26 january special : हमारा ‘संविधान’ : आगाज और अंजाम
7 मई, 1945 में जर्मनी ने बिना शर्त सरेंडर किया। 18 मई को द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति की घोषणा हुई। जुलाई, 1945 में इंग्लैंड में चुनाव हुए। जुलाई के अंतिम सप्ताह में चर्चिल प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ हुए। बहुमत प्राप्त कर सत्ता में आये लेबर दल के नेता क्लीमेंट एटली इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बने। 19 फरवरी, 1946 को एटली ने घोषणा की कि लार्ड वावेल (1943 के मध्य अक्टूबर में भारत के वायसराय बने थे) भारत के राजनेताओं से ‘भारतीयों के हाथ सत्ता हस्तांतरण’ के बारे में बातचीत करेंगे। 24 मार्च, 1946 को ब्रिटिश मंत्रिामंडल के तीन सदस्यों पी.लॉरेन्स, स्टैफार्ड क्रिप्स और ए.बी. एलेक्जेंडर का ‘कैबिनेट मिशन’ भारत आया। मिशन ने संवैधानिक गतिरोध दूर करने के कई उपाय सुझाए। लेकिन उसके प्रस्तावों को सर्वमान्य स्वीकृति नहीं मिली।
इधर 1945 में देशभर में, 1935 के शासन विधान के तहत सीमित मताधिकार पर आधारित, चुनाव हुए। उसके परिणामों ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच जारी ‘टू नेशन थ्योरी’ का विवाद देश के कई हिस्सों में ‘कौमी आग’ लहका दिया था। भारत में केन्द्र सरकार के गठन में गतिरोध कायम था। अंततः 2 दिसम्बर, 1946 को केन्द्र में कांग्रेस की अंतरिम सरकार बनी। तब 9 दिसम्बर, 1946 को स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का सत्र डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में आरंभ हुआ। बाद में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इसके स्थायी अध्यक्ष बने। संविधान सभा में सदस्यों का चयन प्रांतीय विधायिकाओं के सीमित मतदाता मंडलों के आधार पर हुआ।
डॉ. आम्बेडकर के नेतृत्व में तय किया गया कि संविधान-निर्माण का अर्थ है सांविधिक लोकतंत्र की तलाश। इस तलाश में करीब तीन साल लगे। इस बीच देश की सत्ता-राजनीति का संघर्ष और छिना-झपटी का कार्य-व्यापार इतिहास के उस मोड़ पर पहुंच गया जहां ‘अपनों में ‘परायों’ की पहचान के बिना आगे का रास्ता नजर नहीं आ रहा था। हर व्यक्ति को अपने सामने खड़ा ‘अपना’ भी ‘अजनबी’ लग रहा था और हर अजनबी ‘प्रतिद्वंद्वी’। इतिहास के इस मोड़ पर देश के कई प्रभु ‘थथमें’ से खड़े थे। प्रजा उनको निहार रही थी, जो उस ऐतिहासिक मोड़ को पहचानने और 1947 के पूर्व के इतिहास की टेढ़ी-मेढ़ी चाल को सीधी राह पर लाने की अपनी शक्ति सिद्ध कर चुके थे। पूरे देश को उन पर अन्यों की अपेक्षा नाज अधिक था कि वे नया इतिहास रचेंगे। भरोसा भी था कि वे न इतिहास की नकल करेंगे और न इस अपेक्षा में बैठे रहेंगे कि इतिहास अपने आपको दोहराएगा।
परिणामतः 26 नवंबर, 1949 को संविधान परिषद ने भारत के संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया। उसमें घोषणा की गई कि ‘इंडिया’ यानी ‘भारत’ राज्यों का संघ होगा और उस संघ में वे प्रदेश सम्मिलित होंगे जो अब तक गवर्नर के प्रांत, भारतीय रियासतें और चीफ कमिश्नर के प्रांत कहलाते थे। और, यह घोषणा भी हुई कि संविधान को 26 जनवरी, 1950 से लागू किया जाएगा।
26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू किया गया। भारत संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया। उस दिन ‘दरबार हॉल’ में राष्ट्रपति की हैसियत से डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा – “इस देश में आज से न कोई राजा रहा और न प्रजा, या तो सब के सब राजा हैं या सब के सब प्रजा। इतिहास में यह पहला अवसर है जब यह सारा देश – कश्मीर से कन्याकुमारी तक और काठियावाड़ व कच्छ से कोकनद और कामरूप तक – एक से संविधान के शासन-सूत्र में बंधकर बत्तीस करोड़ मनुष्यों के सुख-दुःख तक की जिम्मेदारी अपने हाथ में ले रहा है। उसी दिन डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण करने के दस मिनट पूर्व राजगोपालाचारी ने कहा – 26 जनवरी, 1950 से इंडिया यानी भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य होगा तथा संघ और उसके विभिन्न घटक यानी राज्य उक्त संविधान में उल्लिखित धाराओं के अनुसार सरकार और शासन संस्था के समस्त अधिकार और कार्य ग्रहण करेंगे।
संविधान में ब्रिटिश राज से प्राप्त अधिकांश केन्द्रीय अधिकारों को बरकरार रखा गया। फौजी ताकत और आपातकालीन प्रावधान केन्द्र के पास रहे। नोट छापने और व्यापारिक ऋण लेने जैसे राजकोषीय अधिकारों का समावेशन केन्द्र में ही किया गया। संविधान में राज्यों को दिये गये अधिकारों के तहत गांवों की संपत्ति संबंधी संरचना बदलने की ताकत राज्यों को दी गयी और केन्द्र की ताकत सीमित कर दी गयी। सामाजिक व आर्थिक सुधार के अधिकार, जो मुख्यतः जमींदारी और भूमि से संबंधित, प्रांतीय विधायिकाओं के हवाले कर दिया गया। देश की सनातन जाति-व्यवस्था से बाहर के ‘पंचम वर्ण’ अर्थात् अछूतों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
संविधान सभा की बहसों के समापन के अवसर पर डॉक्टर आम्बेडकर ने अपने अंतिम भाषण में कहा – “26 जनवरी, 1950 से हम अंतर्विरोधों की दुनिया में कदम रखने जा रहे हैं। राजनीति में हम समान होंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में ऊंच-नीच रहेगा। राजनीति की दुनिया में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के उसूल को अपनाने जा रहे हैं। लेकिन, सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम अपने सामाजिक और आर्थिक ढांचे के कारण एक मूल्य एक वोट के उसूल को नकारते रहेंगे! अंतर्विरोधों की इस दुनिया में हम आखिर कब तक जियेंगे? सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम समता को कब तक ठुकराते रहेंगे? अगर हमने देर तक समता को नकारना जारी रखा तो परिणामस्वरूप हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को ही संकटग्रस्त कर देंगे।”
डॉ. आंबेडकर का यह कथन औपनिवेशक स्वराज्य से पूर्ण स्वराज की ओर कदम बढ़ाते देश के सामने उपस्थित उस ‘सवाल’ को स्पष्ट कर गया जिस पर आजादी का जश्न धूल की तरह छा रहा था। यानी सवाल ‘देश की आजादी’ का नहीं ‘देश में आजादी’ का था।
आज हमारा देश जिस ‘लोकतंत्र’ में जी रहा है और जिस ‘गणतंत्र’ को बरत रहा है, उसके मद्देनजर यह कहना ‘अप्रासंगिक’ या ‘राष्ट्रद्रोह’ होगा कि आज भी सवाल देश की आजादी का नहीं, देश में आजादी का है?
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