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यहां से देखो : बालिका-गृह कांड : बदलाव चाहिए तो निशाने बदलो

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                    यहां से देखो : बालिका-गृह कांड :बदलाव चाहिए तो निशाने बदलो  

आज पूरा बिहार शर्मसार है. मुजफ्फरपुर बालिका गृह में हुआ महापाप. ये महापाप उजागर हुआ, तो सदमा लगा, लेकिन धीरे-धीरे ही सही, बिहार जगा, बिहार की युवा पीढ़ी के साथ आम जन सड़क पर आया, तो उम्मीद भी जगी कि अब बिहार को अपनी बेटी-बहन-मां और कुल आधी आबादी का अपमान कतई बर्दाश्त नहीं है. लेकिन जिस तरह से इस मामले में सरकारी स्तर पर कारवाई हो रही है और जो भूमिका विपक्ष निभा रहा है, वह तो इस महापाप और बेटियों पर होनेवाले अत्याचार के लिए जिम्मेवार लोगों के लिए ‘सुरक्षा कवच’ बन गया लगता है! जब इस तरह की घटना के लिए जिम्मेवार और जवाबदेह – बाजार में फिरते छुट्टे सांड-से – लोग ही बच रहेंगे – न्याय की गिरफ्त से छूटे रहेंगे, तब फिर हम-आप कैसे किसी बदलाव की उम्मीद कर सकते हैं?

यूं मामले की सीबीआई जांच शुरू हो चुकी है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जांच की निगरानी कर रहा है. जांच का यह दौर लम्बा चलेगा. लेकिन सबसे बड़ा सवाल – इस जांच का दायरा क्या है? क्या केवल ब्रजेश ठाकुर और इस मामले में पकड़े गए कुछ मुट्ठी भर लोगों के खिलाफ जांच किये जाने और उन्हें सजा दिला देने भर से हमारी बेटियों का भविष्य सुरक्षित हो जायेगा? बिल्कुल नहीं, क्योंकि यह जांच का दायरा बहुत छोटा है. जो लोग अभी तक पकड़े गए हैं केवल ‘मोहरा’ हैं, असली खिलाड़ी कोई और है. जब तक असली खिलाड़ी नहीं पकड़ा जाएगा, मोहरे के बदल जाने भर से खेल नहीं बदल जाएगा.

सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि बालिका गृह में कैसे और कैसी बच्चियों को रखा जाता है? उसकी प्रक्रिया क्या है? क्या उस प्रक्रिया का पालन हुआ है? अगर हुआ है तो किस स्तर पर और अगर नहीं हुआ है तो किस-किस स्तर पर? अगर यह पूरा मामला प्रक्रिया में चूक का ही नतीजा है, तब तो जब तक प्रक्रिया में चूक करने वाले नहीं पकड़े जाएंगे  व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आनेवाला.मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं कि बालिका गृह के संचालन और उसके लिए एनजीओ के ‘चयन’ और उसे ‘फण्ड’ देने की व्यवस्था बनी हुई  है. उस ‘व्यवस्था’ की प्रक्रिया के तहत ही अब तक काम हो रहा था. तब इतना बड़ा कांड हो गया! तो इसका मतलब ‘व्यवस्था’ में ही ‘लोचा’ है.  नीतीश जी शायद यह कहना चाहते हैं कि बिहार सरकार की स्त्री-सुरक्षा से संबंधित नीति और उसके आलोक में निर्मित बालिका-गृह की ‘व्यवस्था’ का ‘तंत्र’ दुरुस्त है, कसूर ‘एनजीओ’ का है! लेकिन ‘एनजीओ’ का चयन करने का अधिकार जिन सरकारी हाथों में है, क्या वे हाथ काले नहीं हैं?

‘चयन’ प्रक्रिया के पालन में ‘लोचा’ होने की वजह से मुजफ्फरपुर जैसा हादसा हुआ. अपने देश में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कड़े से कड़े कानून हैं. और भी कड़े कानून बनाने की मांग उठती रहती है. लेकिन इस कानून के पालन की जिम्मेवारी कैसे ‘ईमानदार’ हाथों में सौंपा जाए, इसकी कोई खुली और पारदर्शी व्यवस्था है ही नहीं. कानून चाहे कितना भी कड़ा क्यों न हो, उसके पालन करने और दूसरों से पालन कराने की जिम्मेवारी जब तक बेईमानों के हाथों में रहेगी, कोई भी कानून बना लीजिए, अच्छा नतीजा नहीं निकलनेवाला.आज पूरा विपक्ष मुजफ्फरपुर मामले को लेकर आक्रामक है. होना भी चाहिए. लेकिन निशाना तो ‘सही’ हो? यहाँ निशाने पर अभियुक्तों की जगह पर राजनीतिक विरोधी हैं. इस कांड के बहाने अपने-अपने राजनीतिक विरोधियों को बदनाम करने और निबटाने की जो राजनीति चल रही है, उसका सीधा फायदा वो लोग उठा रहे हैं जो असली अभियुक्त हैं.

दोषियों की पहचान के लिए अन्य वैधानिक प्रावधानों और प्रक्रियाओं को समझना जरूरी है – जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के मुताबिक़ अगर किसी पुलिसवाले को कोई लावारिस या अनाथ या फिर किसी अपराध की शिकार बच्ची मिले तो सबसे पहले उसे लेकर उसे सी.डब्लू.सी के समक्ष प्रस्तुत करना होता है. सी.डब्लू.सी उस बच्चे या बच्ची का सबसे पहले मेडिकल कराता है. फिर उस बच्चे की मनोवैज्ञानिक द्वारा काउंसिलिंग कराया जाता है. उस बच्चे के अभिभावक को सूचना दी जाती है. अगर अभिभावक नहीं है तो थानेदार उसे अपने इलाके के बाल-गृह या फिर बालिका-गृह को सौंप सकता है. थानेदार अपने क्षेत्र के बाल और बालिका-गृह का ‘वेलफेयर’ अधिकारी होता है. क्या थानेदार इस प्रक्रिया का पालन करता है? ज्यादातर मामलों में नहीं करता. वह सीधे बच्ची या बच्चे को बालिका-गृह पहुंचा देता है. बालिका-गृह भी थानेदार से बच्चे या बच्ची का सी.डब्लू.सी प्रक्रिया की रिपोर्ट नहीं मांगता. एक बच्चा मिल गया तो आमदनी बढ़ गई! ये सोंचकर वह बच्चे या बच्ची को रख लेता है. इतना ही नहीं, इस थानेदार को हर तीन महीने पर बालिका-गृह का निरीक्षण भी करना होता है. जिस थानेदार ने सी.डब्लू.सी की प्रक्रिया को नजर-अंदाज कर बालक या बालिका को सीधे बाल-गृह को सौंप दिया, क्या वह दोषी नहीं है? जिस थानेदार ने नियमित रूप से बालिका-गृह का तीन महीने पर इंस्पेक्शन नहीं किया, क्या वह अपराधी नहीं है? जिस थानेदार ने शुरुआती प्रक्रिया का ही पालन नहीं किया और आगे की अपनी निरीक्षण-डयूटी को ईमानदारी से नहीं निभाया, क्या उसे पहले जेल नहीं भेजा जाना चाहिए?

जिला स्तर पर बालिका और बाल गृह के निरीक्षण के लिए कमिटी होती है, जिसका अध्यक्ष खुद डीएम होता है. एक्ट के मुताबिक उसे हर तीन महीने पर बालिका-गृह का इंस्पेक्शन करना है. क्या मुजफ्फरपुर, और दूसरी जगहों पर, जहाँ बालिकाओं का शोषण हुआ, वहां के डीएम ने हर तीन महीने पर बालिका गृह का निरीक्षण किया? अगर किया तो आज तक यह मामला सामने क्यों नहीं आया? एक प्राइवेट एजेंसी के कुछ लोगों ने दो-चार घंटे के लिए बालिका गृह जाकर इतने बड़े स्कैंडल का खुलासा कर दिया! फिर डीएम क्यों नहीं? वह आज तक बच्चियों की पीड़ा को क्यों नहीं सुन सका? स्कैंडल को क्यों नहीं पकड़ पाया? क्या इस तरह के मामले के लिए डीएम को दोषी नहीं माना जाना चाहिए? उसे क्यों नहीं जेल जाना चाहिए?

इतना ही नहीं, बल्कि बालिका-गृह केन्द्रों की निगरानी के लिए राज्य स्तर पर भी ‘मानव व्यापर निरोधी समन्वय समिति’ की व्यवस्था है. इस समिति के सदस्य विभिन्न विभागों के लगभग तीन दर्जन अधिकारी होते हैं और चीफ सेक्रेटरी उसके अध्यक्ष होते हैं. एक्ट के अनुसार इस समिति की हर तीन महीने पर चीफ सेक्रेटरी की अध्यक्षता में बैठक होनी चाहिए. क्या हर तीन महीने पर ‘चीफ सेक्रेटरी’ के स्तर पर बैठक हुई? सूत्रों के अनुसार पिछले पांच साल में केवल एक बैठक हुई!. तीन महीने की जगह पांच साल में बैठक करनेवाले चीफ सेक्रेटरी कैसे मुजफ्फरपुर बालिका-गृह जैसे जघन्य अपराधों की जिम्मेवारी से बच सकते हैं? जब ऊपर से नीचे आने वाली गंगा उद्गम-स्थल पर ही मैली हो, उससे नीचे आकर सब कुछ को साफ़-पाक करने और रखने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

‘टिस’ (टीस!) की रिपोर्ट के अनुसार 15 से ज्यादा जिलों के बालिका और बल-गृह ‘यातना-गृह’ बने हुए हैं. वहां बच्चों को दिल दहला देनेवाली यातनाएं दी जा रही हैं. इन बाल और बालिका-गृहों के ‘यातना घर’ में तब्दील होने के लिए वे तमाम अधिकारी जिम्मेवार नहीं हैं, जिन्होंने अपने पदेन कर्तव्य का पालन तो नहीं ही किया, कानूनी प्रक्रिया का भी पालन नहीं किया! मुजफ्फरपुर कांड के लिए मंत्री दोषी है. फिर ये अधिकारी निर्दोष और बेक़सूर कैसे हो गए जिनके ऊपर कानून और प्रक्रिया के पालन की जिम्मेवारी थी? जब तक उंच्च पदों पर आसीन ये नौकरशाह दंडित नहीं होंगे, छोटे-मोटे अधिकारियों-कर्मचारियों फांसी पर लटकाने से कुछ नहीं बदलेगा. जब तक असली ‘खिलाड़ी’ सुरक्षित हैं खेल भी सुरक्षित ही माना जाएगा.

सो अभी जांच-पड़ताल और कार्रवाई के नाम पर जो कुछ हो रहा है वह समझिए कि ‘बस, एक ब्रेक’ है. अब सरकार को तय करना है कि उसे केवल एक ‘ब्रेक’ चाहिए या हमेशा के लिए मुजफ्फरपुर जैसे पाप से मुक्ति चाहिए? विपक्ष को भी फैसला करना होगा कि उसे केवल इस मामले से राजनीतिक माइलेज भर चाहिए या व्यवस्था में आमूल  बदलाव चाहिए? अगर बदलाव चाहिए तो दोनों पक्षों को अपने-अपने बंदूक के निशाने बदलने होंगे.
श्रीकांत प्रत्यूष

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