादी मिलेगी और मदद भी. मोदी शाह का पिछले पाँच साल का दौर देखें तो आप पाएंगे कि जिसे ज़िम्मेदारी सौंपी उस पर पूरा भरोसा किया. फिर उसके कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करते. फिर वह मुख्यमंत्री हो या प्रदेश अध्यक्ष. अच्छे बुरे में उसके साथ बराबर खड़े रहते हैं.
पहले सवाल का जवाब यह है कि फ़ैसला एक दिन या एक दो महीने में नहीं लिया गया है. यह दूरगामी रणनीति के तहत सोचा समझा फ़ैसला है.जेपी नड्डा को अध्यक्ष बनाने का फ़ैसला काफ़ी पहले कर लिया गया था. इसीलिए राम लाल को हटाकर कर्नाटक के बीएल संतोष को राष्ट्रीय महामंत्री(संगठन) बनाया गया. संतोष नड्डा के बिल्कुल विपरीत स्वभाव वाले हैं. हार्ड टास्क मास्टर. नतीजे में कोई मुरव्वत नहीं करते. सख्ती उनकी रणनीति नहीं, स्वाभव का अंग है.
नड्डा और संतोष की जोड़ी, एक दूसरे की पूरक है. जहां जेपी नड्डा के मृदु स्वभाव से काम नहीं चलेगा, वहां उंगली टेढ़ी करने के लिए बीएल संतोष हैं. अब संगठन का नीचे का काम वही देखेंगे. बीएल संतोष पर मोदी-शाह का नहीं संघ का भी वरदहस्त है. इसलिए बीजेपी में एक नये दौर का आग़ाज़ होने वाला है. विरोधियों के मुताबिक़ बीजेपी दो लोगों की पार्टी है. उसे सच मान लें तो अब बीजेपी चार लोगों की पार्टी होने जा रही है.
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