बीच भंवर में फंसे उपेन्द्र कुशवाहा, अब डूबते को तिनका का सहारा
बीच भंवर में फंस गए हैं उपेन्द्र कुशवाहा, अब तिनका के सहारे होना चाहते हैं पार मझदार
सिटी पोस्ट लाइव ( श्रीकांत प्रत्यूष ) : केन्द्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा गुरुवार को पटना से दिल्ली ये कहकर निकले थे कि दिल्ली जा रहे हैं. अमित शाह से मिलाने की कोशिश करेगें. लेकिन अमित शाह इसबार भी उनसे नहीं मिले. चुनावी व्यस्तता का हवाला देकर उपेन्द्र कुशवाहा को तारका दिया. पहले अमित शाह कुशवाहा को खोज रहे थे तो उपेन्द्र कुशवाहा पटना में पित्र दे रहे थे. अब जब उपेन्द्र उश्वः अमित शाह से मिलना चाहते हैं तो अमित शाह के पास टाइम नहीं हैं.
शुक्रवार को उनकी पार्टी के राष्ट्रिय महासचिव नागमणि ने यहाँ तक धमकी दे दी कि अगर एक दो दिनों में फैसला नहीं हुआ तो शनिवार को पटना में होनेवाली पार्टी की राष्ट्रिय कार्यकारिणी की बैठक में उनके नेता उपेन्द्र कुशवाहा बम फोड़ देगें. लेकिन अमित शाह कुशवाहा से जब नहीं मिले तो फटने से पहले ही उपेन्द्र कुशवाहा फ्यूज हो गए. उन्होंने कहा कि आज नहीं मिल पाए तो क्या हुआ. मिलाने का समय माँगा है. उन्होंने आगे कहा कि अगर अमित शाह के साथ बात नहीं बनी तो वो प्रधानमंत्री से मिलेगें. सवाल ये उठता है कि जब अमित शाह उनकी नहीं सून रहे हैं तो प्रधानमंत्री उनकी कितनी सुनेगें?
जाहिर है कि क्या कुशवाहा ने सीट शेयरिंग को लेकर जो ‘प्रेशर पॉलिटिक्स’ शुरू किया है उसके चक्रव्यूह में वो खुद फंस गए हैं.कुशवाहा महागठबंधन में जाने की धमकी देकर बीजेपी पर दबाव बनाने की कोशिश में जुटे हैं. लेकिन सच ये है कि उन्हें अभीतक RJD की तरफ से कोई आश्वासन नहीं मिल पाया है. जब से उन्हें एनडीए से बाहर कर दिए जाने की खबर आई है, तेजस्वी यादव ने चुप्पी साध ली है. एकबार भी खुद नहीं कहा- चिंता मत करिए कुशवाहा जी ‘हम हैं ना’.दरअसल, महागठबंधन में जाने का डर दिखाकर कुशवाहा बीजेपी पर ‘प्रेशर पॉलिटिक्स’ के तहत दबाव बनाकर तीन बातें मनवाना चाहते हैं. पहला वे किसी तरह से कम से कम तीन सीटों की व्यवस्था चाहते हैं. दूसरा नीतीश कुमार की जगह वो खुद को बिहार का सीएम उम्मीदवार घोषित करवाना चाहते हैं.
अब सवाल ये उठाना लाजिमी है कि क्या बीजेपी उनकी ये तीनों मांगें मानेगी? कुशवाहा का कहना है कि 2014 के मुकाबले उनकी ताकत बढ़ी है इसलिए ज्यादा सीटें चाहिए. दूसरा उनका कहना है कि जब नीतीश कुमार पीएम मोदी के नाम पर बीजेपी से अलग हुए तब मुश्किल परिस्थितियों में उन्होंने बीजेपी का साथ दिया था. तीसरा यह कि नीतीश कुमार से ज्यादा उनकी बिरादरी का वोट है इसलिए बीजेपी उन्हें अगला मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए. लेकिन बीजेपी नेताओं का कहना है जिस ताकत बढ़ने की बात कुशवाहा करते हैं वो दावा 2015 के विधानसभा चुनाव में टिक नहीं पाया. उसके बाद हुए तमाम उपचुनावों में भी वे कोयरी वोट ( कुशवाहा) को बीजेपी की ओर नहीं मोड़ पाए हैं. तीसरा वो लालू यादव के द्वारा आखिरी समय में ठेंगा दिखा दिए जाने के बाद बीजेपी के पास आये थे यानी संकट में साथ देने का उनका दावा भी कमजोर है. दूसरी तरफ नीतीश कुमार जो भले बीजेपी के चहेते नहीं हैं लेकिन उनसे बड़ा चेहरा बीजेपी के पास नहीं है.
जाहिर है नीतीश कुमार भले बीजेपी के चहेते नहीं हैं लेकिन वो बीजेपी की मज़बूरी जरुर हैं. वगैर उनके बीजेपी का सत्ता में आना नामुमकिन है. पिछले चुनाव में यह बीजेपी देख चुकी है. जाहिर बीजेपी की चुनावी नैया नीतीश कुमार के चेहरे की बदौलत ही मझदार पार सकती है. ऐसे में जब खुद नीतीश कुमार ने लालू यादव से नाता तोड़ कर बीजेपी की सरपरस्ती स्वीकार कर ही ली है, भला बीजेपी उन्हें छोड़ देने की भूल कैसे कर सकती है? इसमे कोई शक नहीं कि अगर उपेन्द्र कुशवाहा नीतीश कुमार की जगह ले लेने यानी उनकी कमी की भारपाई कर कर पाने में समर्थ होते तो बिन मांगे बीजेपी उन्हें सीएम की कुर्सी दे देती. लेकिन सच्चाई यहीं है कि आज की तारीख में बिहार की राजनीति में कुशवाहा का नीतीश कुमार के मुकाबले बहुत छोटा है और उनकी पार्टी नीतीश कुमार की पार्टी के मुकाबले बहुत छोटी और कमजोर है. कहाँ नीतीश कुमार के पास 80 विधायक है और उपेन्द्र कुशवाहा के पास मात्र 2 विधायक . और वो भी नीतीश कुमार के साथ जाने को बेताब हैं. उनके एकमात्र बचे सांसद राम कुमार शर्मा भी उनका साथ छोड़ने को तैयार बैठे हैं.
जाहिर है उपेन्द्र कुशवाहा के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपनी पार्टी को टूट से बचाने की है. वैसे अथिति ये है कि वो एनडीए में रहें या महागठबंधन में जाएँ, दोनों स्थितियों में उनकी पार्टी में टूट तय है. उनकी ये हताशा आज दिल्ली में उनके दिए बयान से भी झलकती है. उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार के पास बहुमत है. लेकिन उनकी पार्टी के विधायकों को तोड़ने की कोशिश कर रहें हैं. वे उन्हें बर्बाद करने की कोशिश कर रहे हैं. उनके इस बयान से साफ है कि उनकी पार्टी के लोग भी उनके साथ खड़े नहीं हैं.अब सवाल उठता है कि महागठबंधन में शामिल होने और ज्यादा सीट और सम्मान देने के खुले ऑफर के बावजूद वे कोई निर्णय क्यों नहीं ले रहे हैं? सच पहले ही हम बता चुके हैं कि महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव भी उनके लिए हाथ में माला लेकर इंतज़ार नहीं कर रहे. वो उन्हें एक मजबूर नेता के रूप में महागठबंधन में लेना चाहते हैं.
दरअसल, अपने प्रेशर पॉलिटिक्स के चक्रव्यूह में कुशवाहा ऐसे फंसे हैं कि ‘माया मिली न राम’ वाली स्थिति हो गई है. उन्हें ये बखूबी मालूम है कि विपक्ष की तमाम गोलबंदी और एंटी इनकंबेंसी के बावजूद इसबार के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बेदखल कर पाना आसान नहीं है. दूसरी ओर बिहार में उनकी पार्टी ही बिखराव के कगार पर है.जाहिर है वो बीच मझदार में फंसे हैं. अगर एनडीए से अलग हुए तो केन्द्र की सत्ता से हाथ धो बैठेगें और महागठबंधन में गए तो पार्टी के जो दो विधायक और एक सांसद हैं, और पार्टी के बचे खुचे भगवन कुशवाहा सरीखे नेता भी हाथ से निकल जायेगें. हालांकि इस संकट की घड़ी में जहानाबाद सांसद अरुण कुमार का साथ उन्हें जरुर मिला है लेकिन ये मझदार में एक तिनका के सामान ही है, जो लगता है पार लगा देगा लेकिन लगाएगा नहीं.
आज शनिवार को पटना में कुशवाहा की पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो रही है.लेकिन इस बैठक में कोई बड़ा फैसला नहीं हो पायेगा.जबतक आरजेडी के साथ सबकुछ फाइनल नहीं हो जाता, कुशवाहा कोई फैसला लेने की स्थिति में नहीं हैं.इसीलिए वो अभी भी एनडीए में होने और अमित शाह से समय मांगने और बात नहीं बनने पर प्रधानमंत्री से मिलने की बात कहकर टाइम पास कर रहे हैं.
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