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गुजरात प्रकरण पर विशेष : जातीय अस्मिता का वर्तमान अर्थशास्त्र  

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      गुजरात प्रकरण पर विशेष : जातीय अस्मिता का वर्तमान अर्थशास्त्र  

बहरहाल, अब जो खबरें मिल रही हैं, उसके अनुसार गुजरात और बिहार में सब कुछ शासन-प्रशासन के नियंत्रण में है। दोनों प्रांतों के प्रभु और उन प्रभुओं के दिल्ली में बैठे परम-प्रभु कह रहे हैं कि जिस बिहारी ‘अपराधी’ ने यह गंदा कृत्य किया वह गिरफ्तार हो चुका है। कानूनन उसे कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी और मिलनी भी चाहिए. पर वे इस सवाल से बचने की मुद्रा में हैं कि एक अपराधिक कृत्य को मोहरा बनाकर जिन्होंने तमाम उत्तर भारतीयों को गुजरात से भगाने की आपराधिक चाल चली, उनके खिलाफ कौन-सी कार्रवाई चल रही है? इससे भी बड़ा और बुनियादी यह सवाल अनुत्तरित है कि गुजरात में जो ‘हिंसा’ भड़की, वह क्या आकस्मिक है? क्या यह ‘विकास’ के नाम पर सुनियोजित राजनीतिक-आर्थिक ‘लूट की छूट-नीति’ का सामाजिक परिणाम नहीं है? क्या यह सचमुच में ‘जातीय अस्मिताओं’ के बीच के किसी पुराने या ऐतिहासिक भावनात्मक ‘वैमनस्य’ या विद्वेष के फूट पड़ने का आकस्मिक परिणाम है, जैसा कि सत्ता-राजनीति के परस्पर सहयोगी और विरोधी प्रभुओं की ओर से कहा जा रहा है?

मीडिया में सत्ता-राजनीति के ‘प्रभुओं’ की सूचना की जो बाढ़ आयी, उसमें कूड़ा-करकट की तरह तैरती कुछ खबरें किनारे आयी हैं, जिन्हें कॉरपोरेट मीडिया ने तवज्जो नहीं दी। लेकिन सोशल मीडिया के किसी कोने में दर्ज सूचनानुमा ये खबरें उक्त सवालों पर सोचने और गहराई में जाकर गुजरात-दुर्घटना के वास्तविक कारणों को समझने को विवश करती हैं।

खबर यह है कि हीरों और कपड़ों के उत्पादन में अग्रणी गुजरात के व्यापारियों के चेहरे सूखे हुए हैं। सूरत-अहमदाबाद जैसे गुजरात के बड़े शहरों में कपड़ा मिलों में काम करने वाले और हीरों को तराश कर चमकाने वाले उत्तर भारतीय मजदूर गुजरात से बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं। हाल में भड़की हिंसा के पीछे की एक वजह उत्तर भारतीयों का ‘कम’ पैसे में बेहतर काम करना है। इन उद्योगों में 70 प्रतिशत ‘कामगार’ उत्तर भारतीय हैं – अधिकांशतः ‘अनियमित’ बहाली पर और ‘दिहाड़ी मजदूरी’ पर खटने वाले बिहार और यूपी के गरीब मेहनतकाश। ऐसे में स्थानीय गरीब और शरीर-श्रम पर अपना जीवन-बसर चलाने वाले गुजराती मेहनतकाश लोग खुद को ठगा महसूस करते हैं। भारत में सीधा विदेशी निवेश प्राप्त करने में सबसे आगे रहने वाले राज्य हैं गुजरात और महा राष्ट्र, लेकिन नियमित आमदनी पैदा करने वाले रोजगार बढ़ाने के मामले में ये दोनों राज्य सबसे फिसड्डी हैं। वस्तुतः गुजरात (और महाराष्ट्र में भी) बड़ी-बड़ी कंपनियां दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से मुनाफ़ा कमा रही हैं, उसी रफ्तार से ‘नियमित’ कामगारों की तादाद घटाती जा रही हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियां ‘प्रवासी’ मजदूरों को इस स्ट्रैटजी के तहत काम देती हैं कि ‘कम’ मजदूरी में बेहतर काम होगा और हर हाल में कंपनी को फायदा और मुनाफा होगा। अगर स्थानीय कामगार होंगे तो स्थानीय ‘राजनीति’ कंपनी पर हावी होगी।

यूं इन सूचनाओं का पूर्ण विवरण-विश्लेषण अभी हिंदी मीडिया में नहीं आया है, लेकिन उनसे यह संकेत मिल सकता है अमीर गुजरात में गरीब आबादी का ‘दर्द’ कहाँ और कैसे पल रहा है? ‘गुजराती अस्मिता’ के नाम पर गरीब गुजराती और गरीब बिहारी के बीच का ‘दर्द का रिश्ता’ किस तरह और क्यों तोड़ा जा रहा है? किन प्रभुओं की कौन-सी नीतियां ऐसी हैं, जिन्हें ‘जातीय अस्मिता’ के संघर्ष के बहाने बेपर्दा होने और जिन पर सवालिया निशान लगने से बचाया जा रहा है? जैसे, गुजरात जैसे विकसित राज्य के उद्योग-धंधों में ‘प्रवासी’ मजदूरों की संख्या 70 प्रतिशत होना और ‘नियमित’ नौकरी-रोजगार में वृद्धि की रफ्तार लगभग ‘न के बराबर होना – ‘किसका साथ किसका विकास’ की दृष्टि और दिशा की ओर इशारा करते हैं?

(सिटी पोस्ट लाइव डेस्क)     

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