झारखंड @ 2019
कोई भी राज्य, समाज, समुदाय अथवा व्यक्ति अपनी विकास-यात्रा की राह में किसी न किसी मोड़ पर होता है। कुछ मोड़ तो स्वाभाविक, सहज होते हैं जिनमें ‘आगे तीखा मोड़ है’ की तख्ती लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आप आराम से मुड़ सकते हैं। लेकिन मोड़ से सटी गहरी खाई हो और मोड़ भी तीखा हो तो यात्रियों को सतर्क करने के लिए तीखे मोड़ वाली तख्ती लगानी पड़ती है। हालांकि सावधानी की तख्ती लगी होने के बावजूद दुर्घटनाएं होती हैं। आज झारखंड अपनी विकास-यात्रा के 18 साल पूरा कर जिस मोड़ पर खडा है वहां पग-पग पर एक साथ कई तरह की तख्तियां लगी हुई हैं। कुछ पुरानी तख्तियां धूमिल हो रही हैं और नयी चमकती तख्तियां लग रही हैं। पुरानी तख्तियों के धूमिल होने और नयी चमकती तख्तियों की संख्या जितनी बढ़ रही है, उतनी ही तेजी से दुर्घटनाओं की संख्या और विकारालता में इजाफा हो रहा है।
झारखंड के विकास से सरोकार रखनेवाले ‘प्रभुओं’ और आम झारखंडी प्रजा को धक्का लग सकता है, लेकिन आज का सच यही है कि जिसे ‘समाधान’ माना गया वह अपने आप में ‘समस्या’ बनकर सामने है।इसकी एक मिसाल 15 नवम्बर को भी रांची में देखने को मिल गयी! वैसे, 15 नवंबर को जो हुआ, उसकी कई झलकियाँ 15-20 दिन पहले से ही मीडिया में आकर सार्वजनिक हो चुकी थीं। लेकिन एक झलकी ‘दिलचस्प’ होने के बावजूद मीडिया में नहीं आ पाई। वह यह कि झारखंड के विभिन्न इलाकों के लिए रांची से हो कर गुजरने वाली तमाम सड़कों के तीखे मोड़ों पर लगी कई पुरानी तख्तियों के साथ उस तख्ती को भी चमका दिया गया, जो आकर्षण के आतंक से ज्यादा आतंक का आकर्षण पैदा करती है! उस पर दर्ज है – Speed thrills but kills ; यह ख़ास तौर से उन तीखे मोड़ों पर चमक रही है, जहां से अत्याधुनिक बाईकों पर सवार युवा अक्सर सिर्फ तेज रफ्तार से ‘थ्रिल’ महसूस नहीं कर पाते, इसलिए वे ‘लहरिया कट’ मारते हैं ताकि मरें या जीयें स्पीड के ‘थ्रिल’ से वंचित न रहें।
खैर, उसी रांची में ‘झारखंड राज्य स्थापना दिवस’ के अवसर पर मोरहाबादी मैदान में दिव्य सुरक्षा साधन-संसाधनों से निर्मित भव्य सभा-मंच से झारखंड के 18 साल के जवान हो जाने की सूचना देते हुए मुख्यमंत्री ने पूरे जोश में कहा – “झारखंड में डबल इंजन की सरकार है। झारखंड विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा है। अब इसे और तेजी से आगे लेकर जाना है…।” ऐन उसी वक्त पारा शिक्षकों का हंगामा मच गया! पत्थरबाजी, अश्रु गैस और लाठी चार्ज, दौड़ा-दौड़ी, खदेड़ा-खदेड़ी और न जाने क्या-क्या होने लगा। मैदान में बड़ी संख्या में पत्रकार मौजूद थे। पुलिस ने उनकी भी जम कर पिटाई कर दी। क्यों? इतने बड़े ‘इवेंट’ के प्रसारण के लिए, जिसमें फुल स्पीड में जारी ‘विकास-यात्रा’ के कुछ ज्ञात लोकतांत्रिक प्रयोगों के कई-कई अज्ञात परिणामों का उदघाटन-विमोचन होना है, सरकार ने पूरी व्यवस्था कर ही दी ;
जब पूरे इवेंट के लाइव प्रसारण सहित उसके वीडियो और प्रिंट-फॉर्म टीवी चैनल और अखबारों के दफ्तर में पहुंचाने तक का टंच इंतजाम कर दिया गया, तब वहां कोई प्राणी कागज़-कलम या कैमरा लेकर पत्रकार रूप में पहुंचे, इसका क्या तुक? जब मैदान में हंगामा मचा और पत्रकार रूपी दर्शक मंच पर अवतरित जोश की बजाय मैदान में शुरू हंगामे को निहारने के लिए मुड़े, तो स्वामीभक्त पुलिस को उक्त सवाल कचोटने लगा, जो समारोह शुरू होने के पहले केवल कुरेद रहा था! उसे दूसरे ही पल समझ में आ गया कि ये पैदल पत्रकार सिर्फ ‘दर्शक’ बनकर मजा लेने के लिए नहीं पहुंचे, हालांकि सरकार यही चाहती आयी है। उन पत्रकारों के मुड़कर देखते ही यह फिर से साबित हो गया कि सरकार पिछले चार बरस से जो चाहती आयी है वह अब तक संभव नहीं हुआ है! सो उसने आव देखा न ताव। वही किया जिसका उसने ‘लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए अनिवार्य कर्म’ के नाम पर प्रशिक्षण प्राप्त किया और जमकर प्रैक्टिस कर रखा है। यानी पुलिस चार बरस और उससे पूर्व के अनुभव से अर्जित-संचित गुस्से को उतारने के लिए पारा शिक्षक सहित पत्रकार रूप में नजर आते प्राणियों पर पिल पड़ी, और जमकर उनकी धुनाई कर दी!
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