सिटी पोस्ट लाइव विमर्श- 2 : ‘राष्ट्र’ (Nation) बनाम ‘राज्य’ (स्टेट)
यह खास लोगों के साथ आमजन की भी मान्यता है कि भारत में ‘गठबंधन-राजनीति’ का बीजारोपण गैरकांग्रेसवाद के उस काल में हुआ जब बिहार में पहली बार सत्ता-राजनीति की जमीन पर ‘संविद सरकार’ की फसल पैदा हुई थी। उसी फसल के बीज से नई-नई किस्मों की पैदावार आज भी जारी है। उस वक्त गैरकांग्रेसवाद की राजनीति में शामिल संघी-भाजापाई धड़ा आज केंद्र की सत्ता पर काबिज होकर खुद को गैरकांग्रेसवाद का एकमात्र असली योद्धा साबित करने की धुन में उसी शैली में नाच रहा है, जिसे 40 साल से कांग्रेसवाद नाम से जाना जाता रहा है। उस वक्त गैरकांग्रेसवाद की राजनीति में शामिल अन्य तमाम गैरभाजापाई धड़े आज कांग्रेस की तरह विपक्ष में हैं, और अपने आप को गैरभाजापावाद के सबसे बड़े योद्धा साबित करने में लगे हुए हैं।
सन् 67 से पूर्व कांग्रेस में नेहरूवाद की माया का अवसान (मोहभंग) हुआ और ‘इंदिरावाद’ का उत्थान हुआ, जो 1973 आते-आते खुद को देश की शीर्षस्थ सत्ता-राजनीति का एकमात्र विकल्प घोषित करने लगा।तब से भारतीय लोकतंत्र की इतिहास-यात्रा के संदर्भ में एक सवाल उठा, जो आज 21वीं सदी के डेढ़ एक दशक बाद भी कायम है। सवाल यह है कि जो शासक ‘जनता’ की पूर्ण या आधी-अधूरी स्वीकृति के बाद एक अवधि विशेष के लिए सत्ता में आते हैं, मिट जाते हैं या फिर जनता का विरोध और अस्वीकृति की परवाह किए बिना सत्ता पर तब तक काबिज रहते हैं, जब तक कोई विध्वंसात्मक आंदोलन या संघर्ष नहीं होता या कोई ऐसी घटना नहीं होती जो जनता से भारी कीमत वसूलती है – ऐसे शासकों को देश की सार्वकालिक राजनीति का ‘प्रतिमान’ माना जा सकता है? ‘लोक’ द्वारा ऐसे किसी व्यक्ति को शासक के रूप में स्वीकार किया जाना क्या लोक की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है?
इन सवालों को समझने के लिए आजादी के पूर्व और बाद के इतिहास को फिर से टटोलना प्रासंगिक होगा। आजादी के 15 साल बाद से ही यह नजर आने लगा था कि आजादी के पूर्व और आजादी के बाद की सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक सत्ता से संपन्न प्रभुओं की मानसिकता में भारी फर्क आ गया। देश ने ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति को अपनी आजादी की प्रथम शर्त मानी थी, और उस आजादी को ‘लोकतंत्र’ के रूप में बरतने का संकल्प व्यक्त किया था। इसके लिए वोट द्वारा बहुमत की ‘सरकार’ कायम करने को पहली आवश्यकता और जरूरी शर्त मानी गयी। सरकार माने लोकतंत्र की सुरक्षा और स्थाइत्व के लिए ‘राज्य-तंत्र’ का नियमन, संचालन एवं नियन्त्रण करने का साधन। लेकिन उसमें बहुमत की सरकार का मान ‘राज्य’ संस्था से अधिक था।
लेकिन इन्दिरावाद के उदय के साथ यह धारणा मजबूत होने लगी कि “लोकतंत्र की सुरक्षा और स्थाइत्व के लिए ‘राज्य’ संस्था (तंत्र) को मुख्य गारंटीकर्ता होना होगा। स्टेट होगा तो सरकार बनेगी। सिर्फ सरकार बनाना लोकतंत्र की स्थिरता की गारंटी नहीं है। स्थायी और स्थिर स्टेट संस्थागत लोकतंत्र का सबसे प्रामाणिक और वस्तुनिष्ठ रूप होगा।”
उस वक्त ‘पहली’ आजादी के संघर्ष में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले जेपी ज़िंदा थे। उन्होंने बिहार आन्दोलन-1974 का नेतृत्व करते हुए उक्त धारणा को चुनौती दी। पटना से लेकर दिल्ली तक की सत्ता हिली और देश को ‘दूसरी आजादी’ का बोध हुआ। वस्तुतः उस दौरान लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से पहली आजादी के नायक गांधी, और नरेंद्रदेव-लोहिया-यूसुफ़ मेहर अली जैसे सहयोगियों की इस बुनियादी दृष्टि और दिशा को स्पष्ट करने का प्रयास किया कि ‘लोकतंत्र’ के लिए ऐसे किसी भी ‘राज्य-तंत्र’ की भूमिका सीमित है, जो ‘लोक’ की सुरक्षा के नाम पर खुद को स्थाई और स्थिर बनाने के अधिकारों से लैस करता है। किसी भी ‘तंत्र’ को ऐसी अबाध ताकत से लैस करने की राजनीतिक प्रक्रिया का विरोध बेहद जरूरी है। ऐसी प्रक्रिया को अपना लक्ष्य मानने वाली सरकार को तो कतई बर्दाश्त नहीं करना चाहिए, जो अपनी स्थिरता एवं स्थाइत्व के एवज में ‘लोक’ को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से कमजोर मानने या बनाने की प्रवृत्ति को पुख्ता करती है।इतिहास के इस आईने में वर्तमान कांग्रेस के पराजित ‘इन्दिरावाद’ और भाजपा के विजयी ‘मोदीवाद’ में कोई फर्क नजर आता है?
सिटी पोस्ट लाइव विमर्श –गुलामी बरतने की आजादी!++
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