सिटी पोस्ट लाइव, रांची: झारखंड की हेमंत सरकार ने घोषणा की है कि अंतरराज्यीय प्रवासी कानून के तहत ही कोई भी मजदूर अब राज्य से बाहर जाएगा। इसकी शुरुआत सीमा सड़क संगठन(बीआरओ) के साथ समझौते से हुई है। इससे एक आस तो जगी ही है। हो सकता है भविष्य में ऐसी किसी आपदा में मजदूरों के समक्ष उतनी दुश्वारियां न आएं, जितना अभी वह भुगत रहे हैं। कोरोना वायरस से फैली महामारी कोविड-19 के दौरान प्रवासी मजदूरों की अंतहीन दर्दभरी दास्तां से पूरा देश मर्माहत है। भूखे-प्यासे सपरिवार किसी भी तरह घर वापसी की मजदूरों की जद्दोजहदभरी तस्वीरों ने इस कड़वे और भयावह सच को सामने ला दिया है कि इनका कोई खैर-ख्वाह नहीं था। गरीबों, शोषितों, मजलूमों की बात करने वाले राजनीतिक दल भी बेपर्दा हो रहे हैं क्योंकि अगर उन्हें इनकी जरा भी चिंता होती तो निश्चय ही हालात इतने बुरे नहीं होते।झारखंड की ग्रामीण आबादी को अपनी रोजी-रोटी के लिए हर साल लाखों की संख्या में दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है। लेह-लद्धाख के दुर्गम इलाकों से लेकर अंडमान तक में यहां के मजदूर काम कर रहे हैं। इस महामारी ने इनके जीवन के तमाम कड़वे सच को सामने लाने का काम किया है। बीआरओ 70 के दशक से ही दुर्गम पहाड़ी इलाकों में सड़क निर्माण के काम के लिए झारखंड से मजदूर ले जा रहा है। अभी तक मजदूर खोजने और भेजने के काम में बिचौलिए उनकी मदद करते थे। महामारी के बाद लौटे मजदूरों ने इन बिचौलियों के जरिये होने वाले शोषण की जो कहानियां सुनाईं, वे बहुत शर्मनाक और दर्दनाक हैं। मजदूरों ने बताया कि वहां उन्हें पूरा वेतन नहीं दिया जाता था, उनके वेतन का एक हिस्सा मेठ अपने पास रख लेता था, जिसकी निगरानी में वह काम करते थे। उनके एटीएम कार्ड भी मेठ और बिचौलिए अपने पास रख लेते थे। उन्हें वेतन का बहुत सा बकाया पैसा नहीं दिया जाता था।
मजदूर इससे पहले कभी इस तरह राष्ट्रीय विमर्श में नहीं रहे, इसलिए इनकी कहीं, किसी भी स्तर पर कोई सुनवाई नहीं होती थी। सरकारों को भी इनकी पीड़ा से लेना-देना नहीं रहा है। यदि सरकारें थोड़ा भी संजीदा होती तो स्थितियां इतनी बदतर तो कतई नहीं होती। यह इससे भी जाहिर होता है कि राज्य बनने से पहले (संयुक्त बिहार) 1979 से ही यहां अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिक नियोजन कानून लागू है, लेकिन 41 सालों में एक भी प्रवासी मजदूर का यहां पंजीकरण नहीं हुआ।
झारखंड का गठन हुए 20 वर्ष बीत गए हैं और इस दौरान लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल यहां सत्ता संभाल चुके हैं लेकिन किसी ने इस कानून की सुध नहीं ली। पंजीकरण न होने से जो तमाम लाभ इन मजदूरों और उनके परिवारों को मिल सकते थे उससे भी वह वंचित रहे। श्रमिकों के कल्याण के लिए चल रही अन्य तमाम योजनाओं की हकीकत भी इससे बहुत इतर नहीं है। अब जब पूरे देश में मजदूरों के पलायन और उनकी पीड़ा की चर्चा हो रही है, तो राज्य सरकारें भी चेती हैं। उत्तर-प्रदेश के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी यह घोषणा की है कि राज्य सरकार की अनुमति के बिना कोई भी मजदूर दूसरे राज्य में काम करने नहीं जाएगा। वैसे यह संभव नहीं है और न ही व्यावहारिक कि सरकार हर किसी की निगरानी कर सके, लेकिन इस पहल का स्वागत तो होना ही चाहिए।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने बीआरओ को स्पष्ट कर दिया था कि अगर उन्हें लेह-लद्धाख में काम करने के लिए झारखंड से मजदूर ले जाने हैं तो बीच से बिचौलियों को हटाना होगा और सीधे सरकार के साथ समझौता करना होगा। बीआरओ ने सरकार की इन शर्तों को मान लिया और इसी के मुताबिक लद्धाख में मजदूरों के साथ अच्छा बतार्व करने, उन्हें पूरा वेतन देने आदि को लेकर एक मेमोरेंडम आफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) किया है। अब मजदूरों को 15900 से लेकर 29000 तक वेतन मिलेगा। इसके साथ ही करीब 12 हजार मजदूरों के वहां वापस काम पर जाने जाने का रास्ता साफ हो गया है। इस सच से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि झारखंड के पास संसाधनों की कमी है और घर लौटे सभी मजदूरों को यहां काम-धंधों में समायोजित करना बहुत आसान नहीं। सिर्फ मनरेगा अथवा कृषि के भरोसे सबकी रोजी-रोटी चल जाएगी, यह भी संभव नहीं है। सरकार भी चिंतित है।
घर लौटे मजदूर भी व्याकुल होने लगे हैं। उन्हें परिवार की चिंता सता रही है। सरकार दावा भले ही कर रही है कि वह सभी को काम मुहैया करवाएगी, लेकिन शायद ही इस पर किसी को भरोसा हो। राज्य में बेरोजगारी दर 60 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है जो पूरे देश में सबसे ज्यादा है। कोरोना का फैलाव जैसे ही कम होगा, मजदूर फिर काम की तलाश में दूसरे राज्यों के बड़े महानगरों की तरफ कूच करेंगे।
रोजगार के लिए हर साल बड़े पैमाने पर झारखंडियों का राज्य से पलायन एक गंभीर समस्या है और बीआरओ जैसे एक-दो समझौते भर से यह समस्या हल होने वाली नहीं है। सरकार को कई स्तर पर तत्परता और गंभीरता से काम करना होगा, ताकि आगे यहां से जाने वाले मजदूरों का शोषण न हो सके। इसके लिए जरूरी है कि हर मजदूर का पंजीकरण अनिवार्य रूप से हो। पूर्व में ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसकी जांच भी होनी चाहिए। इस बड़ी लापरवाही के लिए यदि कुछ जिम्मेदार चिन्हित होते हैं और उन पर कड़ी कार्रवाई की जाती है तो निश्चय ही मजदूरों के प्रति उपेक्षा का भाव रखने वाले निष्क्रिय कर्मचारियों-अफसरों में एक कड़ा संदेश जाएगा।
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