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विशेष सम्पादकीय : प्रवासी मजदूरों पर प्रहार,  यह सिर्फ ‘फैक्ट’ नहीं, ‘फेनोमेना’ है

गुजरात से हजारों उत्तर भारतीयों का पलायन-यह सिर्फ ‘फैक्ट’ नहीं, ‘फेनोमेना’ है

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विशेष सम्पादकीय : प्रवासी मजदूरों पर प्रहार,  यह सिर्फ ‘फैक्ट’ नहीं, ‘फेनोमेना’ है

गुजरात से प्रवासी उत्तर भारतीय श्रमिकों – खासकर यूपी-बिहार के लोगों – के पलायन ने कुछ वर्ष पहले दक्षिण भारत से पूर्वोत्तर के लोगों के पलायन की याद ताजा कर दी है।2012 में असम में बोडो और मुस्लिम समुदाय के बीच हिंसक टकराव के बाद बेंगलुरु एवं हैदराबाद में इस तरह की अफवाह फैलाई गई कि अगर असम के लोगों ने अमुक दिन तक शहर नहीं छोड़ा, तो उन पर हमले होंगे। इसके बाद पूर्वोत्तर के लोग दहशत में आ गए और वे दक्षिण भारत के स्मार्ट ‘शहरों’ से पलायन करने लगे। जब तक दक्षिण भारत की सरकारें सक्रिय होतीं, तब तक पूर्वोत्तर के हजारों लोग गृह प्रदेशों के लिए ट्रेन पकड़ चुके थे। कुछ ऐसी ही स्थिति आज गुजरात की है, लेकिन गुजरात से यूपी-बिहार के लोगों के पलायन के पीछे महज ‘अफवाह’ नहीं, बल्कि उन्हें दी जाने वाली खुली ‘धमकियां’ भी हैं।

28 सितंबर को साबरकंठा जिले में एक 14 माह की मासूम के साथ बलात्कार के आरोप के बाद गुजरात के 6 जिलों में उत्तर भारतीय हिंदी भाषी लोगों के खिलाफ आक्रोश भड़का। और दूसरे ही दिन से हिंदी पट्टी के लोगों का बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हो गया! गुजरात सरकार की ओर से सूचना दी गयी कि बलात्कार के आरोप में बिहार के एक मजदूर के पकड़े जाने के बाद भड़की हिंसा के खिलाफ लगभग 450 लोगों को गिरफ्तार किया गया और 50 से अधिक प्राथमिकियां दर्ज की गईं। उसी दौरान कुछ ऐसे वीडियो वायरल हुए, जिसमें कांग्रेस के अल्पेश ठाकोर बाहरी लोगों के खिलाफ भड़काऊ भाषण देते दिखाई-सुनाई दे रहे थे। यह सूचना भी आयी कि उनके पास ठाकोर सेना के नाम से अपनी एक सेना भी है। उनकी यह ‘सेना’ के लोग उत्तर भारतीयों को धमकाने में शामिल है। आश्चर्य यह कि सैकड़ों की संख्या में लोगों की धर-पकड़ की सूचना देनेवाली गुजरात कि ‘बीजेपी’ सरकार ने ‘कांग्रेस’ के अल्पेश ठाकोर के खिलाफ कोई ‘कानूनी’ कार्रवाई नहीं की! भयभीत उत्तर भारतीयों का पलायन रोकने के लिए गुजरात सत्ता-राजनीति के संचालक भाजपाई प्रभु अल्पेश ठाकोर का ‘मुंह’ बंद करने की बजाय कांग्रेसी ‘प्रभुओं’ के खिलाफ मुखर हुए। पक्ष-विपक्ष के इस ‘प्रभु’ राजनीति ने भय की आग में घी का काम किया और उत्तर भारतीयों का ‘पलायन’ और तेज हुआ।

यह प्रकरण एक पुरानी लोककथा के उस उलटे पाठ की पुनरावृत्ति जैसा है, जो बीसवीं सदी के अंतिम दशक से शुरू हुआ था। पुराणी लोक कथा के अनुसार एक अंधे और एक लंगड़े में दोस्ती थी। क्योंकि एक अंधा और दूसरा लंगड़ा था, इसलिए दोनों में दोस्ती ही हो सकती थी, दुश्मनी नहीं। पिछले 20-25 साल से सत्ता-राजनीति के बाजार में जारी कास्टिज्म (जातिवाद), कम्युनलिज्म,‘करप्शन’ (भ्रष्टाचार), क्राइम (अपराध) का खेल ‘पक्ष’ और ‘विपक्ष’ के बीच की ‘अंधे और लंगड़े’ दोस्ती की कथा का नया पाठ है। वे एक दूसरे के दुश्मन नहीं, क्योंकि समाज में दोनों में से कोई एक आग लगाता है, गरीब की झोपड़ी जलती है, उसका पेट जलता है और इसके साथ वह गरीब भी जल कर स्वाहा हो जाता है। और तब अंधा-लंगड़ा दोनों एक दूसरे की मदद से बच निकलते हैं।

अल्पेश ठाकोर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे की याद दिला रहे हैं। दोनों में अंतर है तो बस इतना कि जहां राज ठाकरे डंके की चोट पर उत्तर भारतीयों के खिलाफ आग उगलते हैं, वहीं अल्पेश ठाकोर उत्तर भारतीयों को धमकाने के आरोपों से घिरने के बाद खुद को ‘निर्दोष’ बताने की कोशिश कर रहे हैं। जब राज ठाकरे के समर्थक मुंबई में गुंडागर्दी करते थे और पुलिस की कार्रवाई से बचे भी रहते थे तब यह माना जाता था कि उस समय की कांग्रेस के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार उन्हें इसलिए बढ़ावा दे रही ताकि शिवसेना को कमजोर किया जा सके। सच्चाई जो भी हो, तथ्य यही है कि राज ठाकरे की सेना अपनी ‘गुंडागर्दी’ के बाद कभी दंडित नहीं किए जा सके। आश्चर्य नहीं कि गुजरात की भाजपा कांग्रेस के खिलाफ आग उगलते हए भी उसकी सरकार अल्पेश ठाकोर के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से बचती दिख रही है। स्मरण रहे, जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की राजनीतिक दल के तौर पर मान्यता खत्म करने की एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई, तो उसने खुद कोई फैसला करने के बजाय याचिकाकर्ता को चुनाव आयोग के पास जाने को कहा, जिसके पास यह अधिकार ही नहीं कि किसी दल की मान्यता खत्म की जा सके!

लोकतंत्र में अल्पेश ठाकोर या राज ठाकरे जैसे ‘नेता’ कैसे पनपते हैं और शक्ति अर्जित करते हैं? इसका सिर्फ एक ही जवाब है कि उन्हें सत्ता पर काबिज होने या रहने के खेल में शामिल ‘राजनीतिक’ दल संरक्षण देने के लिए सदैव तत्पर नजर आते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में पक्ष-विपक्ष को लोकतंत्र रूपी रथ के पहियों की तरह देखा जाता हो, लेकिन सच यही है कि दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं और एक-दूजे की नाकामी में ही अपना हित देखते हैं। और, शह और मात के इस खेल में वे प्यादा से फर्जी बनकर टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलने वाले ‘मोहरे’ की तरह अल्पेश ठाकोर या राज ठाकरे जैसे नेताओं का इस्तेमाल करते हैं। राजनीति की इसी गंदी प्रवृत्ति का नतीजा है

यह सिर्फ ‘फैक्ट’ नहीं, ‘फेनोमेना’ है

लेकिन एक सवाल है – आर्थिक प्रगति के मामले में अग्रणी माने जानेवाले गुजरात से देश के अविकसित प्रदेशों के प्रवासी मजदूरों के ‘पलायन’ की उक्त ‘तस्वीर’ ‘एक्चुअल’ तो है, लेकिन क्या ‘रीयल’ है? कहीं इस एक्चुअल तस्वीर के नीचे उसकी रीयल तस्वीर दबी पड़ी तो नहीं है?
गुजरात से ‘पलायन’ की जो तस्वीर हमने प्रस्तुत की है, उससे इतना तो साफ़ तौर से समझा जा सकता कि यह महज एक दुखद या दुर्भाग्यपूर्ण ‘फैक्ट’ नहीं है, बल्कि यह एक निरंतर विकराल रूप धारण करता ‘फेनोमेना’ है। इसे इस तरह समझा जा सकता है :
बिहार-झारखंड या उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों के राजनीतिक ‘प्रभु’ यह मानेंगे नहीं कि ये राज्य ‘माइग्रेटिंग स्टेट’ हैं। इन राज्यों की अर्थ-व्यवस्था, जिस भी रूप में टिकी है और चल रही है, उसमें मनीआर्डर इकॉनमी की अच्छी-खासी भूमिका है। ‘मनीआर्डर इकॉनमी’ का आधार हैं वे गरीब और बेरोजगार लोग, जो अपनी आजीविका के लिए ‘पलायनोन्मुख’ हैं! और दूसरी तरफ गुजरात जैसे विकसित माने जानेवाले राज्यों के राजनीतिक प्रभु यह मानने से इनकार करेंगे कि उनके राज्यों का आर्थिक विकास देश के पिछड़े राज्यों के पलायनोन्मुख आबादी की सस्ते और कठिन ‘श्रम’ पर आश्रित है।

यह सिर्फ भारत की अर्थ व्यवस्था का सच नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में 21वीं सदी की विकासमूलक अर्थ-व्यवस्था – तमाम अविकसित और विकसित देशों की ‘अर्थव्यवस्था’ की अवनति और प्रगति दोनों ही – माइग्रेशन ओरियेंटेड इकॉनमी – प्रवासन केंद्रित अर्थ-व्यवस्था पर टिकी हुई है।

भारत की आज की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में यह साफ दिख रहा है कि पिछड़े राज्यों से ज्यादा पलायन हो रहा है। उसमें भी मार्जिनालाइज्ड समूहों की संख्या सबसे ज्यादा है और उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि की रफ्तार भी बहुत तेज है। अंग्रेजी में जिन्हें मार्जिनलाइज्ड ग्रुप्स कहा जाता है, वे हाशिये पर पड़े या खड़े समूह नहीं, बल्कि ‘सीमांत समूह’ हैं। यानी हाशिये से भी बाहर के वंचित समूह! हाशिये से बाहर यानी समाज की प्रभावी अर्थ-व्यवस्था की परिधि से बाहर, इकॉनमी की मुख्य धारा से कटे लोग। मुख्य धारा की अर्थव्यवस्था यानी वह पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था, जो आज उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के जरिये पूरे विश्व को अपनी गोद में लेने की तैयारी कर रही है, ऐसे समूहों को पैदा कर रही है और उन्हें अपने दायरे से बाहर फेंक रही है।

ऐसा उदारीकरण और भूमंडलीकरण के पहले भी होता रहा है। उस वक्त ऐसे समूह मुख्यधारा के दायरे में आने वाले समाज का ‘उच्छिष्ट’ अंश होते थे, जिन्हें ठिकाने लगाने की कोशिश की जाती थी। उनको बेनाम और बेचेहरा बनाकर सभ्य-सुसंस्कृत और ज्ञानमूलक समाज में अदृश्य रहने को मजबूर किया जाता था। वे समूह जिंदा रहने के लिए अदृश्य रहने की मजबूरी को स्वीकार करते थे – उन्हें ही पिछड़े, दलित, आदिवासी, दास, काले और गुलाम कहा जाता था।

लेकिन इतिहास की गति और समय के साथ उन समूहों की संख्या बढ़ी है और उनके स्वरूप के साथ चरित्र में जो बदलाव आया है, उससे यह एहसास पुख्ता होता है कि मुख्यधारा की अर्थ-व्यवस्था आज भी मार्जिनालाइज्ड ग्रुप्स पैदा करती है, लेकिन उनको चाहकर भी ठिकाने लगाने में असमर्थ है। अर्थ-व्यवस्था की मुख्य धारा में पली-बढ़ी सभ्यता-संस्कृति ने उन्हें ऐसी पहचान दी जो उन्हें अदृश्य रखे। और कोशिश की गयी कि वंचित समूह इसे अपनी कमजोरी या नियति के रूप में स्वीकार करें। लेकिन अब यह साफ़ नजर आने लगा है कि वंचित समूह दलित, आदिवासी, दास, गुलाम या याचक की सदियों की ‘पहचान’ को अपनी ‘शक्ति’ का स्रोत बना रहे हैं – वे अपने आंसुओं को ऊर्जा में बदलने का मजबूत आधार बना रहे हैं। अब स्थिति यह है कि उदारीकरण और भूमंडलीकरण से लैस यह अर्थनीति उन समूहों को पैदा करने और उनकी संख्या में वृद्धि किये बिना जिंदा नहीं रह सकती, चल नहीं सकती ; वह उन समूहों की वृद्धि के बल पर ही दौड़ रही है। लेकिन उसे यह भी समझ में आ रहा है कि उन समूहों की संख्या ऐसी शक्ति में ढल रही है, जो उसके लिए खतरा बन सकती है। विकास के लिए इस अर्थव्यवस्था का भारत में सूत्रपात करनेवाले राजनीतिक ‘प्रभु’ इसमें निहित खतरे पहचान रहे हैं।

20वीं सदी के अंतिम दशक में सरकारी आंकड़े कहते थे कि बिहार-यूपी में पलायन बढ़ा है और ‘गरीबी’ घटी है। आज के सरकारी आंकड़े भी इसी ‘ट्रेंड’ के विस्तार की नयी पटकथा हैं। जिसका कुल आशय यह है कि सीमांत समूहों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन उनकी वृद्धि-दर में कमी आ रही है। कई अर्थशास्त्रियों को उक्त आंकड़ों में पहले भी घपला नजर आता था और आज भी। लेकिन जो उन आंकड़ों को सही मानते हैं, उनके चेहरे पर भी अब सवालिया निशान है कि आखिर देश में ऐसा चमत्कार कैसे हो रहा है? क्योंकि आर्थिक उदारीकरण के तहत देश की ‘गतिहीन’ अर्थव्यवस्था, पिछड़ेपन की तेज गति और विस्फोटक बेरोजगारी से जुड़े तमाम आंकड़े तो कुछ और ही कहते हैं!
इस रहस्य को समझने के लिए कुछ दिलचस्प तर्क और तथ्य सामने आये हैं। कुछ विशेषज्ञ यह कहते हैं और जोड़ते हैं कि यह सब ‘केंद्र सरकार की’ उदारीकरण नीति और राजनीतिक जुगलबंदी की देन है। पहले यह जुगलबंदी यूपीए सरकार के रूप में प्रस्तुत हो रही थी और अब एनडीए सरकार के रूप में। पहले की जुगलबंदी के बारे में माना जाता था कि वह ‘जातिवाद’ के सुरों  को लहका रही थी। अभी की जुगलबंदी ‘सांप्रदायिकता’ के सुरों को नया अर्थ दे रही है। वैसे, दोनों ही सुर ‘करप्शन’, ‘क्रिमनलिज्म’ और ‘कंज्यूमरिज्म’ के एक जैसे ताल-थाप पर बज रहे हैं।

बिहार से आजीविका की तलाश में ‘परदेस’ जाने वाले कामगारों का अनुपात निरंतर तेजी से बढ़ रहा है। दस साल पूर्व के आंकड़ों का आकलन यह है कि हर साल आजीविका की तलाश में बिहार के औसतन 80 हजार से एक लाख लोग बाहर जाते हैं। बिहार से बाहर देश के विभिन्न राज्यों और विदेश जानेवाले उन बिहारियों में अकुशल मजदूर हैं, कुशल मजदूर हैं और पढ़े-लिखे प्रतिभा-संपन्न लोग भी। लेकिन अधिसंख्य सीमांत समूह ही हैं, जो बाहर जाते हैं लेकिन घर के नाम पर साल में एक-दो बार बिहार लौटते हैं। ये लाखों लोग बिहार में अपने परिवारों को ‘मनी-आर्डर’ भेजते हैं। करोड़ों की वह राशि इतनी बड़ी जरूर है, जो बिहार की गतिहीन अर्थव्यवस्था को ‘कदमताल’ करते रहने की शक्ति देती रहती है। यानी यह मनी-आर्डर इकॉनमी का ही चमत्कार है कि बिहार में ‘गरीबी’ विस्फोटक नहीं दिखती। अगर विशुद्ध अर्थशास्त्र की भाषा में कहें तो गरीब और विपन्न बिहार में ‘पैसा’ की कमी नहीं है। लेकिन यह ऐसा पैसा है, जो पैसा नहीं खींचता। यह उत्पादक पैसा नहीं है, यह उपभोग का पैसा है। यह पैसा आम बिहारी की गरीबी को इतना जरूर ढंकता है कि अमीरी का उदारवादी (अब उसे आवारागर्द कहा जाता है) अर्थशास्त्र सीमांत समूहों को अपने दायरे से बाहर फेंकने के बजाय खुद को टिकाने के लिए उनका इस्तेमाल करने की राजनीतिक स्ट्रैटजी बनाता है। उस स्ट्रैटजी का मुख्य सूत्र यह है कि कम से कम मजदूरी में कठिन श्रम करते हुए भी सीमान्त समूह असुरक्षित ‘याचक’ बना रहे और उनके श्रम की लूट से मुनाफ़ा कमाने वाले प्रभु ‘दाता’ बने रहें। इसलिए यह कहना अत्युक्ति नहीं कि बिहार-यूपी जैसे पिछड़े राज्यों से सीमान्त समूहों का ‘पलायन’ और गुजरात-महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्यों में उन पर ‘प्रहार’, दोनों आवारा पूंजी के इशारे पर चलने वाली सत्ता-राजनीति के एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

श्रीकांत प्रत्यूष 

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