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26 january special : 26 जनवरी का मकसद और मतलब समझिये

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26 जनवरी का मकसद और मतलब

“हम 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाते हैं। क्यों?”

“क्योंकि इसी दिन हमारा संविधान लागू किया गया था। यह हमारे देश में स्कूल में पढाई करने वाला बच्चा-बच्चा जानता है। उनकी पाठ्य-पुस्तकों में भी यह दर्ज है।”

“हां, लेकिन आजाद देश के लिए संविधान बनाने का फैसला 15 अगस्त, 1947 के पहले किया गया। संविधान सभा (परिषद) को संविधान तैयार करने में करीब तीन साल लगे। 26 नवंबर, 1949 को देश की संसद ने भारत के संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया। और, यह घोषणा हुई कि संविधान को 26 जनवरी, 1950 से लागू किया जाएगा। तो यह सवाल वाजिब है कि संविधान को लागू करने के लिए 26 जनवरी की तारीख ही क्यों निश्चित की गयी? क्या इसका जवाब बच्चों की पाठ्य-पुस्तकों में दर्ज है?”

“शायद न हो, या शायद हो। स्कूलों में चलनेवाली इतिहास या समाज-शास्त्र की पुस्तकों को देख-पढ़ कर ही ठीक-ठीक बताया जा सकता है।”

“पूरे देश में क्या, एक प्रदेश के तमाम सरकारी-गैरसरकारी स्कूलों में इतिहास या समाज-ज्ञान विषय के लिए एक पाठ्य पुस्तक चलती है? सरकार शायद इसे जरूरी मानती नहीं। और, यह तो कतई जरूरी नहीं कि सबमें में 26 जनवरी के इतिहास से संबंधित एक पाठ अनिवार्यतः दर्ज हो। आपके कहने का मतलब यही है न?”

“हां।”

“तो इसका मायने यह है कि 26 जनवरी से संबंधित जानकारी सही है, लेकिन अधूरी है!”

“हां, हमारी स्कूली पाठ्यपुस्तकों में इस बाबत कोई मुकम्मल जानकारी दर्ज नहीं है। इसलिए संभवतः शिक्षक भी स्कूल में इस सिलसिले में बच्चों को कुछ नहीं बताते।”

“यानी बच्चों को यह भी मालूम नहीं कि 26 जनवरी से संबंधित जानकारी ‘अधूरी’ है। शिक्षक नहीं पढ़ाते, इसीलिए उनमें यह सवाल ही नहीं उठता कि 26 जनवरी की तारीख का कोई ‘इतिहास’ है अथवा नहीं? शायद इसलिए आज की युवा पीढ़ी में यह जिज्ञासा भी नहीं है कि गणतंत्र दिवस के लिए 26 जनवरी का दिन निर्धारित करने का मकसद और मतलब क्या है? उलटे, गणतंत्र दिवस को ‘छुट्टी के दिन’ के रूप में बरतने वाली नयी पीढी के कई किशोर और युवा 26 जनवरी के मकसद और मतलब से जुड़े सवाल को ‘अनावश्यक’ मानते हैं। वे अक्सर यह सवाल करते हैं कि जो इतिहास अनुपयोगी’ हो, उसको क्यों ‘पढ़ना’ और उसमें क्यों पड़ना?

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तारीख की तवारीख

दिसंबर 1929 के अंतिम सप्ताह लाहौर में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ। उसमें ‘पूर्ण स्वराज’ यानी पूर्ण स्वाधीनता (कम्प्लीट इंडिपेंडेंस) का प्रस्ताव पारित हुआ। 31 दिसंबर, 1929 की आधी रात के बाद इसकी घोषणा की गयी। इसके साथ नए साल (1930) में 26 जनवरी को पूर्ण स्वाधीनता दिवस (इंडिपेंडेंस डे) के रूप में मनाने की घोषणा की गयी। 2 जनवरी, 1930 को 26 जनवरी के लिए ‘प्रतिज्ञा-पत्र’ तैयार किया गया।

26 जनवरी, 1930 दिन आया और उस दिन देश भर में जोश की एक लहर उठी। देश भर में लाखों लोगों ने प्रतिज्ञा-पत्र भरा। देश के कई-कई जगहों पर लोगों ने भारी तदाद में जमा होकर, बिना किसी प्रकार की भाषणबाजी और उपदेशों के, शांतिपूर्वक और गंभीरता से ‘स्वाधीनता’ की प्रतिज्ञा ली। धरना-प्रदर्शन के बजाय देश के हजारों गाँव और शहरों में आम जनता ने सामूहिक स्तर पर रचनात्मक कार्यक्रमों में सहयोग दिया। रचनात्मक कार्यों से पूर्ण स्वराज के संघर्ष में जनता की सहभागिता का विराट प्रदर्शन हुआ। तब से गुलाम भारत में ब्रिटिश-राज के खिलाफ 18 साल तक हर 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस मनाने का सिलसिला चला। देश आजाद हुआ 15 अगस्त 1947 को। यानी ‘15 अगस्त’ भारत का आधिकारिक स्वतंत्रता दिवस बना। 26 नवम्बर, 1949 को संविधान परिषद् की अंतिम बैठक में सर्वसम्मति से स्वीकृत संविधान को 26 जनवरी 1950 से लागू करने का फैसला किया गया, ताकि   26 जनवरी 1930 से जारी स्वाधीनता दिवस की प्रेरणा और ऐतिहासिक महत्व अक्षुण्ण रहे।

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26 के लिए अपील 

लाहौर कांग्रेस में लम्बी बहस और अनगिनत संशोधनों के बाद भारी बहुमत से ‘पूर्ण स्वराज’ का प्रस्ताव पारित हुआ। कांग्रेस का नया ध्वज अंगीकार किया गया – तिरंगा। फिर देशव्यापी संघर्ष की रणनीति और कार्यक्रम पर घंटों विचार-विमर्श हुआ। जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस ने सुझाव दिया कि कांग्रेस देश में ‘समानांतर सरकार’ कायम कर दे। सरदार पटेल का सुझाव था कि दिल्ली तक ‘जनकूच’ किया जाय। विकल्प में उन्होंने देशव्यापी लगानबंदी आंदोलन करने का सुझाव दिया।

गांधीजी ने सबके सुझाव पर असहमति व्यक्त की। उन्होंने खुलकर कहा कि पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पास कर लेना आसान था। लेकिन ‘शांतिमय और वैध’ उपायों से पूर्ण स्वराज पाना बड़ी टेढ़ी खीर है। इसलिए सबसे पहले जरूरी है कि देश की सर्वसाधारण जनता कांग्रेस के सं‹देश को जाने, समझे और सराहे। जनता को यह मालूम हो कि ‘स्वाधीनता’ का मतलब क्या है और उसके लिए कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी। जनकूच या समानान्तर सरकार को लेकर अंग्रेज सरकार नेताओं को गिरफ्तार करेगी और संघर्ष विफल हो जाएगा। किसी भी आंदोलन की सफलता की पहली शर्त होती है जनसाधारण की भागीदारी, और जनता आंदोलन में तभी शामिल होती है जबकि वह उसके दैनंदिन जीवन से सीधे जुड़ा हो। आंदोलन’ से स्वराज की समझ के साथ जनता में सामाजिक, आर्थिक और नैतिक नवजीवन की भी चेतना जगानी होगी। यह सबका अनुभव है कि भारतीय समाज एक विखंडित समाज है। उसके विभिन्न समूहों और समुदायों में एकता की भावना जगाये बिना ब्रिटेन पर दबाव नहीं लाया जा सकता। उन्होंने इस सवाल पर सब नेताओं से ‘मिलकर सोचने की अपील’ की कि क्या एकता की यह भावना ब्रिटिश हुकूमत की पहल (दमन का दबाव) पर और उसके सहारे कायम होगी?

तब गांधी जी की सलाह से तय हुआ कि 26 जनवरी को पूरे देश में ‘स्वाधीनता दिवस’ मनाया जाएगा। गांधी जी ने 26 जनवरी के लिए ‘स्वाधीनता का घोषणा-पत्र’ तैयार किया। 2 जनवरी, 1930 की बैठक में कांग्रेस की कार्यसमिति ने उसे ही ‘प्रतिज्ञा-पत्र’ के रूप में सर्वसम्मति से स्वीकार किया। उसे जारी करने के पूर्व कांग्रेस की और से यह अपील जारी की गयी कि

  1. याद रखिए कि 26 जनवरी का दिन स्वाधीनता की ƒघोषणा करने का दिन नहीं है, बल्कि यह घोषित करने का दिन है कि तथाकथित ‘अधिराज्य’ (Dominion Status so-called) के बजाय अब हम पूर्ण स्वाधीनता से कम किसी चीज से सं‹तुष्ट नहीं होंगे। कांग्रेस के संविधान में स्वराज (swaraj शब्द का अर्थ अब पूर्ण स्वराज (purna swaraj) हो गया है।
  2. याद रखिए कि 26 को हमें सविनय अव™ज्ञा शुरू नहीं करनी है बल्कि सिर्फ सभाएं करके पूर्ण स्वराज हासिल करने का अपना संकल्प और इस लक्ष्य की सिद्धि के लिए समय-समय पर प्रकाशित कांग्रेस के निर्देशों पर अमल करने का अपना निश्चय प्रकट करना है।
  3. याद रखिए कि हम चूंकि अपने ध्येय को अहिंसात्मक और सच्चे उपायों से ही प्राप्त करना चाहते हैं, और यह काम हम केवल आत्मˆशुद्धि द्वारा ही कर सकते हैं, इसलिए हमें चाहिए कि उस दिन हम अपना सारा समय यथाश€क्ति कोई रचनात्मक कार्य करने में बितायें।
  4. याद रखिए कि सभाओं में भाषण बिल्कुल नहीं होने हैं। जो घोषणा-पत्र तमाम कांग्रेस कमेटियों के पास भेजा गया है, केवल वही पढ़ा जायेगा और लोग अपने हाथ उठाकर या उस पर हस्ताक्षर कर उसकी ताईद करेंगे। घोषणा-पत्र प्रांतीय भाषा में पढ़ा जाना चाहिए।

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26 के लिए जन घोषणा-पत्र

गांधीजी लिखित ‘26 जनवरी के लिए स्वाधीनता का घोषणा-पत्र’ के ड्राफ्ट को कांग्रेस की आधिकारिक घोषणा के रूप में जारी किया गया। उसके साथ कार्यक्रम की प्रक्रिया और तरीकों से संबंधित यह निर्देश भी नत्थी किया गया कि 26 जनवरी का दिन हमारे लिए पूर्ण अनुशासन, संयम, प्रतिष्ठा और सच्ची शक्ति के प्रकटीकरण का दिन होगा। स्वाधीनता का घोषणा-पत्र प्रत्येक शहर और प्रत्येक गांव में उद्घोषित हो। पूरे देश में सब जगह एक ही निश्चित समय पर सभाएं हों। इन सभाओं की उपस्थिति बहुसंख्यक बनाने के लिए कांग्रेस के कार्यकर्ता-नेता घर-घर जाएं और लोगों में पर्चे भी बांटे। गांवों में पुराने रिवाज के अनुसार डुग्गी द्वारा सभा के वक्त का ऐलान किया जाए। जो लोग धार्मिक वृˆत्ति के हैं, वे पूर्ववत् उस दिन का कार्यक्रम भी शौच-स्नान आदि से शुरू करें और अपनी सारी शक्ति देश की समस्या और चुनौती पर विचार करने और उसे हल करने के उपायों में खर्च करें। इसके लिए उस दिन वे अपना सारा समय किसी रचनात्मक कार्यक्रम में लगायें, चाहे वह कताई का हो, ‘अछूतों’ की सेवा का हो, हिंदू-मुसलमानों के मेल-मिलाप का हो, शराबबं‹दी का हो या फिर ये सभी काम हों ; ये नामुमकिन नहीं है। जैसे कि एक हिन्दू किसी ‘अछूत’ को अपने साथ ले, और मुसलमान, पारसी, ईसाई, सिख वगैरा को बुलाकर उनके साथ कुछ निश्चित समय के लिए चरखा-दंगल में शामिल हो, या फिर वे सब मिलकर एक घंटे तक खादी की फेरी लगायें। — यह खादी वे सब मिलकर खरीदें और फिर बेचें, और बाद में एक घंटे के लिए पास की किसी शराब की दुकान पर चले जायें, और शराब विक्रेता को समझायें कि इन गं‹दे उपायों से धन कमाना या जीविका उपार्जन करना कितना बुरा है। वे ऐसी दुकानों पर आने वाले शराबखोरों से भी दो बातें करें हैं और फिर शाम की सभा में हाजिर होकर उस दिन का कार्यक्रम सम्पन्न करें। 26 जनवरी रविवार है और उस दिन झंडा फहराना है। ध्वजारोहण समारोह से भी उस दिन का कार्यक्रम प्रारम्भ किया जा सकता है।

घोषणा-पत्र : हमारा विश्वास है कि अपनी प्रगति के लिए पूरा-पूरा अवसर पाने की दृष्टि से दूसरे देशवासियों की तरह हिं‹दुस्तान के लोगों का स्वाधीनता पाने और अपनी मेहनत का सुख भोगने तथा जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं को प्राŒप्त करने का अटल अधिकार है, हमारा यह भी विश्वास है कि अगर कोई सरकार लोगों को उनके अधिकार से वंचित करती है और उन पर जुल्म करती है, तो लोगों को यह भी अधिकार है कि वे उसे बदल दें या उसे समाप्त कर दें। भारत की अंग्रेज सरकार ने हिं‹दुस्तानियों को न केवल उनकी स्वाधीनता से वंचित कर दिया है, बल्कि उसने जनता के शोषण को ही अपना आधार बनाया है और हिं‹दुस्तान को आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से तबाह कर दिया है। इसलिए हम मानते हैं कि हिं‹दुस्तान को अवश्य ही ब्रिटेन से सम्ब‹ध तोड़ देना चाहिए और ‘पूर्ण स्वराज’ या पूर्ण-स्वाधीनता हासिल करनी चाहिए।

आर्थिक दृष्टि से भारत को बरबाद कर दिया गया है। लोगों से जो कर वसूल किया जाता है, वह अनुपात में हमारी आमदनी से कही …ज्यादा है। हमारी औसत आमदनी प्रतिदिन सात पैसा (दो पेंस से भी कम) है, और जो भारी कर हम देते हैं उसका 20 फीसदी किसानों से लगान के रूप में वसूल किया जाता है, और 3 फीसदी नमक-कर से वसूल किया जाता है। इस पिछले कर का भार गरीबों पर ही …ज्यादा पड़ता है।

गांव के उद्योग-धंधे, जैसे कि हाथ-कताई, नष्ट कर दिये गये हैं और इस कारण किसानों को साल में कम-से-कम चार महीने बेकार रहना पड़ता है। हस्तकला कौशल के अभाव में उनकी बुद्धि मंद होती जा रही है। जो हुनर इस तरह नष्ट हो गये, और देशों की भांति, उनके बदले में कोई नया धंधा भी नहीं मिल सका है।

आयात-निर्यात कर और मुद्रा की कुछ ऐसी व्यवस्था की गई है कि उनसे किसानों का बोझ और भी …ज्यादा बढ़ता है। इस देश में ब्रिटेन का तैयार किया गया माल ही …ज्यादा तादाद में आता है। इस माल पर जो आयात कर वसूल किया जाता है, उससे उस माल के प्रति पक्षपात स्पष्ट प्रकट होता है, और इससे जो आमदनी होती है उसका उपयोग जनता के बोझ को हलका करने में नहीं किया जाता, बल्कि वह एक अत्यंत फिजूलखर्ची प्रशासन को बनाये रखने में खर्च होता है। इससे भी अधिक निरंकुशता विनियम की दर को ठहराने में की गई है, जिसके कारण देश से करोड़ों रुपये बाहर खिंचकर चले जाते हैं।

राजनीतिक दृष्टि से हिंदुस्तान की प्रतिष्ठा पहले कभी इतनी नहीं ƒघटी थी, जितनी कि अंग्रेजी शासन में घटी है। एक भी सुधार से जनता के हाथ में सच्ची राजनैतिक शक्ति नहीं आई है। हममें से बड़े-से-बड़े को भी विदेशी सत्ता के सामने झुकना पड़ता है।

विचार व्य€क्त करने की स्वतंत्रता और सम्मेलन करने की स्वतंत्रता के अधिकारों से हमें वंचित रखा गया है। हमारे कई देशभाई निर्वासितों की भांति विदेश में रहने को विवश किये गये हैं। और वे अपने घर वापस नहीं आ सकते। हमारी सारी शासन-क्षमता मार दी गई है। और जनता को पटेल, पटवारी या मुहर्रिरी के छोटे-मोटे काम से ही सं‹तोष कर लेना पड़ता है।

सांस्कृतिक दृष्टि से, शिक्षा की इस प्रणाली ने हमें अपनी संस्कृति से काट दिया है और हमें जो प्रशिक्ष‡ण मिला है उसने हमें उ‹न्हीं जंजीरों से और जोर से लिपटे रहना सिखाया है जो हमें [दासता में] बांधे हैं। [Culturally, the system of education has torn us from our moorings and our training has made us hug the very chains that bind us.]

आŠध्यात्मिक दृष्टि से, अनिवार्य निरस्त्रीकरण (compulsory disarmament) ने हमें नपुंसक बना दिया है। और हमारे प्रतिरोध की भावना को कुचल डालने के घातक इरादे से नियुक्त विदेशी सेना की मौजूदगी ने हमें ऐसा सोचने वाला बना दिया है कि न तो हम अपनी रक्षा कर सकते हैं, न विदेशियों के आक्रमण का सामना कर सकते हैं ; यहां तक कि चोर, डाकू या गुंडों के हमलों से भी हम अपने घरों और परिवारों को बचा सकते हैं। जिस शासन ने हमारे देश पर इन चौतरफा विपत्तियों का बोझ लाद दिया है, उसके अधीन रहना हम ईश्वर और मानव जाति के प्रति अपराध करना समझते हैं।

हम मानते हैं कि स्वाधीनता प्राप्त करने के तरीकों में हिंसा का तरीका सबसे ज्यादा कारगर नहीं है। अत: हम, जहां तक हमसे हो सके, ब्रिटिश सरकार से स्वैच्छिक सहयोग छोड़ देंगे, और सविनय अव™ज्ञा की तैयारी करेंगे, जिसमें ‘कर’ न देना भी शामिल है। हमें पक्का विश्वास है कि अगर हम स्वैच्छिक सहयोग करना छोड़ दें और उˆतेजना का कारण उपस्थित होने पर भी हिंसा न करते हुए ‘कर’ देने से इनकार कर दें तो इस अमानुषिक शासन का अंत निश्चित है। अतएव हम पवित्र प्रतिज्ञा करते हैं कि पूर्ण-स्वराज की स्थापना के लिए कांग्रेस समय-समय पर जो हिदायतें देगी उनका हम पालन करेंगे।

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हमारा ‘संविधान’ : आगाज और अंजाम 

7 मई, 1945 में जर्मनी ने बिना शर्त सरेंडर किया। 18 मई को द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति की घोषणा हुई। जुलाई, 1945 में इंग्लैंड में चुनाव हुए। जुलाई के अंतिम सप्ताह में चर्चिल प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ हुए। बहुमत प्राप्त कर सत्ता में आये लेबर दल के नेता क्लीमेंट एटली इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बने। 19 फरवरी, 1946 को एटली ने घोषणा की कि लार्ड वावेल (1943 के मध्य अक्टूबर में भारत के वायसराय बने थे) भारत के राजनेताओं से ‘भारतीयों के हाथ सत्ता हस्तांतरण’ के बारे में बातचीत करेंगे। 24 मार्च, 1946 को ब्रिटिश मंत्रिामंडल के तीन सदस्यों पी.लॉरेन्स, स्टैफार्ड क्रिप्स और ए.बी. एलेक्जेंडर का ‘कैबिनेट मिशन’ भारत आया। मिशन ने संवैधानिक गतिरोध दूर करने के कई उपाय सुझाए। लेकिन उसके प्रस्तावों को सर्वमान्य स्वीकृति नहीं मिली।

इधर 1945 में देशभर में, 1935 के शासन विधान के तहत सीमित मताधिकार पर आधारित, चुनाव हुए। उसके परिणामों ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच जारी ‘टू नेशन थ्योरी’ का विवाद देश के कई हिस्सों में ‘कौमी आग’ लहका दिया था। भारत में केन्द्र सरकार के गठन में गतिरोध कायम था। अंततः 2 दिसम्बर, 1946 को केन्द्र में कांग्रेस की अंतरिम सरकार बनी। तब 9 दिसम्बर, 1946 को स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का सत्र डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में आरंभ हुआ। बाद में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इसके स्थायी अध्यक्ष बने। संविधान सभा में सदस्यों का चयन प्रांतीय विधायिकाओं के सीमित मतदाता मंडलों के आधार पर हुआ।

डॉ. आम्बेडकर के नेतृत्व में तय किया गया कि संविधान-निर्माण का अर्थ है सांविधिक लोकतंत्र की तलाश। इस तलाश में करीब तीन साल लगे। इस बीच देश की सत्ता-राजनीति का संघर्ष और छिना-झपटी का कार्य-व्यापार इतिहास के उस मोड़ पर पहुंच गया जहां ‘अपनों में ‘परायों’ की पहचान के बिना आगे का रास्ता नजर नहीं आ रहा था। हर व्यक्ति को अपने सामने खड़ा ‘अपना’ भी ‘अजनबी’ लग रहा था और हर अजनबी ‘प्रतिद्वंद्वी’। इतिहास के इस मोड़ पर देश के कई प्रभु ‘थथमें’ से खड़े थे। प्रजा उनको निहार रही थी, जो उस ऐतिहासिक मोड़ को पहचानने और 1947 के पूर्व के इतिहास की टेढ़ी-मेढ़ी चाल को सीधी राह पर लाने की अपनी शक्ति सिद्ध कर चुके थे। पूरे देश को उन पर अन्यों की अपेक्षा नाज अधिक था कि वे नया इतिहास रचेंगे। भरोसा भी था कि वे न इतिहास की नकल करेंगे और न इस अपेक्षा में बैठे रहेंगे कि इतिहास अपने आपको दोहराएगा।

परिणामतः 26 नवंबर, 1949 को संविधान परिषद ने भारत के संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया। उसमें घोषणा की गई कि ‘इंडिया’ यानी ‘भारत’ राज्यों का संघ होगा और उस संघ में वे प्रदेश सम्मिलित होंगे जो अब तक गवर्नर के प्रांत, भारतीय रियासतें और चीफ कमिश्नर के प्रांत कहलाते थे। और, यह घोषणा भी हुई कि संविधान को 26 जनवरी, 1950 से लागू किया जाएगा।

26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू किया गया। भारत संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया। उस दिन ‘दरबार हॉल’ में राष्ट्रपति की हैसियत से डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा – “इस देश में आज से न कोई राजा रहा और न प्रजा, या तो सब के सब राजा हैं या सब के सब प्रजा। इतिहास में यह पहला अवसर है जब यह सारा देश – कश्मीर से कन्याकुमारी तक और काठियावाड़ व कच्छ से कोकनद और कामरूप तक – एक से संविधान के शासन-सूत्र में बंधकर बत्तीस करोड़ मनुष्यों के सुख-दुःख तक की जिम्मेदारी अपने हाथ में ले रहा है। उसी दिन डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण करने के दस मिनट पूर्व राजगोपालाचारी ने कहा – 26 जनवरी, 1950 से इंडिया यानी भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य होगा तथा संघ और उसके विभिन्न घटक यानी राज्य उक्त संविधान में उल्लिखित धाराओं के अनुसार सरकार और शासन संस्था के समस्त अधिकार और कार्य ग्रहण करेंगे।

संविधान में ब्रिटिश राज से प्राप्त अधिकांश केन्द्रीय अधिकारों को बरकरार रखा गया। फौजी ताकत और आपातकालीन प्रावधान केन्द्र के पास रहे। नोट छापने और व्यापारिक ऋण लेने जैसे राजकोषीय अधिकारों का समावेशन केन्द्र में ही किया गया। संविधान में राज्यों को दिये गये अधिकारों के तहत गांवों की संपत्ति संबंधी संरचना बदलने की ताकत राज्यों को दी गयी और केन्द्र की ताकत सीमित कर दी गयी। सामाजिक व आर्थिक सुधार के अधिकार, जो मुख्यतः जमींदारी और भूमि से संबंधित, प्रांतीय विधायिकाओं के हवाले कर दिया गया। देश की सनातन जाति-व्यवस्था से बाहर के ‘पंचम वर्ण’ अर्थात् अछूतों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

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