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राजनीति का बदल गया है ट्रेंड, रैलियों की जगह हर पार्टी के नेता कर रहे यात्रा.

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राजनीति का बदल गया है ट्रेंड, रैलियों की जगह हर पार्टी के नेता कर रहे यात्रा.

सिटी पोस्ट लाइव : बदलते जमाने के साथ राजनीति भी बदलने लगी है.पहले चुनाव आते ही राजनीति दल बड़ी बड़ी रैलियों की तैयारी में जुट जाते थे.उन रैलियों में लाखों की भीड़ जुटती थी.लेकिन समय के साथ राजनीति बदल गई है और राजनीति का तरीका भी बदल गया है.अब रैलियों में लाखों की तादाद में लोग नहीं जुटते हैं इसलिए राजनीतिक दलों के नेताओं ने लोगों तक पहुँचने के लिए यात्राएं शुरू कर दी हैं.अब हर नेता रैली की जगह यात्रा कर रहा है.नीतीश कुमार हों या फिर तेजस्वी यादव ,बड़ी बड़ी रैलियां करने के बजाय खुद शहर शहर की यात्रा कर लोगों तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं.

एक ज़माना था जब बिहार  राजनीतिक रैलियों के लिए देश भर में मशहूर था. आरजेडी (RJD) के 15 साल के शासनकाल में बिहार कई रैलियों का गवाह बना है.लालू यादव की रैलियों में जुटी भीड़ का रिकॉर्ड आजतक कोई नहीं तोड़ पाया.लेकिन लालू के राजनीति से बाहर होने के साथ ही बिहार की राजनीति भी बदल गई है.अब रैलियों की जगह राजनीतिक यात्राओं ने ले ली है. बिहार विधानसभा चुनाव के पहले  मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) जल जीवन हरियाली यात्रा कर चुके हैं. अब तो लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्‍वी यादव (Tejaswi Yadav) भी यात्राओं के माध्यम से जनता में पैठ बनाने में लगे हैं. वो भी नीतीश कुमार की यात्रा के जबाब में बेरोजगारी हटाओ यात्रा शुरू करनेवाले हैं.

उपेंद्र कुशवाहा  सीएए और एनआरसी पर समझो समझाओ यात्रा कर रहे हैं तो बीजेपी इसी मुद्दे पर जनजागरण अभियान चला रही है.रैलियों के माध्यम से शक्ति प्रदर्शन करनेवाला वामदल भी सविधान बचाओ यात्रा कर रहा है.सत्तापक्ष विपक्ष दोनों के नेताओं का मानना है कि यात्रा राजनीतिक लिहाज से महत्वपूर्ण है.यात्राओं के जरिये सीधे जनता तक पहुँच कर नेता अपने सिद्धान्तों और भावी योजनाओं का  सीधा और सकारात्मक प्रभाव जनमानस पर छोड़ते हैं.

2020 के बिहार विधानसभा के लिहाज से राजनीतिक दलों को अपनी यात्राओं का कितना फायदा मिलेगा, यह बता पाना फिलहाल मुश्किल है, लेकिन इन यात्राओं के कारण बिहार में राजनीतिक तापमान चरम पर है.बिहार की राजनीति का स्वरूप बदल चूका है.राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आज की तारीख में बड़ी रैलियां करना बहुत खर्चीला हो चूका है.करोड़ों खर्च के बाद भी भीड़ जुटने की कोई गारंटी नहीं है.अब लोग नेताओं के पास नहीं जाना चाहते, नेताओं को लोगों तक पहुंचना पड़ रहा है.

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