सिटी पोस्ट लाइव, रांची: आदिवासी हिन्दू नहीं हैं, झारखंड के मुख्यमंत्री के इस बयान के बाद पूरे देश में इसे लेकर एक नयी बहस छिड़ गयी है। इस बीच गृह विभाग की ओर से यह आधिकारिक वक्तव्य सामने आये आया है कि झारखंड में निवास करने वाली 32 जनजातीय समुदायों की पूजा-पद्धति, रीति-रिवाज, जन्म-मृत्यु संस्कार और पर्व त्योहार अन्य धर्मावलंबियों से भिन्न है।
वर्ग जाति का भेदभाव नहीं, स्वर्ग-नरक की अवधारणा का अभाव
झारखंड सरकार का कहना है कि आदिवासियों का आध्यात्मिक, धार्मिक और दैनदिन के आचार-व्यवहार, पर्व-त्योहार के केंद्र में प्रकृति हैं। प्रकृति अभिमुख सांस्कृतिक विशिष्टता ने इन्हें अदभूत रूप में समतावादी बना दिया है। इसी लिए इनके यहां वर्ग जाति के भेद-भाव वाली सामाजिक व्यवस्था का अभाव है। गृह विभाग की ओर से पिछले दिनों विधानसभा में जेएमएम विधायक सीता सोरेन द्वारा पूछे गये एक तारांकित प्रश्न के लिखित उत्तर में यह जानकारी दी है कि आदिवासी समाज में स्वर्ग-नरक की अवधारणा का अभाव, आत्मा की अपनी विशेष अभिकल्पना तथा पर्व -त्योहार अन्य सभी धर्मों से अलग है।
कोई धर्म ग्रंथ नहीं, देवता किसी विशाल भवन में निवास नहीं करते
आदिवासियों के देवता किसी विशाल भवन में निवास नहीं करते, आदिवासियों के सारे समुदाय किसी विशेष धार्मिक ग्रंथ से संचालित नहीं होते।
मसीहा, पैगम्बर या अवतार की कल्पना नहीं
जनजातीय समाज में किसी मसीहा, पैगम्बर या अवतार की कल्पना भी नहीं की गयी है। यहां जन्म पर आधारित कोई ऐसा पुजारी या पुरोहित वर्ग नहीं है।
मृत पितृ की छाया अपनी उपस्थिति में बच्चों की रक्षा करते
आदिवासीय समुदाय की मान्यता के अनुसार मृत पितृ की छाया को घर के खास स्थान में जगह दी जाती है, वे पितृ-पूर्वज अपनी उपस्थिति में अपने बच्चों की रक्षा करते हैं।
पूजा आराधना का केंद्र प्रकृति , ठाकुर, जीउ, धरमे, सिंगबोंगा इष्टदेव
जनजातीय समाज की पूजा आराधना का केंद्र प्रकृति ही है। साथ ही परम सत्ता या परम पिता हैं, जिन्हें ठाकुर, जीउ, धरमे, सिंगबोंगा आदि सभी धार्मिक अनुष्ठानों, परब त्योहारों के केंद्र में होते हैं। इसके अलावा प्रकृति की अन्य शक्तियों में भी ईश्वर के रूप में देखना और उसके प्रति अपनी पूजा-अर्चना समर्पित करना, उनके धार्मिक अनुष्ठान में शामिल रहता है।
जीवों के साथ अजीवों में भी ईश्वर की अभिकल्पना
आदिवासी समाज में जीवों के साथ अजीवों में भी ईश्वर की अभिकल्पना करे हैं, जैसे मरांग बुरू बोंको या इकिर बोंगा। इनका पूजा-अर्चना स्थल सरना, जाहेर, देशाउली इत्यादि हैं।
पूजा आराधना का केंद्र प्रकृति
इनके पर्व -त्योहार सरहुल, बाः, सोहराय अन्य धर्मावलंबियों से भिनन है। इसलिए इनकी अलग पूजा-पद्धति, धार्मिक विश्वास, विशेष दर्शन, परब-त्योहार, रीति-रिवाज, जन्म-मृत्यु, पर्व-त्योहार अन्य धर्मावलंबियों से भिन्न हैं। गौरतलब है कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दिये गये अपने वर्चुअल संबोधन में कहा था कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं, ये प्रकृति पूजक है और इनके रीति-रिवाज पूरी तरह से अलग है।
15मार्च को जंतर-मंतर पर सरना धर्म कोड को लेकर धरना
इधर, सरना आदिवासी धर्म कोड का मामला राज्य से देश की राजधानी पहुंचने लगा है। 15 मार्च को दिल्ली के जंतर मंतर पर सरना धर्म को मानने वाले आदिवासी युवा धरना प्रदर्शन करने जा रहे है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सरना आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव झारखंड विधानसभा से पारित कर केंद्र के पाले में डाल दिया है। अब इसे अमलीजामा पहनाने और इसे लागू करने का काम केंद्र सरकार के पास है। केंद्र की मंजूरी के बाद ही सरना धर्म कोड को चुनने का अधिकार जनगणना में आदिवासियों को मिल सकेगा।
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