( एच.एल. दुसाध ) : गत सात अगस्त को मंडल दिवस था. इसके दो दिन पहले मराठों के वर्तमान आन्दोलन तथा अन्य समुदायों द्वारा इस तरह की मांगों से जुड़े सवालों का जवाब देने के क्रम में केन्द्रीय मंत्री नितिन गाड़कर ने आरक्षण पर एक बयांन देकर राष्ट को चौका दिया. उन्होंने कहा था,’यदि आरक्षण दे दिया जाता है तो भी फायदा नहीं, क्योंकि नौकरियां नहीं हैं. बैंकों में आईटी के कारण नौकरिया कम हुई हैं.सरकारी भर्ती रुकी हुई है. नौकरियां कहाँ हैं? आरक्षण के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें पिछड़ापन एक राजनीतिक मुद्दा बन जाता है. हर कोई कहता है कि मैं पिछड़ा हूँ . बिहार और उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मजबूत स्थिति में हैं,फिर भी खुद को पिछड़ा कहते हैं.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘एक सोच कहती है कि गरीब, गरीब होता है.उसकी कोई जाति, पंथ या भाषा नहीं होती. उसका कोई भी धर्म हो, मुस्लिम, हिन्दू या मराठा(जाति), सभी समुदायों में एक धड़ा है जिसके पास पहनने के लिए कपडे नहीं हैं, खाने के लिए भोजन नहीं है. नीति निर्माता हर समुदाय के गरीबों पर विचार करें.’ ऐसा कहकर उन्होंने आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करने का संकेत कर दिया. बाद में उनके बयान पर कुछ बवाल मचने के बाद उन्होंने अगले दिन इस पर सफाई देते हुए लिखा कि मुझे कुछ ख़बरें देखने को मिलीं , लेकिन मैं साफ कर देना चाहता हूँ कि आरक्षण में बदलाव को लेकर सरकार का कोई प्लान नहीं है.’
आरक्षण अब रोजगार देने की गारंटी नहीं रहा, भाजपा के एक वरिष्ठ मंत्री के मुंह से यह सुनने के बाद मोदी सरकार की मुसीबत बढ़ेगी तथा विपक्ष आसमान सिर पर उठा लेगा, ऐसी धारणा मीडिया की थी .पर, वैसा कुछ नहीं हुआ.एकमात्र राहुल गाँधी ने दबी जबान से कुछ सवाल उठाये और बाकी नेता, विशेषकर सामाजिक न्यायवादी चुप्पी ही साध लिए: बहुजनवादी संगठनों की ओर से भी कोई उग्र प्रतिक्रिया नहीं हुई, जबकि होनी चाहिए थी. बहरहाल 2019 के करो या मरो चुनाव के आखरी मंडल दिवस के दो दिन पूर्व भाजपाई गडकरी ने थोड़ी जोखिम उठा कर अपने मतदाताओं को कुछ खास सन्देश दे दिया. सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि उन्होंने मंडल से हुई क्षति की भरपाई तथा आरक्षण पर संघर्ष के इतिहास में वर्ण-व्यस्था के सुविधाभोगी वर्ग के एक और विजय की उद्घोषणा कर दिया. इस बात की तह में जाने के लिए मानव-मानव के बीच संघर्षो के मूल अंतर विरोध को समझना होगा. दुनिया में सर्वत्र ही मानव-मानव के मध्य संघर्ष का मूल कारण संपदा-संसाधनों पर कब्ज़ा ज़माना रहा है. इसीलिए दुनिया के महानतम समाज विज्ञानी मार्क्स को भी कहना पड़ा है कि दुनिया का इतिहास संपदा-संसाधनों के बंटवारे पर केन्द्रित वर्ग संघर्ष का इतिहास है.ऐसे में कहा जा सकता है कि अगर मार्क्स के अनुसार मानव जाति का इतिहास वर्ग और आर्थिक संघर्ष का इतिहास है तो भारत में वह इतिहास आरक्षण पर केन्द्रित संघर्ष का इतिहास है. कारण, हिन्दू-धर्म का प्राणाधार जिस वर्ण-व्यवस्था के द्वारा यह देश सदियों परिचालित होता रहा है, वह मूलतः संपदा –संसाधनों के बँटवारे की व्यवस्था रही. चूँकि वर्ण-व्यवस्था में विविध वर्णों अर्थात सामाजिक समूहों के पेशे/कर्म तय रहे तथा इन पेशों की विचलनशीलता(professional mobility) धर्मशास्त्रों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध(prohibited) रही, इसलिए वर्ण-व्यवस्था एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले ली ,जिसे हिन्दू आरक्षण कहा जा सकता है. हिन्दू आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत –आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक ,धार्मिक इत्यादि – वर्ण-व्यस्था के प्रवर्तकों द्वारा सुपरिकल्पित रूप से चिरकाल के तीन उच्च वर्णों-ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों- के लिए आरक्षित किये गए. इस हिन्दू आरक्षण में शुद्रातिशूद्रों के लिए आरक्षित हुई सिर्फ तीन उच्च वर्णों की सेवा,वह भी पारिश्रमिकरहित . वर्ण-व्यवस्था के इस आरक्षणवादी चरित्र के कारण चिरकाल के लिए दो वर्गों का निर्माण हुआ. एक, विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न सवर्ण तथा दूसरा दलित-आदिवासी और पिछड़ों से युक्त बहुजन समाज. हजारों साल से इन दो वर्गों के मध्य आरक्षण पर अनवरत संघर्ष जारी रहा, जिसमें 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद एक नया मोड़ आ गया.इसके बाद शुरू हुआ आरक्षण पर संघर्ष का एक नया दौर.
मंडलवादी आरक्षण ने परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित एवं राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील कर दिया. मंडलवादी आरक्षण से हुई इस क्षति की भरपाई ही दरअसल मंडल उत्तरकाल में सुविधाभोगी वर्ग के संघर्ष का प्रधान लक्ष्य था. कहना न होगा 24 जुलाई ,1991 को गृहित नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर भारत के शासक वर्ग ने , जो विशेषाधिकारयुक्त वर्ग से रहे, मंडल से हुई क्षति का भरपाई कर लिया. मंडलवादी आरक्षण लागू होते समय कोई कल्पना नहीं कर सकता था, पर यह अप्रिय सचाई है कि आज की तारीख में हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग का धन-दौलत सहित राज-सत्ता, धर्म-सत्ता, ज्ञान-सत्ता पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा हो गया है, जिसमें पीवी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह की विराट भूमिका रही. किन्तु इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पूर्ववर्तियों को मीलों पीछे छोड़ दिया है. इनके ही राजत्व में मंडल से हुई क्षति की कल्पनातीत रूप से हुई भरपाई . सबसे बड़ी बात तो यह हुई है कि जो आरक्षण आरक्षित वर्गों, विशेषकर दलितों के धनार्जन का एकमात्र स्रोत था, वह मोदी राज में लगभग शेष कर दिया गया है, जिससे वे बड़ी तेजी से विशुद्ध गुलाम में तब्दील होने जा रहे हैं. आरक्षण पर संघर्ष के इतिहास में आज के लोकतांत्रिक युग में परम्परागत तबकों की इससे बड़ी विजय और क्या हो सकती है. चूँकि इस विजय में विराट भूमिका सुविधाभोगी वर्ग की पसंदीदी पार्टी की रही है इसलिए मोदी सरकार के वरिष्ठ मंत्री गडकरी ने मंडल दिवस के दो दिन पूर्व सदम्भ घोषणा कर दिया-‘ आरक्षण रोजगार की गारंटी नहीं है: सरकारी भर्ती रुकी हुई है नौकरियां ख़त्म हैं.’सकारी नौकरियां ख़त्म सी हैं और आरक्षण रोजगार की गारंटी नहीं है, क्या मंडल दिवस के दो दिन पूर्व विशेषाधिकारयुक्त तबकों के लिए इससे भी बड़ी ख़ुशी की कोई सौगात दी जा सकती थी ? उन्होंने जिस तरह गरीबों के नाम पर छाती पीटते हुए आर्थिक आधार पर आरक्षण का संकेत दिया , निश्चय ही इससे उनके चहेते वर्ग की खुशियों में कुछ और इजाफा हुआ होगा.
बहरहाल गडकरी के ताजे बयान के बाद ऐसा लग सकता है कि आरक्षण पर संघर्ष के इतिहास में बहुजनों का सब कुछ लूट-पीट चुका है तथा जन्मजात विशेषाधिकारयुक्त तबकों की निर्णायक विजय हो चुकी है. लेकिन काफी हद तक यह सत्य होने के बावजूद अंतिम सत्य नहीं है. गडकरी के बयान के बाद बहुजनों की ओर से शुरू हो सकता है आरक्षण पर संघर्ष का एक नया दौर, जिसमें उनके विजय की रहेगी प्रबल सम्भावना.
वैसे कई बहुजन बुद्धिजीवी मोदी सरकार का रंग-ढंग देखते हुए विगत कुछ वर्षों से समाज को आगाह करते हुए कहे जा रहे थे कि शासक वर्ग निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेशीकरण को हथियार बना कर आरक्षण को लगभग कागजों की शोभा बना चुका है और आरक्षित वर्ग महज सरकारी नौकरियों पर न निर्भर रहकर धनार्जन के दूसरे स्रोतों में सम्भावना तलाशें. किन्तु निरीह आरक्षित वर्ग पर असर नहीं हुआ. उनकी इस दुर्बलता को देखते हुए शातिर बहुजन नेताओं और एक्टिविस्टों ने कुछ अज्ञानता और कुछ निहित स्वार्थवश आरक्षण बचाने की लड़ाई में समाज को उलझाए रखा. और ऐसा हाल के दिनों में ही नहीं हुआ, जब से शासक वर्ग नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर आरक्षण को खात्मे की दिशा में आगे बढ़ा, तब से ही कई ज्ञानी-गुनी बहुजन एक्टिविस्ट आरक्षण बचने की लड़ाई में कूद पड़े. परिणाम यह निकला कि अरक्षित वर्गों की नाक के आरक्षण धीरे-धीरे ख़त्म होता रहा, किन्तु आरक्षण बचाने की लड़ाई लड़ने वालों के जीवन में सुखद बदलाव आते गया. आज वैसी लड़ाई लड़ने वाले आरक्षण विरोधी शासक दलों का संगी बनकर संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं.
बहरहाल जिन दिनों आरक्षण के खात्मे से त्रस्त होकर तमाम बहुजन नेता/एक्टिविस्ट ‘आरक्षण बचाने और निजी क्षेत्र में आरक्षण बढ़ाने’ की लड़ाई में एक दूसरे से होड़ लगा रहे थे , उन्ही दिनों 12-13 जनवरी, 2002 को भारत में डाइवर्सिटी के जनक चन्द्रभान प्रसाद के नेतृत्व में दलित बुद्धिजीवियों का ऐतिहासिक भोपाल कांफ्रेस हुआ, जहाँ नवउदारवादी अर्थिनीति से नयी सदी में उभरी चुनौतियों से निपटने के लिए डाइवर्सिटी केन्द्रित 21 सूत्रीय एजेडा जारी हुआ, जिसे भोपाल घोषणापत्र कहते हैं एवं जिसे अपनाने के लिए 25 जनवरी ,2002 की शाम तत्कालीन राष्टपति के आर नारायण ने राष्ट्र के समक्ष अपील की थी .भोपाल घोषणापत्र में एससी/एसटी को सरकारी नौकरियों से आगे बढ़कर अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के कालों की भांति न्यायपालिका,मिलिट्री, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, मीडिया इत्यादि में आरक्षण की लड़ाई लड़ने का आह्वान किया गया था. बाद में जब 27 अगस्त , 2002 को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह एससी/एसटी को कल्याण विभाग की खरीदारी में 30 प्रतिशत आरक्षण दिया, डाइवर्सिटी अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण का मुद्दा देश में चर्चा का विषय बन गया. इससे आकर्षित होकर ढेरों संगठन इस लड़ाई में उतरे.पर , थोड़े ही दिनों में जब वे थक कर बैठ गए, 15 मार्च,2007 को बहुजन लेखकों ने मिलकर ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ संगठन की स्थापना किया. इस संगठन के द्वारा मिलिट्री,न्यायपालिका,सरकारी और निजीक्षेत्र की नौकरियों, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग-परिवहन,मीडिया,शासन-प्रशसण, पौरोहित्य, एनजीओ को बंटने वाली धनराशि सहित धनार्जन के समस्त गतिविधियों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करने अर्थात सवर्ण,ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के स्त्री –पुरुषों के संख्यानुपात में बंटवारे की अनवरत मुहीम छेड़ी गयी, जो आज भी जारी है.यही नहीं इस संगठन की ओर से 80 से अधिक किताबें इस मुद्दे पर प्रकाशित की गयीं. डाइवर्सिटी मूव्हमेंट का असर भी हुआ. मध्य प्रदेश में सप्लाई डाइवर्सिटी लागू होने के बाद उत्तर प्रदेश में सरकारी ठेकों में आरक्षण लागू हुआ. आज की तारीख में बिहार में सरकारी ठेकों के बाद आउट सोर्सिंग जॉब में भी आरक्षण लागू हो चुका है.केंद्र सरकार की खरीदारी में भी कुछ-कुछ आरक्षण लागू हो चुका है. कहने का मतलब भोपाल सम्मेलन से सरकारी नौकरियों से आगे बढाकर उद्योग-व्यापार इत्यादि अर्थोपाजन की समस्त गतिविधियों में भागीदारी अर्थात आरक्षण की लड़ाई लड़ने का जो आह्वान किया गया था, वह अरक्षित वर्गों के बिना सडकों पर उतरे ही कुछ हद लागू हुआ कारगर हुआ .किन्तु आरक्षण बचाने की लड़ाई में समाज को इस कदर उलझा दिया गया कि डाईवर्सिटी अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई को समाज का अपेक्षित सहयोग न मिल . अब जबकि गडकरी के बयान के बाद साफ़ हो चुका है कि सरकारी नौकरियां ख़त्म सी हो चुकी हैं एवं आरक्षण रोजगार की गारंटी नहीं रहा, तब निश्चय ही आरक्षित वर्ग आरक्षण बचाने के बजाय सभी तरह की नौकरियों से लेकर, उद्योग-व्यापार,फिल्म-मीडिया इत्यादि सहित अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों तक आरक्षण बढाने की लड़ाई में कूदने का मन बनाएगा. और जिस दिन ऐसा होगा भारत में आरक्षण के एक नए संघर्ष का आगाज हो जाएगा , जिसमें अंतिम विजय हिन्दू-आरक्षण के जन्मजात वंचितों की होगी.
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.संपर्क: 9654816191)
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विचार : एक नया दलित आन्दोलन :भीख नहीं, भागीदारी!
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