उपेन्द्र कुशवाहा के महागठबंधन में जाने से BJP को कम RLSP को ज्यादा नुकशान
सिटी पोस्ट लाइव (कनक प्रत्यूष ) : बिहार में मुख्यरूप से लड़ाई दो ही गठबन्धनों के बीच है. महागठबंधन और एनडीए के बीच सीधी लड़ाई है. ऐसे में बिहार एनडीए के अंदर उपेन्द्र कुशवाहा को लेकर मचे घमशान का असर दोनों गठबन्धनों के ऊपर पड़ रहा है. दोनों पर असर इसलिए क्योंकि उपेन्द्र कुशवाहा अभी एनडीए के साथ हैं लेकिन उनके महागठबंधन में जाने की संभावना बनी हुई है. महागठबंधन में तो आरजेडी-कांग्रेस-बाम दल और हम पार्टी हैं.जब सीटों के तालमेल को लेकर बात शुरू होगी तब पता चलेगा कि इनमे से कौन कौन महागठबंधन में रहते हैं. उसी तरह से बिहार एनडीए में बीजेपी-रालोसपा-एलजेपी और जेडीयू शामिल हैं. रालोसपा कब तक एनडीए के साथ रहेगा कह पाना मुश्किल है. उपेन्द्र कुशवाहा की महागठबंधन के कई नेताओं से मुलाकात कर चुके हैं. शरद यादव और तेजस्वी यादव से उनकी मुलाकात के बाद उनके एनडीए में बने रहने की संभावना कमजोर दिखने लगी है.
अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि अगर उपेन्द्र कुशवाहा एनडीए छोड़ते हैं और महागठबंधन में शामिल होते हैं, तो बिहार की राजनीति पर इसका क्या असर होगा? कितना नुकशान एनडीए को होगा और कितना फायदा महागठबंधन को.राजनीति के जानकारों का कहना है कि उपेन्द्र कुशवाहा के एनडीए से अलग होने से एनडीए को कम उपेन्द्र कुशवाहा का ज्यादा नुकशान होगा और थोडा बहुत फायदा महागठबंधन को होगा.जिस तरह से नीतीश कुमार की मुखालफत के साथ बीजेपी के साथ जुड़े रहने की मजबूरी कुशवाहा दिखा रहे हैं, उससे उनको नुकशान होगा. उपेन्द्र कुशवाहा अपना स्टैंड और विचार लगातार बदलते रहने के कारण बहुत कमजोर हो रहे हैं. दूसरी तरफ कुशवाहा के मुकाबले नीतीश कुमार की विश्वसनीयता अब भी बनी हुई है. ऐसे में बीजेपी ने भी नीतीश कुमार पर अपना भरोसा जताकर उपेन्द्र कुशवाहा को उनकी कीमत बता दी है.
2014 के लोकसभा चुनाव में कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी एनडीए के साथ थी. लेकिन पार्टी अकेले दम पर महज 3 प्रतिशत वोट ही ला पाई. दूसरी ओर, उस समय नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने 2014 के चुनाव में अकेले 15 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था.जाहिर है वोट शेयर के मामले में आरएलएसपी से जेडीयू ने पांच गुना ज्यादा वोट शेयर हासिल किए थे. 2015 के विधानसभा चुनाव में आरएलएसपी के साथ आने के बाद भी कुशवाहा वोटर एनडीए के साथ नहीं आए थे. यही नहीं, कई उपचुनाव में भी कुशवाहा समाज ने एनडीए का साथ नहीं दिया है.
दूसरी ओर अब सियासी समीकरण बदल गए हैं. नीतीश कुमार एनडीए गठबंधन में शामिल हो गए हैं. उनके एनडीए से जुड़ने से इस बात की पूरी संभावना है कि गठबंधन का वोट शेयर और बढ़ेगा. तमाम सर्वे भी यही बता रहे हैं कि नीतीश के आने से एनडीए की स्थिति और मजबूत हो गई है. ऐसी स्थिति में अगर कुशवाहा एनडीए से अलग भी होते हैं तो बीजेपी को इसका खास मलाल नहीं होगा.राजनीतिक पंडितों का मानना है कि 2013 में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के गठन के बाद भी कुशवाहा मास के नहीं मीडिया के लीडर रहे हैं. जमीन पर उनका जनाधार नगण्य है. उन्होंने कहा कि चार साल तक केन्द्रीय मंत्री रहते हुए भी कुशवाहा की छवि एक सीजन्ड पॉलिटिशियन की रही है. ऐसे में उनकी विश्वसनीयता को लेकर हमेशा सवाल उठते रहे हैं. दूसरी ओर 2005 में नीतीश अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रहे हैं. 15 साल में काम की बदौलत बिहार की राजनीति में वो अपने लिए एक खास तरह का इम्पैक्ट बनाने में सफल रहे हैं.
उपेन्द्र कुशवाहा को एनडीए में कितना कम महत्व मिल रहा है इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रामविलास पासवान भी नीतीश कुमार के पक्ष में खड़े हैं. दूसरी ओर अमित शाह से बार-बार समय मांगने के बाद भी कुशवाहा को मिलने का वक्त नहीं मिल रहा है. जाहिर है सियासी नफा-नुकसान को देखकर बीजेपी ने भी यह आकलन कर लिया है कि कुशवाहा एनडीए के फॉर्मूले के तहत 2 सीटों पर मान गए तो ठीक, नहीं तो उन्हें बॉय-बॉय करने में भी एनडीए को कम और कुशवाहा का नुकसान ज्यादा होगा.
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