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अपने देश में नहीं चाहिए प्रेस को स्वतंत्रता, शासित नहीं शासक की सेवा बना मीडिया धर्म

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अपने देश में नहीं चाहिए प्रेस को स्वतंत्रता, शासित नहीं शासक की सेवा बना मीडिया धर्म

सिटी पोस्ट लाइव ( श्रीकांत प्रत्यूष ) : प्रेस की स्वतंत्रता  पर अंतराष्ट्रीय स्तर पर बहस हो रही है. अमेरिका के 300 से अखबारों ने एक ही दिन अपने अखबार में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर संपादकीय छापे हैं. प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर लिखे गए ये सभी 300 संपादकीय बोस्टन ग्लोब की साइट पर उपलब्ध हैं. अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प जब तब प्रेस पर हमला करते रहते हैं. प्रेस के ख़िलाफ़ अनाप-शनाप बोलते रहते हैं. अमरीकी प्रेस ने जम कर लोहा लिया है.इन सम्पादकीय को पढ़कर आपको अहसास होगा कि आज दुनिया में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए किस स्तर पर प्रयास हो रहा है .

एक सम्पादकीय में लिखा है -1787 में जब संविधान का जन्म हुआ था, उस साल थॉमस जफरसन ने अपने मित्र को लिखा था कि अगर मुझ पर इसका फ़ैसला छोड़ा जाता कि सरकार हो मगर अख़बार न हो, अख़बार हो लेकिन सरकार न हो तो मैं एक झटके में दूसरे विकल्प को चुन लेता. जैफ़रसन की राष्ट्रपति बनने से पहले ये सोच थी. बीस साल बाद व्हाइट हाउस के भीतर से प्रेस को देखने के बाद उनके विचार बदल गए. उन्होंने फिर कहा- “अख़बार में जो छपता है उस पर कुछ भी विश्वास नहीं किया जा सकता है. इस प्रदूषित वाहन में डालने भर से सत्य संदिग्ध हो जाता है. आखिर  जैफ़रसन के विचार क्यों बदल गए, इसके ऊपर तो खुद प्रेस को ही आत्म-मंथन करना होगा.

एक खुले समाज में न्यूज़ की रिपोर्टिंग का कारोबार कई तरह के हितों के टकराव से जुड़ जाता है. उनकी असहजता से उन अधिकारों की ज़रूरत भी झलकती है जिसे उन्होंने संविधान में जोड़ा था. अपने अनुभवों से संविधान निर्माताओं को लगा था कि सही सूचनाओं से लैस जनता को भ्रष्टाचार मिटाने और आगे चलकर आज़ादी और न्याय को प्रोत्साहित करने में मदद मिलती है.

सार्वजनिक बहस राजनीतिक कर्तव्य है. 1964 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था. यह बहस बिना किसी झिझक के खुले मन से होनी चाहिए. कई बार सरकार और सरकारी अधिकारियों पर जमकर हमले होने चाहिए, भले ही वो किसी को अच्छा न लगे. 2018 में सरकारी अधिकारियों की तरफ से ही प्रेस को लेकर क्षति पहुंचाने वाले हमले हुए हैं.

किसी स्टोरी को कम दिखाने या ज़्यादा दिखाने को लेकर न्यूज़ मीडिया की आलोचना ठीक है. कुछ ग़लत छपा हो तो उसकी आलोचना ठीक है. न्यूज़ रिपोर्टर और संपादक भी इंसान हैं. उनसे ग़लतियां होती हैं. उन्हें ठीक करना हमारे पेशे की अहम् जिम्मेवारी है. लेकिन आपको जो सत्य पसंद नहीं आये  उसे फेक न्यूज़ करार दे देना लोकतंत्र के लिए बहुत ज्यादा ख़तरनाक है.

देश के बड़े व्यापारिक घरानों के बड़े अखबार चाहकर भी  व्यवस्था के खिलाफ खुलकर लिखने पढने की आजादी अपने पत्रकारों को दे नहीं सकते. जो छोटे और मझौले अखबार हैं वो आर्थिक संकट से गुज़र रहे हैं. उनकी पहुँच ज्यादा लोगों तक नहीं है. देश भर के पत्रकारों की रक्षा के लिए बने कानून भी इतने कमज़ोर हैं कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए काम कर रहे ईन छोटे अखबारों के पत्रकारों को सरकारें प्रताड़ित करती रहती है. ऐसे में प्रेस पर होने वाले ये हमले उनके लिए चुनौती बन गए हैं. इन सबके बाद भी इन अख़बारों के पत्रकार सवाल पूछने के लिए मेहनत करते हैं.आप तक उन स्टोरी को पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं जिनके बारे में आपको पता भी नहीं चलता.

क्या भारत के बड़े अख़बार छोटे अख़बारों के हक में ऐसे संपादकीय लिख सकते हैं, क्या वे प्रेस की आज़ादी के अपने अभियान में छोटे अख़बारों को शामिल करते हैं?  बिल्कुल नहीं, ज्यादातर बड़े अखबार और खबरिया चैनल सरकार द्वारा मजबूर नहीं किये गए हैं बल्कि वो अपने व्यापारिक हितों  या फिर विज्ञापन के चक्कर में खुद सत्ता के सामने सरेंडर कर चुके हैं. वो खुद प्रेस की स्वतन्त्र नहीं चाहते. वो सत्ता के साथ चलने की उच्ची से उच्ची कीमत चाहते हैं. कौन सरकार के पक्ष में ज्यादा लिख पढ़ सकता है ,इस बात का कम्पटीशन है.जाहिर है ऐसे अखबार बहुत जल्द हे नष्ट भी होगें. अख़बार और पत्रकारिता नष्ट हो भी जाए तो कोई बात नहीं, लेकिन  एक पढ़ा लिखा सचेत पत्रकार बचा रहना चाहिए . क्यंकि वो बच जाएगा तो फिर आगे सबकुछ  ठीक हो जाने की संभावना बनी रहेगी.

जब देश में कोई भी भ्रष्ट सत्ता काबिज़ होती है तब उसका काम होता है कि आज़ाद प्रेस की जगह सरकार संचालित मीडिया को ले आए. अमेरिका में आज यहीं हो रहा है. सरकार के पक्ष में नहीं लिखनेवाले सारे पत्रकार उनकी नजर में देशद्रोही हैं. उनकी नजर में वहीँ पत्रकार देशभक्त हैं, जो सरकार के मनमाफिक खबरें छापता  है. अपने देश में ऐसा नहीं है. अपने देश में तो शायद ही कोई ऐसा अखबार बचा है जो खबर छपने में सरकार से ज्यादा जनता का ज्यादा ख्याल रखता है. यहाँ के शासक को अपने खिलाफ लिखनेवालों को देश क दुश्मन घोषित करने की जरुरत ही नहीं. यहाँ तो सभी अखबार और चैनलों के बीच सत्ता का ख़ास अखबार और चैनल बन जाने के लिए ही मारामारी मची है.सब ये साबित करने में जुटे हैं कि वो जनता से ज्यादा चिंता सरकार की करते हैं. जनता की समस्याओं की जगह सरकार की उपलब्धियां दिखाते हैं. जाहिर है अपने देश में जनता तक सही सूचना को पहुँचने से रोकने के लिए  आधिकारिक रूप से सेंशरशिप के ऐलान की ज़रूरत ही नहीं है. अपने देश में तो प्रेस का काम शासक की सेवा करना है न कि शासित की सेवा करना.जब मीडिया सेवाभाव से ओतप्रोत हो तो उसके खिलाफ कारवाई की क्या जरुरत?

“स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए प्रेस की स्वतंत्रता अनिवार्य है” , का ये सूत्र अपने देश में अब कहाँ दीखता है.यहाँ तो मीडिया के खिलाफ सरकार को मोर्चा खोलने की जरुरत ही नहीं क्योंकि यहाँ तो सरकार से बेहतर रिश्ते ही देशभक्ति वाली पत्रकारिता का पैमाना बन चूका है. यहाँ अखबारों पर सेंसर नहीं लगाया जाता. यहाँ अखबारों का विज्ञापन रोक दिया जाता है. जब पत्रकार की वजह से अखबार का विज्ञापन रुक जाए तो उस पत्रकार की छुट्टी तय हो जाती है. यहाँ तो वहीँ संपादक सफल है जो ज्यादा सरकारी विज्ञापन मैनेज कर सकता है.

संविधान के संस्थापकों से लेकर सभी दलों के नेताओं को मीडिया से शिकायतें रही हैं. मीडिया पर आरोप लगाते रहे हैं लेकिन एक संस्थान के रूप में प्रेस का हमेशा सम्मान किया गया है. मुक्त प्रेस की हमारी परंपरा हमारे लोकतंत्र का अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग रहा है.लेकिन अब रहेगा या नहीं कह पाना मुश्किल है.

सूचनाओं से लैस नागरिकों के लिए झूठ उनके वजूद को नकारता है. अपने देश की महानता इस पर निर्भर है कि मुक्त प्रेस सत्ता के सामने खुलकर सत्य का बयान करे. शासक की जगह शासित की सेवा करे. जब प्रेस शासित की चिंता छोड़ शासक की चिंता करने लगे समझिये पत्रकारिता ख़त्म हो गई और उसकी जगह पीआर ने ले ली है.

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